भारत के सांस्कृतिक पुनरोद्धार का अद्भूत ज्वार है यह

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तो प्रभु राम आ गए। भावनाओं के एक अद्भूत देश व्यापी ज्वार के बीच प्रभु श्री राम का अयोध्या में आगमन हो गया। त्रेता में केवल अयोध्या धन्य हुई थी। कलयुग में पूरा देश। एक नई उर्जा के साथ एक नए भारत का उदय हुआ है। यह विशुद्ध दक्षिण पंथी सोच हो सकती है। लेकिन राम में समग्रता है। वो किसी भी पंथ और विचारधारा से आगे हैं। राम शबरी के भी है और निषादराज के भी। राम वनवासियों के भी हैं और अहिल्या के भी। राम सर्वव्यापी हैं। इसलिए राम और राम के आदर्श और मर्यादाएं सब से ऊपर हैं।

राम भक्ति में डूबे देश को देख कर वो तमाम सियासी दल अपने उस खांटी सियासी दिल पर आज शायद सिर धुन रहे होंगे, जिन्होंने वैचारिक घुन के असर में आकर यह ऐलान और उस पर अमल कर दिया कि वे अयोध्या में सोमवार को प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने भी यह देख और समझ ही लिया होगा कि किस तरह देश राममय हो चुका है और अयोध्या के कार्यक्रम को लेकर लोगों के बीच वह स्वत: स्फूर्त उत्साह है, जो विरले ही दिखाई देता है। किसी समय भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर वहां के रहवासियों ने उनके सम्मान में दीपावली मनाई थी। आज अपने आराध्य के लिए असंख्य लोगों के बीच एक- दो नहीं, बल्कि अनगिनत दीपावली जैसा जो जोश दिख रहा है, वह सचमुच इस कालजयी अवसर का विरोध करने वालों के लिए अपने निर्णय पर फिर से सोचने (वह भी शर्म के साथ) का कारण बन चुका है। सारा माहौल भगवामय है। हालत यह कि भगवा ध्वज और श्रीराम की तस्वीरों वाले तमाम सामान बाजार में ढूंढे भी नहीं मिल रहे हैं। ऐसी सामग्री की आपूर्ति से कई गुना अधिक मांग के चलते यह स्थिति बनी है। हर ओर श्रद्धा का वह महासागर दिख रहा है, जिसमें भगवान राम की स्थापना से जुडी श्रद्धा की अनगिनत पवित्र लहरें साफ देखी जा सकती हैं।

इस भावना में गर्जन है, लेकिन बहुत सकारात्मक रूप का। हां, इसका स्वरूप उनके लिए निश्चित ही नकारात्मक है, जो यह पा रहे होंगे कि इन आवाजों में उनकी असहमति का कोई अस्तित्व ही कहीं बाकी नहीं है। यह प्रभु के लिए दिल से श्रद्धा का मामला है, जिसमें किसी विपरीत दलील की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। जो शंकराचार्य मंदिर के निर्माण से लेकर आयोजन के मुहूर्त को लेकर मुंह फुलाए बैठे हैं, उनका मुंह भी निश्चित ही यह देखकर खुला का खुला रह गया होगा कि किस तरह आम जनता ने उन्हें अनसुना कर दिया है। यह जता दिया है कि आस्था के आगे और कुछ नहीं है। फिर यह आस्था भी अंधी नहीं कही जा सकती। यदि करीब साढ़े पांच सौ साल की प्रतीक्षा के बाद बहु-प्रतीक्षित पल आया हो तो फिर उससे जुडी प्रसन्नता के आगे मुट्ठी भर अप्रसन्न स्वरों की भला क्या बिसात रह जाती है? ऐसा ही यहां भी हो गया है।

इस आयोजन का विरोध करने वाले अनेक राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। लेकिन कांग्रेस का इस मसले पर जो रुख रहा, वह समझ से परे है। निमंत्रण मिलने के बाद इस पार्टी ने साफ कहा कि उसके दिग्गज नेता आयोजन में शामिल नहीं होंगे, बाकी जो जाना चाहे वो जा सकता है। पार्टी यहीं गच्चा खा गयी। इससे एक साथ सारे देश में संदेश चला गया कि सॉफ्ट हिंदुत्व का नाटक करने वाले इस दल के दिल में आज भी तुष्टिकरण की धड़कन गुंजायमान है। इस पार्टी के वरिष्ठ नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम जब अपने नेताओं को सलाह देते हैं कि वे भाजपा का विरोध करें, राम का नहीं, तब भीतर निहित संदेश को समझा जाना चाहिए। आचार्य प्रमोद ने तो राममंदिर निर्माण का सीधा श्रेय भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दे दिया है। इस कांग्रेस नेता ने कहा है कि यदि मोदी नहीं होते तो शायद आज राम मंदिर नहीं बन रहा होता। लेकिन के आलाकमान के पास शायद इसके लिए फुर्सत नहीं। वे मंदिर के फेर में भाजपा और आरएसएस के विरोध की जल्दबाजी में चूक कर गए। इस पार्टी को कम से कम समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव से ही सीख लाना चाहिए थी, जिन्होंने आयोजन में भारी भीड़ का हवाला देकर कहा कि वह किसी अन्य समय पर रामलला के दर्शन के लिए जाएंगे। मगर कांग्रेस ने खुद के लिए ऐसा कोई बीच का रास्ता ही नहीं छोड़ा और अब यह देखना होगा कि इस पार्टी के लिए आगे कौन सा रास्ता बचता है।

भावनाओं के इस अद्भुत ज्वार से उन लोगों को ज्वर आना तय है, जो कुछ समय पहले तक इस अहंकार में डूबे थे कि उनके विरोध का इस आयोजन की गरिमा और उससे जुड़े उल्लास पर विपरीत असर होना तय है। इन सभी को राममय माहौल से जो जवाब मिला है, उसके बाद भी यदि उनके पास इस कार्यक्रम के विरोध में कुछ सवाल मौजूद हैं तो फिर यही कहा जा सकता है कि ‘जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहले हर लेही।’