29.9 C
Bhopal

खाली थाली और राहुल गांधी का भरा हुआ गला

प्रमुख खबरे

प्रकाश भटनागर

स्वर कोकिला लता मंगेशकर अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके एक अत्यंत पढ़े-लिखे प्रशंसक ने एक बार कहा था, लता जी के गले का वैज्ञानिक परीक्षण होना चाहिए, ताकि यह जाना जा सके कि उनके स्वर में वह कौन-सा दुर्लभ तत्व है जो उन्हें इतना अनुपम, अविश्वसनीय रूप से मधुर बना देता है।

यह बात अब एक और सन्दर्भ में याद आती है—कांग्रेस नेता राहुल गांधी को देखकर। सौभाग्य से वे हमारे बीच हैं और उनके दीर्घ जीवन व उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जानी चाहिए। राहुल को देख सुन कर यह एक विचार बार-बार आता है कि राहुल जी के गले और उनके विचार-स्रोत—मस्तिष्क—के बीच का संबंध भी एक अध्ययन का विषय होना चाहिए। क्या प्रकृति ने उनमें इस दोनों के बीच कोई ऐसी खाई बना दी है, जो भरने का नाम नहीं लेती?

लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का सम्मान होना चाहिए। इसलिए यह आग्रह सम्मान सहित ही है कि जो परीक्षण लता जी के गले का नहीं हो सका, वह राहुल गांधी के मामले में अवश्य किया जाना चाहिए। इससे यह तो स्पष्ट होगा कि कोई व्यक्ति कैसे बोलना चाहिए और कुछ तो भी बोलना है—इन दोनों के अंतर को जीवन के पचपन बसंत पार कर लेने के बाद भी आखिर कैसे नहीं समझ पाता।

कल्पना कीजिए—एक ठेठ शाकाहारी व्यक्ति से उसका पड़ोसी थाली मांगता है, और उसमें चुपचाप मांस परोसकर खा जाता है। जब थाली के असली स्वामी को यह पता चलता है, तो वह गुस्से से आगबबूला होकर कहता है—तूने मेरी थाली में मांस खाया है, अब मैं तेरी थाली में………आगे का अंदाज आप खुद लगा लीजिए।

राजनीति में भी कुछ ऐसा ही दृश्य दिखाई दे रहा है। गरीबों की रसोई में, सत्ता की मेज पर, और मीडिया की थाली में राहुल गांधी न जाने कितने वर्षों से प्रतीक्षारत बैठे हैं—खाली थाली लिए हुए। प्रधानमंत्री पद की रोटी तो दूर, कांग्रेस को कोई सम्मानजनक परोस तक नसीब नहीं हो रहा। दूसरी ओर, विरोधी खेमे ने लगातार तीसरी बार पूर्ण भोजन कर लिया है। ऐसे में राहुल गांधी की भाषा और व्यवहार में तीखापन और बौखलाहट शायद समझ में आती है—लेकिन स्वीकार नहीं की जा सकती।

आज स्थिति यह हो गई है कि भारत के चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान को भी, गांधीजी के बयानों पर प्रतिक्रिया देते हुए, ऊल-जलूल जैसे शब्द प्रयोग करने पड़ते हैं। न्यायालय ने भी राहुल को कई अवसरों पर फटकार योग्य ही माना है। सुप्रीम कोर्ट की ताजा फटकार भी इसी का नतीजा है। सोशल मीडिया पर उनकी स्थिति किसी राजनीतिक नायक की नहीं, बल्कि किसी हास्य पात्र की अधिक प्रतीत होती है। जहां अन्य नेताओं के वक्तव्यों को तर्क और सम्मान मिलता है, वहीं राहुल के बयानों पर हंसी और व्यंग्य की इमोजी ही उमड़ती हैं।

इस पर तुर्रा यह कि प्रियंका गांधी वाड्रा कहती हैं—मेरे भाई सेना का सम्मान करते हैं। यदि ‘हमारे सैनिक पिट रहे हैं’ जैसे वक्तव्यों को सम्मान की भाषा माना जाए, तो अपमान क्या होता है? फिर तो देश की राजनीति में गरिमा की परिभाषा ही बदल देनी चाहिए।

राहुल कभी कहा करते थे कि ‘अगर मैं संसद में बोलूं तो भूकंप आ जाएगा।’ वर्षों बीत गए—यमुना में न जाने कितने अरब गैलन पानी बह चुका, लेकिन वह भूकंप आज तक नहीं आया। हां, 2014 से 2024 तक कांग्रेस जरूर ऐसी हिली हुई है उसकी जमीन ही धसक गई लगती है। अब वे चुनाव आयोग को लेकर ‘जग्गा जासूस’ की तरह दावे कर रहे हैं कि उनके पास आयोग को लेकर एक ‘एटम बम’ है। ये दावे कुछ वैसे ही लगते हैं जैसे 80 के दशक में रेलवे स्टेशनों की बुकस्टॉल पर ‘मेरा नाम तबाही’ जैसे उपन्यास बिकते थे। क्या अब ऐसे ही उपन्यास हर उस एयरपोर्ट पर रखे जाते हैं, जहां से राहुल गांधी विदेश दौरे पर रवाना होते हैं?

लिखने की शुरूआत राहुल गांधी के गले की चर्चा से हुई थी। अंत में यह विनम्र सुझाव भी है कि कांग्रेस के उन सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं के ‘हृदय’ का भी परीक्षण होना चाहिए, जो आज भी राहुल गांधी के हर कथन को सिद्ध करने के लिए जी-जान से जुटे रहते हैं। यह चाहे विचारधारा की समानता हो, या रोजगार की विवशता—लेकिन इतना तो तय है कि ऐसे लोग, ऐसे समय में, ऐसे नेता के पीछे जो संघर्ष कर रहे हैं, उनका हौसला वास्तव में 56 इंच के सीने से कहीं ज्यादा बड़ा है।
और राहुल गांधी?
वो तो ‘बहुत बड़े वाले’ हैं ही!

- Advertisement -spot_img

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -spot_img

ताज़ा खबरे