सियासी तर्जुमा

राहुल की यात्रा से विपक्षी और सहयोगी दलों ने क्यों बनाई दूरी? क्या आड़े आ रही विपक्षी एकता की अगुवाई?

राहुल गांधी की यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचने वाली है। लेकिन यात्रा के दौरान जो हो रहा है वह कई सवाल खड़े कर रहा है।कई राज्यों में न्योता मिलने के बाद भी कई विपक्षी और सहयोगी दल यात्रा से कन्नी काट रहे हैं।जिसके कई सियासी मायने निकले जा रहे हैं।

बृजेश रघुवंशी

70  साल देश पर राज करने वाली पार्टी कांग्रेस का अस्तित्व खतरे में है। अब इस अस्तित्व को जिंदा रखने के लिए खुद राहुल गांधी मैदान संभाल रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस की कमान गैर-गांधी के हाथों में सौंप दी गई है। तो दूसरी तरफ राहुल गांधी भारत जोड़ों यात्रा के जरिए कांग्रेस को धार देने की कवायद में लगे हुए हैं। देश एक बार फिर चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। ऐसे में राहुल गांधी ने देश की जमीनी हकीकत की थाह लेने और अपने पैरों से नापने के लिए कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा की शुरुआत की है। कन्याकुमारी से चली राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जल्द ही कश्मीर पहुंचकर समाप्त हो जाएगी। अब तक राहुल गांधी यूपी-एमपी सहित कई राज्यों की जमीन नाप चुके हैं। और अब राहुल गांधी की यात्रा बिहार की सियासी जमीन नाप रही है। इस यात्रा के जरिए राहुल गांधी कांग्रेस को मजबूत करने का दावा तो कर ही रहे हैं। साथ ही विपक्ष की एकता को मजबूत बनाने की कवायद भी करते नजर आ रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा जिस राज्य में पहुंचती है। राहुल गांधी विपक्ष के नेताओं को निमंत्रण देना नहीं भूलते। जिससे कहा जा सकता है कि राहुल गांधी विपक्षी की एकता का नारा देकर आगामी आम चुनाव में खुद की पीएम पद के लिए उम्मीदवारी पक्की करना चाहते हैं। लेकिन क्या राहुल का ये सपना साकार होगा। ये सवाल इसलिए क्योकि जिस तरह का समर्थन राहुल गांधी विपक्षी दलों से चाहते हैं। उस तरह का समर्थन अब तक भारत जोड़ो यात्रा को मिला नहीं है। कई विपक्षी दल के नेताओं ने इस यात्रा से अब तक दूरी बना रखी है। निमंत्रण मिलने के बाद भी कई विपक्षी दलों के नेता राहुल की यात्रा से कन्नी काटते नजर आ रहे हैं।

राहुल के हाथ को साथ की जरुरत?

कन्याकुमारी से शुरु हुई राहुल गांधी की यात्रा अब तक कई राज्यों से होकर गुजर चुकी है। इस दौरान कहीं विपक्षी दलों का साथ मिला तो कहीं नहीं मिला। जब राहुल गांधी की यात्रा दक्षिण भारत के राज्यों की जमीनी हकीकत की थाह ले रही थी। तब जरुर विपक्षी दलों का साथ राहुल गांधी को मिला था। लेकिन इन दिनों राहुल गांधी की यात्रा हिंदी पट्टी के राज्यों से होकर गुजर रही है।जहां राहुल की यात्रा को विपक्षी दल के नेताओं का समर्थन तो दूर सहयोगी दल के नेता भी यात्रा से कन्नी काटते नजर आ रहे हैं।ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर ये नेता क्यों यात्रा से दूरी बनाए हुए हैं।

हिंदी पट्टी राज्यों में राहुल को नहीं मिला समर्थन?

