प्रकाश भटनागर
एसआईआर को लेकर भय और विरोध का माहौल बनाने वालों को देख/पढ़,सुनकर एक घटना याद आ रही है। बात बचपने की है। स्कूल में उस दिन स्वास्थ्य विभाग की टीम आई थी। बड़ी कक्षा के कुछ लड़कों ने अफवाह उड़ा दी कि अब सभी को बड़ी-बड़ी बेहद दर्द देने वाली सुई (इंजेक्शन को उन दिनों यह भी कहते थे) चुभाई जाएगी। उन्होंने कुछ इतने खतरनाक अंदाज में इस प्रक्रिया का बखान किया कि ज्यादातर बच्चों के बीच दहशत फ़ैल गयी।
स्कूल परिसर में चीख-पुकार का माहौल बन गया। यह बात और कि जो बच्चे टीम वाले कमरे में जाने से पहले दहाड़ें मार कर रो रहे थे, वो बाहर आते तक एक़दम सामान्य हो चुके थे। जिन्होंने इंजेक्शन लगने से तकलीफ की शिकायत की, वो भी ‘ऐसा लगा कि चींटी ने काट लिया हो’ से अधिक और कुछ नहीं बोले।
एसआईआर को लेकर भी एक बड़ा तबका उन अफवाह फैलाने वालों जैसा काम ही कर रहा है। कोशिश खासी गिरोहबंद किस्म की है। असंगठित गिरोह। मीडिया का एक धड़ा यूं सवाल उठा रहा है, जैसे कि देश के मतदाताओं को हिटलर के गैस चैंबर में धकेल दिया जा रहा हो। ‘प्रायोजित विचारक’ अचानक इस पेट दर्द से जूझने लगे हैं कि मतदाता सूची में संशोधन के नाम पर आम जनता को क्यों ऐसी तकलीफ (उनका बस चले तो ‘तकलीफ’ की जगह ‘यातना’ भी लिख गुजरें) क्यों दी जा रही है? सोशल मीडिया पर भी कई लोग इस प्रक्रिया का बखान कुछ यूं कर रहे हैं, गोया कि चुनाव आयोग ने नागरिकों से अपने-अपने डेथ वारंट पर हस्ताक्षर करने के लिए कह दिया हो।
विपक्षी दलों का प्रलाप खासकर राहुल और कांग्रेस का अंतर्नाद तो हास्यस्पद स्थिति में खैर चल ही रहा है। जाहिर है कि इसके पीछे उनके भी अपने निजी शुभ-लाभ का मामला निहित है। लेकिन इस सबसे हटकर किसी भी उस व्यक्ति से बात कर लीजिए, जिसने एसआईआर का फॉर्म भरा है। वो आपको बता देगा कि बमुश्किल पांच मिनट की बहुत आसान प्रक्रिया में उसका काम हो गया और उसने अपने मताधिकार की सुरक्षा का विश्वास हासिल कर लिया है। जिन्होंने यह काम ऑनलाइन किया, उन्होंने और भी अधिक सुविधा का अनुभव किया है। ऐसा भी नहीं कि इस काम में लालफीताशाही जैसे किसी कटु अनुभव से दो-चार होना पड़ रहा हो। अपना एक नवीन फोटो और साल 2003 की बेहद आसानी से उपलब्ध मतदाता सूची का अपना विवरण देने के साथ ही यह काम पूरा कर लिया जा रहा है। इसके लिए कोई कागजात नहीं मांगे जा रहे हैं, दिक्कत उन चंद लोगों को है, जिनका नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं मिल रहा है। उन्हें ही अपनी पहचान के सबूत देने हैं। जाहिर है यहीं से मतदाता सूचियों का शुद्धिकरण शुरू होता है।
चुनाव आयोग का यह एक महत्वपूर्ण दायित्व है। तो फिर इस काम को लेकर अफवाह या दुष्प्रचार करने वालों की मंशा आखिर क्या है? ऐसे लोगों के खिलाफ एक चुनौती देने से खुद को रोक पाना मुश्किल लगने लगा है। चुनौती यह कि एसआईआर के विरुद्ध विचार ‘उगल’ रहे लोग यह सबूत सार्वजनिक कर दें कि उन्होंने अपने-अपने स्तर पर इस प्रक्रिया का बहिष्कार कर दिया है और वे इस बात से तनिक भी भयभीत नहीं हैं कि उनका वोट देने का अधिकार समाप्त हो सकता है। किसी भारतीय नागरिक का मतदान का अधिकार वैसे भी खत्म नहीं होना है। यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी नए सिरे से नाम जुड़वाने की प्रक्रिया जारी रहेगी ही।
बाकी देखते हैं कि बहिष्कार की इस चुनौती को कितने लोग स्वीकार कर पाएंगे। फिलहाल तो यही दिख रहा है कि स्कूल में अफवाह उड़ाने वाले स्वर मंद होते जा रहे हैं और एसआईआर का काम पूरा कर लेने वाले लोग ‘जरा देर लगी और सब ठीक हो गया’ वाली संतुष्टि में हैं। स्कूल में वह सुई हमारी सेहत की हिफाजत के लिए जरूरी थी और ये एसआईआर लोकतंत्र की सेहत के लिए आवश्यक है। फिर भी विघ्नसंतोषियों की नस्ल का कोई क्या करे? उनकी अफवाह के गुब्बारे में सुई चुभाना बहुत जरूरी है और एसआईआर की प्रक्रिया पूरी कर रहा एक-एक मतदाता उस सुई की धार को और पैना करता जा रहा है।



