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फिल्म समीक्षा:दलितों, अल्पसंख्यकों और कोरोना पीड़ितों का दर्द होमबाउंड

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डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी

फ़िल्में दो तरह की बनती हैं 1. वे जो रुपया कमाने के लिए बनाई जाती हैं और 2. जो पहली जैसी नहीं बनाई जाती.

होमबाउंड दूसरी तरह की है और उसमें कामयाब है. होमबाउंड अवॉर्ड्स की चमक और समीक्षकों के स्टार बटोर रही है (कांस में तालियां, ऑस्कर में एंट्री!), लेकिन इसका असली मकसद है दर्शकों को झकझोरना.

होमबाउंड दोस्ती, जातिवाद, धार्मिक उन्माद, गरीबी और सम्मान की तलाश की भावुक दास्तान है. सच्ची घटना से प्रेरित रियलिस्टिक ड्रामा! फिल्म धीमी गति से चलती है लेकिन गहरा असर छोड़ जाती है. आम दर्शकों को इसे देखते हुए डिप्रेशन हो सकता है.

उत्तर भारत के एक गांव में बचपन के दो दोस्त शोएब (ईशान खट्टर) और चंदन कुमार वाल्मीकि (विशाल जेठवा) पुलिस भर्ती परीक्षा की तैयारी करते हैं. एक युवा दलित है, दूसरा अल्पसंख्यक. चंदन को अपना सरनेम बताने में शर्म आती है. खुद को चंदन कुमार कहता है और वक्त होने पर कायस्थ भी बन जाता है! पुलिस भर्ती की तैयारी भी इन साधनहीन युवकों के लिए आसान नहीं है.

इन्हें लगता है कि अगर ये दोनों कांस्टेबल भर्ती में सफल हो जाएं तो वर्दी उन्हें इज्जत और पैसा दिलवा देगी, लेकिन हालात ये हैं कि पुलिस भर्ती परीक्षा देना ही अपने आप में युद्ध जैसा है. पद साढ़े तीन हजार और बेरोजगार आवेदक 25 लाख. परीक्षा, फिजिकल टेस्ट, रिजल्ट, कामयाबी और अंत में नियुक्ति! यह सब है दूर का ख्वाब !

इंटरवल तक समाज में इनके साथ हो रहे अन्याय की कहानी है और बाद में कोविड के दौरान हुई दर्दभरी दास्तानें हैं.

फिल्म के कुछ डायलॉग :

-लोग सरनेम पूछते हैं। बताते हैं तो लोग दूर हो जाते हैं, नहीं बताते हैं तो अपने आप से दूर हो जाते हैं.

-जात नहीं छोड़ती, भाई. तू कितना भी भाग ले, वो पीछे-पीछे आती है.

-हमारे जैसे लोग सड़क पर चलते हैं, मगर दुनिया की नजर में हम सड़क ही हैं.

-सपने तो हम दोनों ने देखे थे, पर रास्ता सिर्फ तेरा क्यों बना? तू मेरा दोस्त है, पर तेरे सपने मेरे से बड़े क्यों हैं?

-तुम्हारा क्या है? तुम तो घर की मुंडेर पर रखे गमले को देखते हुए भी फोन कर सकती हो? ( ये ‘विलासिता’ की इन्तहाँ मानी गई. मेरे पास कहाँ घर और मुंडेर पर गमले में पौधा?)

इंटरवल के बाद ‘होमबाउंड’ कोविड महामारी के दौरान सूरत में फंसे इन्हीं दो युवा कामगार दोस्तों के बहाने प्रवासी मजदूरों की दर्द भरी जिंदगी को बयां करती है.

लॉकडाउन आते ही वे घर लौटने को मजबूर हो जाते हैं. एक ऐसी त्रासदी थी जिसे भारत कभी नहीं भूल पाएगा. कोरोना ने सभी का जीवन मुहाल कर रखा था, पर गरीबों के लिए वह ज्यादा यातनादायक था. जब शहरों के दरवाज़े बंद हुए तब सबसे कमज़ोर साधनहीन लोग सड़कों पर थे, बोझा उठाये, नंगे पाँव, भूख से बेहाल ! मंज़र को फिल्म में गजब की संवेदनशीलता से दिखाया गया है जब एक दोस्त दूसरे से कहता है – “लॉकडाउन ने सबको घर भेजा, पर हमारा घर तो कहीं है ही नहीं.”

फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसके किरदार और अभिनय हैं. ईशान खट्टर और विशाल जेठवा की जोड़ी इतनी सच्ची लगती है कि लगता है वे असल जिंदगी के दोस्त हैं. विशाल का किरदार चंदन खासतौर पर दिल दहला देता है – उनकी आंखों में संघर्ष और दर्द साफ झलकता है। जाह्नवी कपूर का रोल छोटा लेकिन प्रभावशाली है। वो इतनी ग्लैमरस है कि सुधा भारती बन जाए, तब भी श्रीदेवी की बेटी ही लगती है. ईशान खट्टर के साथ वे धड़क 2 में थीं, इसका बैकड्रॉप उसी जैसा है, लेकिन कथानक अलग है.

निर्देशक ने यहां सामाजिक मुद्दों को बिना जोर-जबरदस्ती के दिखाया है। सिनेमैटोग्राफर प्रतीक शाह ने ग्रामीण भारत की कठोर सच्चाई को बखूबी कैद किया है – बारिश, कीचड़ और खाली सड़कें – सब कुछ जीवंत लगता है। चन्दन की मां के पांव की फटी बिवाइयां अलग दर्द बयां करती है. बैकग्राउंड म्यूजिक और एडिटिंग भी मजबूत है.

चेतावनी : अगर आप में सच्चाई देखने का साहस है तो ही जाएं.

देखनीय!

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