गुजरात में शुरू किया गया कांग्रेस का ‘संगठन सृजन अभियान’ अब मध्यप्रदेश में भी पूरी गंभीरता से लागू किया जा रहा है. AICC ने 50 ऑब्जर्वरों की नियुक्ति कर दी है जो राज्यभर में ज़मीनी कार्यकर्ताओं से मिलकर जिला और शहर अध्यक्षों के चयन की प्रक्रिया को दिशा देंगे. यह कदम पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को न केवल रीस्टार्ट करने की कोशिश है, बल्कि युवाओं और नए चेहरों को आगे लाने की रणनीति भी दिखती है.
मध्यप्रदेश कांग्रेस बीते एक दशक से सत्ता की राजनीति से दूर है. कमलनाथ की अल्पकालिक सरकार भी 2020 में गिर गई, और तब से पार्टी आंतरिक गुटबाज़ी, पुराने चेहरों और ज़मीनी पकड़ की कमी से जूझ रही है. ऐसे में संगठन को धारदार बनाना कांग्रेस के लिए अस्तित्व का सवाल बन गया है. AICC की इस कवायद को देखें तो यह महज नामों की अदला-बदली नहीं, बल्कि ज़मीन से जुड़ी नई
इस अभियान के तहत हर जिले में एक AICC ऑब्जर्वर और तीन PCC प्रतिनिधि मिलकर काम करेंगे. वे स्थानीय विधायक, ब्लॉक अध्यक्ष और कार्यकर्ताओं से मुलाकात कर रिपोर्ट बनाएंगे, जिससे यह तय होगा कि कौन अगला जिलाध्यक्ष होगा. यह प्रक्रिया पारदर्शिता की ओर कदम हो सकती है — लेकिन इससे एक सवाल भी उठता है: क्या ये ऑब्जर्वर स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्णय ले पाएंगे, या उन पर वरिष्ठ नेताओं का दबाव रहेगा?
पार्टी ने इशारा दिया है कि युवा और ज़मीनी नेताओं को प्राथमिकता दी जाएगी. लेकिन कांग्रेस की आंतरिक संरचना को देखें तो कई बार ऐसे वादे सिर्फ ‘ऑप्टिक्स’ साबित होते हैं. यदि यह अभियान वास्तव में युवाओं को स्थान देता है, तो यह न केवल कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाएगा बल्कि पार्टी की साख में भी सकारात्मक बदलाव ला सकता है.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर कांग्रेस इस प्रक्रिया को सिर्फ दिखावटी बदलाव के बजाय ठोस नेतृत्व परिवर्तन और कार्यकर्ताओं को सम्मान देने की दिशा में ले जाती है, तो यह पार्टी की किस्मत बदल सकता है. संगठनात्मक मज़बूती का सीधा असर चुनावी नतीजों पर होता है, और जिन जिलों में कांग्रेस लगातार हारती रही है, वहां यह ‘रीबूट’ पार्टी को नए सिरे से स्थापित कर सकता है.