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गूंगे सिस्टम को हरी मिर्ची खिलाने की औपचारिकता मात्र मत कीजिए

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यह बिलकुल वैसा ही मामला है, जो काफी पहले फंतासी किताब में पढ़ा था। किसी स्त्री की बोलने की शक्ति अचानक जाती रही। तब सबसे विश्वसनीय व्यक्ति की मदद ली गई। उसने कहा कि महिला को एक किलो हरी मिर्ची खिलाई जाए। पीड़िता आधी से कम मिर्ची खाकर दर्द के मारे होश खो बैठी। यह देखकर जब विश्वसनीय व्यक्ति से इसकी वजह पूछी गई तो उसने मासूम तरीके से किंतु मूर्खतापूर्ण जवाब दिया, ‘ यदि तोता हरी मिर्च खाकर अच्छा बोलना सीख सकता है तो फिर इंसान भी तो ऐसा कर ही लेगा।’ हालांकि आज की चर्चा का विषय फंतासी वाला नहीं है। लेकिन बात मिलती-जुलती है। दिखाया यह जा रहा है कि मामला लोकतंत्र के स्वर को शांत होने से रोकने का है, लेकिन इस दिशा में तरीका वही हरी मिर्ची खिलाकर अधकचरे उपाय की बदौलत खुद की पीठ थपथपाने से अधिक और कुछ नहीं है।

चुनावी बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय निश्चित ही सराहनीय और शिरोधार्य है। लेकिन इस विषय पर जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है, वह वस्तुतः हमारी समूची चुनावी प्रक्रिया के ईमानदार अवलोकन के अधूरेपन को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है। बात किसी राजनीतिक दल विशेष को निशाने पर लेने की नहीं है, लेकिन उदाहरण तो यह बहुत प्रासंगिक है। दो हजार के दशक की बात है। मध्यप्रदेश के जबलपुर में प्रलयंकारी भूकंप आया। तब राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। तब सत्तारूढ़ दल के संगठन ने भोपाल में एक पत्रकार वार्ता की। उसमें कहा गया कि जबलपुर के आपदा पीड़ितों की मदद के लिए राज्य सरकार के सभी मंत्री अपना एक-एक महीने का वेतन दान करेंगे। तब एक पत्रकार ने पूछ लिया, ‘केवल वेतन या आय?’ पत्रकार वार्ता लेने वालों के पास निर्लज्ज किस्म का ठहाका लगाने के अलावा इस सवाल का और कोई उत्तर नहीं था और यहीं से इस सारे मामले की पड़ताल का पहला सिरा पकड़ा जा सकता है।

चुनावी बॉन्ड को लेकर चाहे जो भी कहा गया है, लेकिन यह सत्य है कि इस व्यवस्था ने यह सुनिश्चित किया कि राजनीतिक दलों को दिया गया चंदा किसी व्यक्ति विशेष की बजाय सीधे संबंधित पार्टी के खाते में जाए। इस बॉन्ड से पहले वाली व्यवस्था पर ज़रा गौर कीजिए। केवल मध्यप्रदेश के एक उदाहरण से ही बात समझी जा सकती है। इधर, वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह का दस साल का शासनकाल ख़त्म हुआ और उधर प्रदेश कांग्रेस मानो दाने-दाने की मोहताज हो गयी। हालत यह हुई कि पार्टी संगठन के उन तमाम कर्मचारियों को एक झटके में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, जो बीते लंबे समय से इस दल के लिए दिल से काम कर रहे थे। यह उस समय हुआ, जब इस पार्टी की राज्य इकाई पर पुख्ता तरीके से उन लोगों का नियंत्रण था, जो राघोगढ़ के राजा होने से लेकर छिंदवाड़ा के अरबपति रसूखदार, अगरबत्ती कंपनी सहित तमाम उत्पाद और होटल के स्वामी तथा अन्य नाना प्रकार से आर्थिक रूप से हृष्ट-पुष्ट थे। लेकिन ये आर्थिक सेहतमंदी इनके अपने-अपने घर तक सीमित होकर रह गयी और पार्टी इस दिशा में फिर बीमारी का ही अभिशाप झेलती रही।

