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करोड़पति नेताओं की बेचारी कंगाल कांग्रेस

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एक पुराना फिल्मी गीत है। ‘गरीबों की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा। तुम एक पैसा दोगे, वो दस लाख देगा।’ चलिए, बात समझने और समझाने की गरज से गाने में कुछ परिवर्तन कर लेते हैं। कह देते हैं कि ‘ गरीब कांग्रेस की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगी। तुम एक पैसा दोगे, वो दस लाख देगी।’ राजनीतिक दल के तौर पर देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस इस समय ऐसी ही हालत में दिख रही है। अजीब लग सकता है, करोड़पति नेताओं को पालने पौसने वाली पार्टी अब कड़की के दौर में है। अगले लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस क्राउड फंडिंग का सहारा ले रही है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हालिया संपन्न एक कार्यक्रम में कुर्सियों पर ही बार कोड लगाकर लोगों से आर्थिक सहयोग की मांग की गई। स्थिति विचित्र है। करीब 135 साल पुराना वह सियासी दल देश की सत्ता में करीब छह दशक रहने के बाद कंगाल दिख रहा है, जिसके पास मालामाल नेताओं की कोई कमी नहीं है। कम से कम इसके किसी भी कर्णधार ने कभी रुपए-पैसे की मोहताजी का सामना नहीं किया। लाल बहादुर शास्त्री से लेकर गुलजारी लाल नंदा जैसे चंद जो उदाहरण इस स्थिति के अपवाद रहे, वह इस पार्टी में आउटडेटेड स्थिति के शिकार हो गए। बाकी तो मामला उन मोतीलाल नेहरू का रहा, जिनकी अपने समय में रोज की कमाई पांच हजार रुपए से अधिक की हुआ करती थी। वह जवाहरलाल नेहरू, जिनकी पसंद की सिगरेट लाने के लिए सरकारी विमान में उस समय हजारों रुपए का ईंधन फूँका जाता था।

इंदिरा गांधी जी की वह तस्वीर आज भी देखी जा सकती है, जिसमें विमान में बैठकर राहुल गांधी के जन्मदिन का पारिवारिक आयोजन किया गया। पायलट की नौकरी छोड़ने के बाद न कभी राजीव गांधी ने आजीविका के प्रबंध हेतु कोई काम किया और न ही सोनिया गांधी से लेकर राहुल तक का अपना कोई रोजगार है। लेकिन इनकी गिनती विश्व के रईस लोगों में की जाती है। इस परिवार से बाहर वाले सैकड़ों हजारों नेताओं की भी लकदक से भरी जिंदगी किसी से छिपी नहीं है। तो सवाल यह कि मालामाल नेताओं वाली कांग्रेस भला खुद कैसे कंगाल हो गई है? क्या ऐसा हुआ कि जो लोग इस दल का कंधा पकड़कर धन-धान्य से संपन्न हुए, उन्होंने ही समय आने पर पार्टी की मदद के नाम पर उससे कंधा झाड़ लिया? या फिर यह मामला खालिस उसी तरह से दिखावे का है, जैसे राहुल गांधी ने कभी अपने कुर्ते की फटी जेब की नुमाइश के माध्यम से करने का असफल प्रयास किया था?

और यदि सचमुच कांग्रेस की यही दशा है, तो फिर इस पर भी कई सवाल खड़े होते हैं। चंदा लेने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल अपना खर्चा चंदे से या पार्टी के ही नेताओं और कार्यकर्ताओं से जुटाते हैं। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि केंद्र से लेकर राज्य तक में जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उसे अन्य के मुकाबले अधिक चंदा मिलता है। तो जिस कांग्रेस ने करीब छह दशक तक देश पर शासन किया, जो कई राज्यों में लंबे समय तक हुकूमत में रही, उसके साथ ऐसा क्या हो गया कि उसे आज यूं क्राउड फंडिंग का सहारा लेना पड़ रहा है? चंदा भाजपा ने भी लिया है। भले ही उसे अब तक इस मामले में कांग्रेस से कम अवसर मिले हैं। फिर भी आज स्थिति यह है कि इस दल ने देश के अधिकांश जिलों तक में अपने सर्व-सुविधा युक्त दफ्तर स्थापित कर लिए हैं। पार्टी सत्ता में रहे या विपक्ष में, भाजपा ने संगठन की अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे कई कार्यक्रम चलाएं हैं। आजीवन सदस्यता निधि का एक ऐसा ही फार्मूला मध्यप्रदेश में पार्टी के पितृपुरूष कहे जाने वाले कुशाभाऊ ठाकरे ने तय किया था, जिसमें पार्टी हर साल अपने ही कार्यकर्ताओं से आर्थिक मदद लेती है। तो भाजपा के मुकाबले कई गुना ऐसे अवसर मिलने के बाद भी कांग्रेस आर्थिक रूप से क्यों आबाद नहीं हो पाई, इसका उत्तर शायद इसके वह करोड़पति नेता ही दे सकते हैं, जो अपनी सियासी सफर की शुरूआत से लेकर अब तक आर्थिक मामले में फर्श से अर्श तक का धमाकेदार सफर तय कर चुके हैं। ऐसे में अनुत्तरित और गंभीर प्रश्न यह भी है कि आखिर ऐसा क्या है कि सत्ता की भरपूर मलाई सूतने के बाद गद्दी से नीचे आते ही यह पार्टी कैसे सीधे कंगाली के मुंह में जा समाती है?

