एक मंद अक्ल की साधना

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‘मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना” गोस्वामी तुलसीदास जी यह सीख सुंदरकांड में दे गए हैं। खैर मति और दुर्मति तो अपने-अपने हिसाब से लोग तय करते हैं । तो तुलसीदास जी को याद करने का ताजा कारण यह है कि कांग्रेस और उसके वरिष्ठ नेता राहुल गांधी इस लोकसभा चुनाव में मतदाता से आसमान से चांद तारे तोड़ कर लाने के वादे कर रहे हैं। कांग्रेस और राहुल की जो अति- सक्रिय दिख रही हैं, उसका अंदाज मति मारे जाने जैसा है।

इतने बड़े-बड़े वायदे, ऐसी अकल्पनीय कसमें। जिन्हें यदि यथार्थ के तराजू पर रख लें तो शायद वह तराजू ही ऐसे बे मतलब वजन से दम तोड़ दें। घोषणाएं ऐसी कि यदि आम इंसान की मति कुछ दशमलव प्रतिशत में भी राहुल से मिल जाए, तो वह ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ की तर्ज पर उन बातों से प्रभावित होकर ईवीएम पर पंजे का बटन दबा दे। खैर, यह मतदाता का अपना विवेक है। लेकिन राहुल जिस तरह विवेक शून्य अंदाज में लच्छेदार बातें परोस रहे है, क्या उन पर विश्वास किया जा सकता है?

बात चाहे संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुपालन से लेकर 30 लाख सरकारी खाली पदों को भरे जाने की हो या फिर आदिवासी गांवों से प्रशासन को माइनस करने की। यह कभी कांग्र्रेस तो नहीं कर पाई लेकिन शिवराज सिंह चौहान के चौथे कार्यकाल में मध्यप्रदेश देश का ऐसा पहला ऐसा राज्य जरूर बन गया जहां पेसा एक्ट लागू किया गया। इसका क्रियान्वयन कैसा हुआ, इसे छोड़ भी दें तो पचास साल की सत्ता में कांग्रेस तो कभी यह कर नहीं सकी।

लच्छेदार पराठा कई परतें समेटे हुए रहता है। उसी का स्वाद गांधी की बातों में महसूस होता है। स्टार्टअप के लिए अलग से पांच हजार करोड़ रुपए रखे जाएंगे! उस पर तुर्रा यह कि ऐसी तमाम घोषणाएं केंद्र की मौजूदा सरकार के लिए ‘भला उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे!’ वाले हिसाब से की जा रही हैं। एक चुटकुला याद आता है। खाड़ी के किसी देश के मेहमान हो कर अपने घर आए एक सज्जन ने दोस्तों से कहा, ‘वहां हमारे भोजन के लिए पूरे दस ऊंट कटवाए गए।’ सुनने वाले बोले फिर, आपने क्या किया? सज्जन का जवाब था, ‘जब खाड़ी वाले हमारे मेहमान बने तो हमने उनकी शान में एक- दो नहीं, बल्कि पूरे दस मुर्गे कटवा दिए।’

यही राहुल गांधी की हालत हो गई दिखती है। क्योंकि मोदी का विरोध करना है, इसलिए दस ऊंट के मुकाबले दस मुर्गों जैसे बात करना है। वह भी यह शायद जानबूझकर या भूलकर कि आप अपनी पार्टी के साथ मुर्गा तो दूर, अब चूजे जैसी हालत में भी इसलिए आ गए हैं क्योंकि आपको अपना घर देखना ही नहीं है। एक वाक्य पढ़ा था, किसने कहा था, वो भी बताऊंगा। वाक्य था ‘मुझे लगता है कि अतीत की तरफ बार-बार मुड़कर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि यदि ईश्वर की यही मर्जी होती तो उसने आपको सिर के पीछे आंखें दी होतीं।’ यह बात कभी राहुल के पर दादा जवाहरलाल नेहरू ने कही थी। मुझे लगता है कि इस बात का गुणार्थ तो दूर, भावार्थ समझे बगैर ही राहुल इसका अनुसरण करने पर आमादा हैं।

राहुल अतीत की तरफ देखना ही नहीं चाहते है। वरना तो वह इस बात को याद रखते कि उनके तत्कालीन नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के दस साल के लगातार कार्यकाल में संविधान की पांचवी अनुसूची को लेकर उन बातों का प्रयास तक नहीं किया गया, जिनकी आज वह विपक्ष में रहते हुए हुंकार भर रहे है। समस्या शायद एक खोल में लिपटे रहने की है। मामला ‘नेहरू-गांधी’ वाली आत्मरति में डूबे रहने जैसा है। वरना ऐसा क्यों है कि पीवी नरसिंहराव से लेकर डॉ मनमोहन सिंह के उन कामों को लेकर आप कुछ बोल ही नहीं पा रहे, जिन्होंने निश्चित ही इस देश में आर्थिक सुधारों की दिशा में एक उम्मीद का संचार कर दिखाया था?

सच तो यह है कि राव से लेकर सिंह तक के कार्यकाल में इन प्रधानमंत्रियों के रूप में उस प्रेत छाया से मुक्ति पाने की कोशिश गांधी परिवार करता नजर आ रहा है जो पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा जी और राजीव गांधी के लचर शासनकाल से देश को मुक्ति दिलाने की भावना से भरा है। यहां आशय अर्थ के नाम पर अनर्थकारी नीतियों के लिए है। तो मतिभ्रम तो दूर ,मामला मति के ‘निरंतर क्षरण’ वाला है। इसलिए यह हो रहा है कि राहुल ने नेहरू की उन स्वयंभू समाजवादी नीतियों का देश को भरोसा दिलाने की कोशिश की है, जिन नीतियों में राहुल की बदौलत ही वामपंथी विचारधारा के सम्मिश्रण ने ‘करेला और नीम चढ़ा’ तथा ‘कोढ़ में खाज’ जैसी उक्तियों की भयावह स्मृति से देश को आतंकित कर दिया है। दरअसल केवल राहुल नहीं हैं, अपितु यह दिक्कत उस राहू- काल की है, जिससे देश का सबसे राजनीतिक दल चंद, लेकिन प्रभावशाली चरण चाटकों की वजह से जूझ रहा है। ऐसा करने वाले अपना अपना उल्लू सीधा करने के हिसाब से बहुत अक्लमंद हैं और उनके पक्ष में यह बात और प्रभावी हो जाती है कि उन्हें अब केवल एक मंद अक्ल को ही साधना है।