सियासी तर्जुमा

भाजपा के पसीने की महक और कसैलापन ममता की कसक का 

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के इस आचरण की निंदा को कम से कम मैं तो उचित नहीं मानता। इस बात पर इतना बवाल क्यों कि सुश्री बनर्जी ने एक बार फिर अपने घोरतम घटिया आचरण का परिचय दिया है? क्यों ये शिकवा किया जाए कि ममता देश में राजनीतिक कु-संस्कृति का पेटेंट पाने की दिशा में बहुत आगे निकल  चुकी हैं? यदि पश्चिम बंगाल (West Bengal) की मुख्यमंत्री ने देश के प्रधानमंत्री को आधे घंटे तक  इंतज़ार कराया तो ठीक है।  यदि वे अपने ही राज्य की मुसीबत से जुड़ी बैठक में महज खंभा छूने जैसा काम कर गुजरीं तो ऐसा हो जाने दीजिये। व्यक्ति के जन्मजात संस्कार और मूल फितरत का कोई बाहरी प्रोटोकॉल नहीं होता है। होता केवल यह है कि संबंधित शख्स अपनी पसंद या नापसंद के हिसाब से उन संस्कारों और फितरतों को प्रदर्शित करता जाता  है। स्वयं को अनजाने में ही एक्सपोज़ कर देने की इस मानवीय प्रवृत्ति को आप बेशक रंगा सियार वाले उदाहरण से समझ सकते हैं। बाकी ये मैं अपनी तरफ से नहीं कहूंगा कि पंचतंत्र (Panchatantra) की इस कहानी में ममता को मुख्य पात्र से जोड़ा जाना चाहिए।

गुस्से को नाक पर रखे बगैर तो ममता का शायद श्रृंगार ही पूरा नहीं  होता होगा। फिर जब इसी गुस्से में आशंका और खीझ का तड़का लग जाए तो किसी भी इंसान का व्यवहार पूरी तरह पटरी से उतर जाना स्वाभाविक बात है।यदि कोई इस बात से खुश है कि  पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में सुश्री बनर्जी ने जीत हासिल कर ली है, तो ऐसी सोच रखने वाला कभी भी बनर्जी का सच्चा समर्थक नहीं कहलायेगा। न ही इतना भर कर लेने से वह नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) अथवा भाजपा (BJP) के घोरतम विरोधियों की फेहरिस्त में स्थान पा सकेगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल को तो बीते एक दशक में ममता ने अपने हिसाब से खड़ाऊ राज्य में बदल ही दिया है। वे किसी भी समय अपनी  किसी रीढ़ और आधार-विहीन कठपुतली को मुख्यमंत्री का पद ‘ठेके पर देने’ जैसा काम कर गुजरेंगी, बशर्ते कि उनका प्रधानमंत्री पद संभालने का सपना पूरा हो जाए। सुश्री  बैनर्जी ने इस दिशा में बहुत सुनियोजित तरीके से कदम बढ़ाए थे। सन 2014 में केंद्रीय सत्ता में हुए बड़े फेरबदल के तुरंत बाद नितीश कुमार (Nitish Kumar) मोदी-विरोधी विपक्ष की आशाओं के सबसे बड़े केंद्र बन गए थे। इसके कुछ ठोस आधार थे। मोदी के मुकाबले में नितीश की ‘सुशासन बाबू’ और अल्पसंख्यक परस्त छवि मोदी के विरोधियों के लिए एक बड़ी छत का काम कर रही थी। इधर , विरोधी दलों की कमान हाथ में लेने के लिए राहुल गाँधी (Rahul Gandhi) भी तत्कालीन आम चुनाव की धूल अपने जिस्म से साफ़ कर फिर सक्रिय हो रहे थे। लेकिन फिर नितीश अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए  मोदी की शरण में चले गए। इधर राहुल भी नाकामियों के कीर्तिमान बनाते हुए मोदी के मुकाबले कमजोर होते गए। इस तरह तकदीर ने फिर ममता को मौक़ा दिया और अपनी तदबीरों से उन्होंने खुद को मोदी के विरुद्ध विपक्ष के एक सशक्त चेहरे के तौर पर स्थापित कर लिया। अपने सियासी बही-खाते में भाजपा और कांग्रेस सहित वामपंथियों से हिसाब चुकता करने की संचित पूँजी ममता की बहुत बड़ी ताकत बनी।