यह सब देखकर लगता है कि शायद कांग्रेस के कर्णधारों ने अपनी जेब भरते समय पार्टी की तरफ ध्यान नहीं दिया और अब वे जनता से पार्टी की सुध लेने की गुहार लगा रहे हैं। करोड़पति नेताओं की भाजपा सहित अन्य दलों में भी कमी नहीं है। इनमें से भी कई ऐसे हैं, जिन पर लक्ष्मी की यह कृपा राजनीति में आने के बाद ही हुई। निश्चित ही ऐसी समृद्धि जांच सहित संदेह का विषय भी है। किंतु देश में सबसे लंबे और वैभवशाली अतीत के बाद भी कांग्रेस की ऐसी दशा क्यों है, यह समझ से परे ही रहेगा। ठीक उसी तरह, जैसे आज भी यह बात नहीं समझी जा सकी है कि पार्टी के दिग्गज नेता पी चिदंबरम ने किस तरह घर के गमले में उगी गोभी से करोड़ों की आय अर्जित कर ली और किस तरह कोयला घोटाले से लेकर कॉमन वेल्थ घोटाला आदि की लंबी फेहरिस्त में जुड़े इस पार्टी के कई नेता रहस्यमय तरीके से कुबेर की श्रेणी में स्थापित होते चले गए। अब कांग्रेस लंबे समय से कई राज्यों में सत्ता से बाहर है और केन्द्र से उसकी बेदखली हुए भी एक दशक पूरा हो रहा है। राज्यों में तो इस बुजुर्ग पार्टी के लिए प्रदेशाध्यक्ष तय करने का फार्मूला ही यह हो गया है कि चयनित नेता पार्टी के खर्चें वहन कर सकता है या नहीं। आखिर तमाम नाकामयाबियों के बाद भी कमलनाथ छह साल तक मध्यप्रदेश में कांग्रेस को अपनी मनमर्जी से ही तो हांकते रहे। इसी का दूसरा उदाहरण, गिने चुने राज्यों में सत्तारूढ़ बची कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की आलाकमान के सामने ताकत से भी लगाया जा सकता है।

खैर हालात और उनके कारणों का सच चाहे जो भी हो, लेकिन एक बात साफ है। राहुल गांधी के प्रभाव वाले इस पूरे कालखंड में कांग्रेस जनमत से लेकर धन के मामले में ठन-ठन गोपाल वाला सफर बड़ी दयनीय अवस्था में घिसट-घिसटकर तय कर पा रही है। वैसे तो यह सारा मामला ही किसी लतीफे जैसा है, फिर भी एक और लतीफा याद आ गया। सेना के अफसर ने नाश्ते के लिए बैठी टुकड़ी के जवानों से कहा, ‘खाने पर दुश्मन की तरह टूट पड़ो।’ टुकड़ी कई दिन की भूखी थी। उसे यह भी पता नहीं था कि ऐसी खुराक का अगला बंदोबस्त अब कब हो पाएगा। इसलिए जवानों ने पेट भरने के साथ ही खाने का सामान अपनी जेबों में भरना भी शुरू कर दिया। यह देखकर अफसर गुस्से से चिल्लाया तो जवान बोले, ‘हुजूर, हम जहां दुश्मनों का सफाया कर रहे हैं, वहीं कुछ को बंदी भी बना रहे हैं।’ कांग्रेस की दशा इससे बहुत अलग नहीं दिखती है। अंतर केवल यह कि आज इस दल में ऐसे हालात पर गुस्सा करना तो दूर, सवाल उठाने वाले नेता तक नहीं बचे हैं। वे तो दीन-हीन हालत में देश के सामने यही गाते दिख रहे हैं कि कांग्रेस की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगी। तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगी।’ अब यह बात और है कि यह दस लाख किसके हिस्से में आएंगे? और यह दस लाख किसकी जेब से जाएंगे? इस दल के अब तक के हालात को देखकर इस सवाल का शत-प्रतिशत सही जवाब तो कोई नादान भी पूरी आसानी के साथ दे सकता है।

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