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आजादी की लडाई के मैदान से राहुल के घुड़साल तक कांग्रेस

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प्रकाश भटनागर।

राहुल गांधी की सियासी अकल दाढ़ सचमुच कुछ और बड़े आकार की हो गई है। मामला ‘बेहद धीमी गति के समाचार और वो भी किस्तों में’ वाला है। दो दशक से अधिक के अपने राजनीतिक अनुभव के बाद राहुल अब तक केवल एक सच को समझ सके हैं। अपनी पार्टी यानी कांग्रेस का सच। इसलिए जब भोपाल में गांधी घोड़े की विविध किस्मों का उल्लेख करते हैं तो लगता है कि कम से कम इस सच को समझने की उनकी सामर्थ्य और साहस, दोनों विकसित हो रहे हैं। अब राहुल को पार्टी के घोड़ों की केटेगरी तय करना है। रेस का कौन है, बारात का कौन और लगंड़ा घोड़ा कौन है? लंगड़े घोड़ों को वे रिटायर करना चाहते हैं। अब राहुल ने अपने लिए कौन सी कैटेगरी तय की होगी, ये पाठक मायबाप खुदई तय कर लें तो बेहतर है।

‘बाराती किस्म’ के घोड़ों से उन्हें नागवारी है। उन्हें असली घोड़े छांटने हैं, जिन पर एड़ लगाकर उन्हें राज्यों से लेकर केंद्र तक अश्वमेध की तरह दौड़ाया जा सके। राहुल को दौड़ते-दौड़ते दो दशक से ज्यादा हो गए। उनकी दौड़ को देख कर क्या लगता है आपको। या तो अस्तबल का मालिक मान लीजिए, नहीं तो तय कीजिए उनकी कैटेगरी। अलबत्ता, इस बात का खुलासा शायद खुद गांधी ही अपने किसी अगले भाषण में कर देंगे कि उन्हें पार्टी के लिए कितने हॉर्स पावर की जरूरत महसूस हो रही है?और क्या ऐसे मुफीद घोड़ों में शशि थरूर या सलमान खुर्शीद , पी चिदम्बरम भी गिने जाएंगे, जो फिलहाल रिंग मास्टर के कोड़े से बेखौफ नजर आने लगे हैं?

यहां दिवंगत शरद जोशी जी का व्यंग्य ‘अंधों का हाथी’ बेहद सरल रूप से याद आ रहा है। वही रचना, जिसके केंद्र में आंख पर पट्टी बांधे लोग हाथी को छूकर उसके बारे में अपनी-अपनी हास्यास्पद राय दे रहे हैं। तो क्या ये कांग्रेस में ‘मुंदी आंख वालों का घोड़ों  जैसा समय है?  घोड़े और खच्चर की पहचान में आंख खोलकर आंख खोलने वाला सच कैसे बोला जाएगा? खुद राहुल सियासी शतरंज में घोड़े की तरह ढाई घर चल-चलकर पसीना-पसीना हो गए, लेकिन साल 2014 से लेकर अब तक केंद्र सरकार के खिलाफ उनकी हर चाल मात में ही बदलती चली गई है। राहुल की पार्टी के वजीर तो खैर कोई नजीर पेश कर ही नहीं पा रहे, बाकी बादशाह वाली जमात में बैठे अन्य दिग्गज मोहरे भी प्यादा बनकर ही रह गए हैं। इस सबके चलते हुआ यह है कि कांग्रेस देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सरपट दौड़ती-दौड़ती आज खुद ही अस्तबल में आकर खड़ी हो गई है।