लेकिन पश्चिम बंगाल के हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव ने ममता के इस ‘चलो दिल्ली’ वाले अभियान की राह में कांटे बिखेर दिए हैं। क्योंकि जीत के लिए ममता ने अपने राजनीतिक चरित्र के मूल तत्व को तिलांजलि देते हुए सार्वजनिक रूप से चंडी पाठ करने का जोखिम  उठा लिया। मोदी को कमजोर करने का घोषित/अघोषित प्रलोभन देकर वह कांग्रेस और वामपंथियों को अपने पक्ष में वॉक ओवर देने के लिए राजी करने में सफल हो गयीं।  फिर इस चुनाव में ममता के पक्ष में जैसा जातीय जूनून दिखा, उससे तो यही लगता है कि बनर्जी ने अपने संदिग्ध नागरिकता की हद तक बदनाम वोट बैंक को उसके हिसाब से शासन व्यवस्था संचालित कर देने का आश्वासन भी दे दिया होगा। लेकिन इन सारे टोटकों के बावजूद ममता अपने गढ़ में भाजपा का जनाधार बहुत मजबूत तरीके से बढ़ने से नहीं रोक सकीं। जिस दल के प्रयासों को अपने राज्य में समूल उखाड़ फेंकने की तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने कोशिश की, वह दल अब इस राज्य में बड़ी सत्ता पक्ष के बाद दूसरे क्रम की बड़ी राजनीतिक ताकत बन चुका है। नंदीग्राम से खुद ममता का हार जाना भी उनकी राजनीतिक संभावनाओं के लिए बहत तगड़ा झटका है।

इस आशा के अनुरूप न  मिल सकी जीत का नतीजा  यह कि लगातार तीसरी इस जीत के बावजूद इसमें छिपे कमजोरी और भाजपा की शक्ति के तत्व ने ममता की बौखलाहट को और बढ़ा दिया है।  एक महत्वपूर्ण बैठक में प्रधानमंत्री के अपमान की कोशिश ममता की इसी झुंझलाहट को प्रतिबिंबित कर रही है। दौड़ के बाद आप बेशक पहले स्थान पर खड़े हों, किन्तु यदि दूसरी पैदा पर खड़े विजेता के पसीने की महक आपकी विजय की सुगंध पर भारी पड़ रही हो तो फिर इस विजयोल्लास में कमी स्वाभाविक रूप से हो जाती है। ममता अपनी विजय में प्रचंड वाले तत्व की इसी कमी को पचा नहीं पा रही हैं। इस अजीर्ण की ऐसी पीड़ा को ममता तरह-तरह से प्रकट करती रहेंगी। ताकि वे शेष विपक्ष को यह बता सकें कि मोदी का विरोध करने के लिए वे हर हाल में हरेक हद के पार चले जाने के क्रम को कायम रखेंगी। इसलिए उनके ऐसे तेवर को लेकर  शुरूआत में ही इतने बवाल  हो गए तो फिर खेल के और हिस्सों को लेकर कायम सस्पेंस का मजा  ही ख़त्म  हो जाएगा। पश्चिम बंगाल में न तो भाजपा के परिश्रम का पसीना अभी सूखा है और न ही वांछित जीत न मिल पाने से पीने पड़ रहे खून के घूँट का कसैलापन अभी ममता के भीतर से कम हो पा रहा है। इसलिए क्रिया की ऐसी प्रतिक्रिया का ये खेल अभी लंबा चलना है।

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