
डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
फिल्म 120 बहादुर में फरहान खान चार साल बाद बड़े परदे पर आये हैं। फरहान अख्तर का कमबैक कमाल का है। मेजर शैतान सिंह भाटी के रोल में वे एक शांत लेकिन आग उगलते सैन्य अधिकारी बने हैं।
उनकी आंखों में वो ठंडी चमक है जो बिना चीखे-चिल्लाए कमांड करती है। ‘तूफान’ के बाद यह उनका सबसे दमदार परफॉर्मेंस कहा जा सकता है। हालांकि कभी-कभी उनकी स्टाइलिश बोलचाल असली सैनिक से थोड़ी दूर ले जाती है।
यह फिल्म 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक भूली-बिसरी लेकिन गौरवपूर्ण घटना पर आधारित है – रेजांग ला की लड़ाई। यह फिल्म 13वीं कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली कंपनी के उन 120 बहादुर अहीर सैनिकों की कहानी बयान करती है, जिन्होंने लद्दाख के ऊंचे पहाड़ों में 3,000 चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया।
निर्देशक रजनीश ‘रजी’ घई ने इसे एक सादगीपूर्ण श्रद्धांजलि के रूप में पेश किया है, जो जंग के कड़वे सच को बिना अतिरंजना के दिखाती है। यह सच है कि उस वक़्त हमारे जवानों के पास जरूरत के गर्म कपड़े, आधुनिकतम हथियार और बर्फीले पहाड़ों पर रहने के लिए उचित संसाधन नहीं थे। बर्फीली वादियों की माइनस 20 डिग्री तापमान में भी वे साधारण खाने और दूध की कमी में लड़ रहे थे।
फिल्म मेजर शैतान सिंह भाटी (फरहान अख्तर) के नेतृत्व में शुरू होती है, जो दीवाली से ठीक पहले अपनी मां, पत्नी और बेटे को छोड़कर ड्यूटी पर लौटते हैं। उनकी पत्नी दीपावली के पहले ही दीपावली मनाती हैं – यह कहकर कि आप साथ हैं तो यही दीपावली है। रेडियो ऑपरेटर रामचंद्र यादव (स्पर्श वालिया) की यादों के जरिए फ्लैशबैक में कहानी आगे बढ़ती है। पहला हाफ सैनिकों की जिंदगी, उनके हौसले और संसाधनों की कमी को दिखाता है – जो थोड़ा रूटीन लगता है, जैसे ‘बॉर्डर’ या ‘केसरी’ की याद दिलाता है।
इंटरवल के बाद, जब जंग शुरू होती है, तो पटकथा कस जाती है। युद्ध के दृश्य खूनी, ठंडे और यथार्थवादी हैं – सैनिकों की ठंड से कांपती सांसें, बंदूकों की आवाजें और ‘दादा किशन की जय’ का नारा आपको रोंगटे खड़े कर देगा। यह फिल्म इतिहास को तोड़-मरोड़ने से बचती है, बल्कि सैनिकों के व्यक्तिगत बलिदान पर फोकस करती है। हालांकि, कुछ जगहों पर इमोशनल कनेक्शन कमजोर पड़ जाता है, जो फिल्म को और गहरा बना सकता था।
फिल्म में कई दृश्य यादगार हैं, जिन्हें प्रतीकों में दिखाया गया है। मेजर शैतान सिंह को ब्रिगेडियर साहब का आदेश है कि हालात को देखकर पीछे हट जाओ।
शैतान सिंह के सहयोगी पूछते हैं अब आप की बात सुनोगे या दिमाग की? वे कहते हैं कि दिल कहता है कि मैदान में डटे रहो।
…और दिमाग क्या कहता है, पूछने पर शैतान सिंह कहते हैं कि दिमाग कह रहा है कि दिल की ही बात सुनो।
यह एक सच्ची घटना की सादगीपूर्ण व्याख्या है, जो आपको गर्व से भर देगी लेकिन आंसू बहाने पर मजबूर नहीं करेगी। निर्देशक ने युद्ध की भयावहता और मार्मिकता को दिखाने में कसर नहीं छोड़ी। वास्तविक लोकेशन्स पर फिल्माए गए दृश्य युद्ध की रणनीति और आक्रमण को विश्वसनीय बनाते हैं। तेत्सुओ नागाटा की सिनेमैटोग्राफी लद्दाख की कठोर, लेकिन खूबसूरत वादियों को प्रभावशाली ढंग से कैद करती है।
बैकग्राउंड स्कोर इमोशन को गहरा करता है, लेकिन गाने कमजोर हैं । एक्शन यथार्थवादी है – कोई स्लो-मोशन या हीरोइक एंट्री नहीं, सिर्फ क्रूर युद्ध। यह जंग की भयावहता दिखाती है बिना राष्ट्रवाद के ढोंग के और अहीर समुदाय को समर्पित होने से और खास हो जाती है।
स्पर्श वालिया रेडियो ऑपरेटर के रूप में चमकते हैं, जबकि अंकित सिवाच, विवान भटेना, एजाज खान और अजिंक्या देओ जैसे सह-कलाकार सैनिकों की टीम को जीवंत बनाते हैं। राशि खन्ना का रोल छोटा है, लेकिन भावुक सीन में प्रभावी।
सैनिकों के बलिदान को समर्पित देखनीय फिल्म !