जो अच्छे रेस के घोड़े हो सकते थे, या हैं, वो परिवार के तांगे में जोत दिए गए हैं। बारात वाले घोड़ों के पास अधिकतर यही काम बचा है कि वो भाजपा-विरोधी किसी भी पार्टी की सफलता के जश्न में खुद ही ‘दूल्हे’ के लिए अपनी पीठ हाजिर कर देते हैं। लंगड़े घोड़े लंगड़ी खेलते हुए अपनों को ही टंगड़ी मारकर गिराने में मसरूफ हैं। राहुल के घोषित और अघोषित नेतृत्व में कांग्रेस की दशा देखकर कई बार तरस आने लगता है। बिहार में लालू प्रसाद यादव, उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में स्टालिन और महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे जो चेहरे कभी कांग्रेस की बारात में नाचते थे, आज कांग्रेस उन्हीं चेहरों के सियासी रुसूख वाले घोड़े के आगे सहबाला बनकर बैठने को विवश हो गई है। ये सब किसने किया? वो कौन है, जिसने घोड़े की तरह घास चरने गई अपनी अक्ल को भी महानतम समझदारी की शक्ल देकर पार्टी पर थोप दिया? कौन है, जिसने कांग्रेस के घोड़े की कसी हुई जीन हटाकर उसकी जगह अपनी नादानी की लगातार फिसलती चादर रख दी?

सच तो यह है कि इस घोड़े की रफ़्तार फिर से सुनिश्चित करने के लिए उसे उन हाथों से नाल लगाई जाना होगी, जो तजुर्बे में पगे हुए हों, परिवार की बजाय सच्चे हृदय से कांग्रेस के लिए रमे हों। बाकी तो ऐसा न होने तक लाख घोड़े की बात कहकर कोड़े का डर दिखा दिया जाए, कुछ भी होना-जाना नहीं है। असली दम तब है, जब बीमारी को पहचाने जाने के बाद उसका ईमानदार उपचार भी किया जाए। सच तो राजीव गांधी को भी पता चला था। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा था कि दिल्ली से किसी योजना के लिए चला एक रुपया अपने ठिकाने तक पहुंचते-पहुंचते महज दस पैसा बनकर रह जाता है। यह अपने आप में सौ फीसदी सही था। लेकिन राजीव भी इतना कहकर ही रह गए। बाद में तो बोफोर्स, क्वात्रोची, फेयर फैक्स जैसे वो शोर गूंजे, जिनमें राजीव का वह सच नक्कारखाने में तूती की आवाज जितनी हैसियत भी नहीं रख सका था।

मध्यप्रदेश में राहुल गांधी की नजर में लंगड़ा घोड़ा कौन है?  वो जो खुद विधानसभा का चुनाव तक नहीं जीत सके और जिनके अद्भुत नेतृत्व में पार्टी राज्य की सभी 29 लोकसभा सीटों पर हार गई? या फिर वो, जो इस प्रदेश में पार्टी को सत्ता में लाने की अपनी मेहनत का अब भी सूद समेत मूल वसूलने में जुटे हुए हैं?  कौन है इस प्रदेश में राहुल गांधी की रेस का घोड़ा?  क्या वो, जिनके पांव में गुटबाजी की रस्सी बांधकर उन्हें घर बैठने पर मजबूर कर दिया गया है? या फिर वो, जो पार्टी के लिए अपनी सच्ची सामर्थ्य और समर्पण का इस्तेमाल केवल और केवल अपने-अपने नेताओं के लिए नारेबाजी करने तक ही कर पा रहे हैं? जो कांग्रेस के इस सफर में अपने आगे चल रहे रसूखदार घोड़ों के पीछे लगी वह तख्ती पढ़कर मन मसोसकर रह जा रहे हैं कि ‘जगह मिलने पर साइड दी जाएगी?’

सच तो यह है कि असली घोड़े और खच्चर के बीच के अंतर का निदान करने के लिए कांग्रेस में शीर्ष स्तर से सख्त बदलाव के बगैर और कोई विकल्प नहीं है। वैसे ही, जैसे इंदिरा जी ने कहा था, ‘कड़ी मेहनत के सिवाय और कोई चारा नहीं है।’ लेकिन जब राहुल गांधी की सारी कोशिशों का सार ‘मुझे इकलौता विकल्प मानने के अलावा और कोई चारा नहीं है’ वाली सोच तक सिमट कर रह जाए तो फिर रेस वाले घोड़े भी अस्तबल में ऊंघने से अधिक और क्या कर सकते हैं? स्वस्थ घोड़ा खड़े-खड़े ही सोता है। कांग्रेस तो बीमार भी है। खड़ी हुए नजर आती है, लेकिन वो सो रही है और इन्तजार कर रही है कि कब राहुल की अक्ल दाढ़ पूरी तरह काम करना शुरू करती है ।

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