यह उस पार्टी का मामला है, जो केंद्र में भी पचास साल से अधिक तक काबिज रही, लेकिन जैसे ही सत्ता उसके हाथ से गई, वैसे ही वह तंगहाल हो गई। याद कीजिए। बमुश्किल तीन दिन पहले इसी पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि उनका दल आर्थिक रूप से इस कदर कमजोर हो चुका है कि उसके पास रोजमर्रा के खर्च के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं। लेकिन ये इस दल की स्थिति है, इसके नेताओं या कर्ताधर्ताओं की नहीं।यदि देश के महज अंगुली पर गिनने लायक भर राज्यों में सिमटी कांग्रेस को इस हालत के बाद भी उल्लेखनीय रूप से बॉन्ड का लाभ भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर मिल रहा है तो फिर यह सहज रूप से समझा जा सकता है कि इसमें ‘स्वेच्छा से देना’और ‘अपने तरीके से लेना’ के बीच कितना नाममात्र का अंतर रहा होगा।

तो अब चुनावी बॉन्ड पर आएं। निचित ही एक अकेले दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी को इसका सर्वाधिक लाभ मिला, लेकिन शेष भाजपा-विरोधी दलों के अलग-अलग हिसाब जोड़ लीजिए। उन्होंने इस बॉन्ड के रूप में भाजपा से ज्यादा प्राप्त किया। इनमें वह दल भी शामिल हैं, जो आकार से लेकर जानाधार की दृष्टि से अपने राज्य या समुदाय से अलग भी कोई औकात नहीं रखते है। तो यदि ऐसी पार्टियों को भी अपनी-अपनी हैसियत से कहीं बढ़कर मिलता दिखे तो यह सहज रूप से समझा जा सकता है कि जिस पार्टी को जहां मौक़ा मिला, उसने वहां मौके का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर कांग्रेस तो इस मामले में लंबे समय तक ‘सदा सुहागन’ वाली स्थिति में रही है। वरना यह कैसे मुमकिन था कि उस पार्टी ने स्वतंत्रता के बाद के अधिकतम समय तक देश सहित यहां के तमाम राज्यों पर राज किया, जहां सत्ता के गलियारों से बाहर होते ही वह आर्थिक रूप से तंगहाली वाले कोने में चली गई। निश्चित है वर्तमान में भाजपा के सत्ता में रहने के चलते उसे बॉन्ड के मामले में सर्वाधिक लाभ हुआ है, लेकिन याद कीजिए। क्या इससे पहले किसी भी समय या जगह पर आपको भाजपा की यह हालत दिखी कि सरकार न होने पर वह पैसे के मामले में लाचार वाली स्थिति में आ जाए? इसकी केवल एक वजह है। भाजपा ने इस व्यवस्था को अनुशासन की तरह लागू किया है कि जो सक्षम लोग उसके साथ हैं, वह तन और मन सहित धन से भी पार्टी के लिए काम करें। और इसमें से एक-एक पाई के लिए कभी भी सुना/कहा नहीं गया कि वह पार्टी की बजाय किसी व्यक्ति विशेष की जेब में गया हो। यही भाजपा और शेष दलों के बीच का वह बड़ा अंतर है, जो चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था से परे भी एक दल को आज इतना सक्षम बना चुका है।

तो आगे बात यही है कि ऐसे सारे सच के बीच राजनीतिक शुचिता के मामले में जड’ तरीके से ही कुछ किया जाए या फिर ऐसा कुछ हो कि मामला समस्या के ‘जड़’ से निदान वाला हो। इसीलिए यह जरूरी है कि गूंगे सिस्टम को बोलने का इलाज देने की बजाय उसे केवल हरी मिर्च खिलाकर ही काम न चला लिया जाए।
(जारी)

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