कुछ समय पहले की बात है। एक मित्र ने एक ताजा किस्सा सुनाया। बोला ‘मैं आ रहा था। सड़क पर दो सांड लड़ रहे थे। अचानक एक बिदका और उसने दौड़ लगा दी। एक बच्ची को रौंदता हुआ वह वहां से भाग निकला।’ यह वाकया सुनने के बाद साथ में मौजूद बाकी मित्र बच्ची की स्थिति के बारे में पूछने लगे। लेकिन इनमें से एक साहब कुछ अलग ही चिंतन में थे। उन्होंने बाकी सारी आवाजों को सप्रयास खामोश करते हुए पूछा, ‘ये तो बताइये कि फिर उस दूसरे सांड का क्या हुआ?’
आज अपनी मन:स्थिति भी उन साहब जैसी ही हो रही है। सब अपनी जगह बड़ा घटनाक्रम का हिस्सा है। गिरीश गौतम विधानसभा के नए अध्यक्ष होंगे। आखिरकार विंध्य अंचल को शिवराज सरकार में यथोचित सम्मान मिलने का रास्ता साफ हो गया है। लेकिन अपना दिमाग यही पूछ रहा है कि उस दूसरे सांड का क्या हुआ? बल्कि एक कदम आगे बढ़कर ये सवाल भी कि उस सांड का अब क्या होगा? बेशक, मैं नारायण त्रिपाठी के लिए चिंता और चिंतन के भवसागर में डूबता-तिरता जा रहा हूं। हालांकि इतनी राजनीतिक ताकत उनमें है नहीं कि इतनी माथापच्ची करूं। पर आज अगर लिखने का विषय यही है तो ऐसा भी सही। सियासत के मैदान में त्रिपाठी लंबे समय से यहां से वहां सींग गपा रहे थे। विंध्य की उपेक्षा वाली फसल को अपने मतलब का ग्रास बनाने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी थी।
पृथक विंध्य की मांग उठायी। इसके लिए डांट खाई, लेकिन मैदान में डटे रहे। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अलग राज्य की मांग के लिए खत लिख दिया। त्रिपाठी की कोशिश थी कि विंध्य की उपेक्षा के मामले को भुनाकर शिवराज मंत्रिमंडल में अपने लिए सीट रिजर्व कर लें। पर ऐसा कोई भाव भाजपा ने त्रिपाठी को पहले दिया और अब तो देने का सवाल भी नहीं है। अब विधानसभा अध्यक्ष का पद विंध्य की झोली में डालकर शिवराज ने कम से कम त्रिपाठी की राजनीतिक झोली में तो नाउम्मीदी की राख ही डाल दी है। भाजपा अगर अध्यक्ष का पद विंध्य के किसी नेता को नहीं भी देती तो भी ऐसा कुछ नहीं होता जैसा त्रिपाठी या कांग्रेस के दिमाग में घूम रहा था।
अब जब भी मंत्रिमंडल विस्तार का समय आएगा तो विंध्य से ही राजेंद्र शुक्ल का नाम होगा। त्रिपाठी की उम्मीदों का वैसे ही कोई मतलब नहीं। पहले ही गौतम के जरिये ब्राह्मण के तौर पर तगड़ा नाम रख दिया जा चुका है। इधर गौतम ने नामांकन भरने के ठीक पहले नारायण को एक करारा झटका दे दिया। कहा कि बीजेपी में कोई भी पृथक विंध्य की मांग नहीं उठा रहा। त्रिपाठी मैहर से विधायक हैं। ये इलाका सीमेंट उद्योग के लिए मशहूर है। सीमेंट की खासियत है कि इस्तेमाल के बाद यदि उसे पानी का समुचित साथ मिल जाए तो वह मजबूत होकर चिपक जाती है। लेकिन त्रिपाठी के साथ ऐसा नहीं रहा। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का बांध लगातार ठांठें मारता रहा। कभी समाजवादी पार्टी तो कभी कांग्रेस और फिर बीजेपी तक उसकी लहरें जाती रहीं। बीच में तो वे कमलनाथ रूपी सागर में किसी नदी की तरह समा जाने को आकुल हो उठे थे। तो इस तरह त्रिपाठी कच्ची सीमेंट पर कभी इस तो कभी उस राजनीतिक आशियाने का पता लिखते हुए खुद का सियासी भविष्य खुरदुरा कर बैठे। अब उनका क्या होगा, यह शिवराज ही जानें। शायद वे अगला चुनाव मैहर से ही एक बार फिर कांग्रेस के टिकट से लड़ लें। उसे भी क्या परहेज होगा। उसके पास तो वैसे ही वहां से लड़ने लायक कोई और उम्मीदवार होगा नहीं। हां, अजय सिंह की 2023 तक कांग्रेस में क्या और कैसी भूमिका रहती है, उस पर भी नारायण त्रिपाठी का कांग्रेस में भविष्य तय होगा। फिलहाल तो टमस नदी और बाणसागर बांध का पानी त्रिपाठी की उम्मीदों की सीमेंट को सींचने से परहेज बरत रहा है। यकीनन छुट्टा और नाराज सांड फसल खराब कर सकता है, लेकिन उसे रोकने के लिए पर्याप्त डंडे और क्षमतावान बंदे मौजूद हों तो बेचारा सांड भी क्या कर लेगा? फिर इस सांड की क्षमताएं अब तक बस मैहर में साबित हुई हैं। बाकी तो बस वो सब जगह बेअसर ही रहा है।