बिहार और यूपी में तो राहुल की यात्रा से विपक्ष के नेताओं ने ऐसी दूरी बनाई है कि वो दूर-दूर तक यात्रा का जिक्र तक नहीं कर रहे हैं। जब यात्रा यूपी में थी तब राहुल गांधी ने अखिलेश यादव,मायावती,शिवपाल यादव, जयंत चौधरी समेत तमाम विपक्षी दलों के नेताओं को निमंत्रण भेजा था। लेकिन न्योता मिलने के बाद भी सभी विपक्षी दल के नेताओं ने यात्रा से कन्नी काट ली।बिहार में भी कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है। राहुल गांधी ने आरजेडी और जेडीयू समेत सभी सहयोगी दलों के नेताओं को न्योता भेजा है। लेकिन यहां भी न तो विपक्ष के नेता शामिल हो रहे हैं। और न ही सहयोगी दलों का साथ मिल रहा है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में न तो विपक्षी दल खड़े होना चाहते हैं और न ही सहयोगी दल उनके साथ कदमताल कर रहे हैं। हालाकि  दक्षिण भारत के राज्य में डीएमके से लेकर तमाम दलों के नेता राहुल गांधी के साथ पदयात्रा में कदमताल करते नजर आए थे। जब राहुल गांधी की पदयात्रा महाराष्ट्र पहुंची थी, तब शिवसेना नेता आदित्य ठाकरे और एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने यात्रा में शिरकत की थी।इतना ही नहीं शिवसेना की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी भी दिल्ली में राहुल के साथ पैदल चलती नजर आईं थी। जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम और नेशनल कॉफ्रेंस के नेता फारुख अब्दुल्ला भी भारत जोड़ो यात्रा में शिरकत कर चुक हैं।लेकिन सवाल यही उठता है कि आखिर हिंदी पट्टी वाले राज्यों के विपक्षी और सहयोगी दलों ने ही यात्रा से दूरी क्यों बना रखी है। क्या यात्रा के जरिए मजबूत होते राहुल इन दलों को रास नहीं आ रहे हैं।

क्या वोटबैंक की चिंता में पड़ गए ये दल

हिंदी पट्टी वाले राज्यों में राहुल की यात्रा को विपक्षी और सहयोगी दलों का साथ नहीं मिलना कई सवालों को जन्म दे रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि भारत जोड़ो यात्रा के जरिए राहुल की छवि एक मजबूत नेता के तौर पर बन रही है। जो हिंद पट्टी वाले राज्यों के विपक्षी और सहयोगी दलों को रास नहीं आ रहा है। और आभी नहीं सकता है। क्योकि ये वही दल हैं। जो कांग्रेस के कोर वोटबैंक पर कब्जा जमाए बैठे हैं। और वो ये बिल्कुल नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस को दोबारा उभरने का मौका मिले। ये सभी जानते हैं कि बीजेपी के बाद कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है। जो कमजोर होने के बाद भी हर चुनाव में अपना अलग ही वोटबैंक रखती है। और उसके विधायक-सांसद भी बनते हैं। यूपी हो या बिहार कई राजनीतिक दल कांग्रेस के वोटबैंक के सहारे ही अहम भूमिका में हैं।  उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, आरएलडी कांग्रेस के वोटबैंक के सहारे अपनी सियासत चमका रहे हैं। तो बिहार में आरजेडी, जेडीयू और वामपंथी दल भी उसी वोटबैंक पर काबिज हैं। जिसके सहारे कांग्रेस ने लंबे समय तक राज किया है। ऐसे में ये दल अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम बिल्कुल नहीं करेंगे। वो बिल्कुल नहीं चाहेंगे की राहुल के साथ खाड़े होकर उन्हे सियासी संजीवनी दी जाए।

आज भी मौजूद है कांग्रेस का वोटबैंक

कांग्रेस ये अच्छी तरह जानती है कि देश के कोने-कोने में आज भी उसका वोटबैंक मौजूद है। जिसके सहारे कई छोटे दल अपनी सियासत चमका रहे हैं।कांग्रेस अपने इस सियासी महत्व के सहारे 2024 में विपक्षी एकता की अगुवाई अपने हाथों में रखना चाहती है। लेकिन विपक्ष के कई दल इसी वजह से उसके साथ खड़े होने से बच रहे हैं। राहुल के अलावा विपक्ष के कई बड़े नेता पीएम मोदी के सामने विपक्ष का नेता बनने की होड़ में शामिल हैं। चहे वो नीतीश कुमार हों, अरविंद केजरीवाल हों,ममता बनर्जी हों,सभी विपक्ष का नेता बनने की कवायद में हैं। मायावती खुद भी प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोय बैठी हैं।सपा ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं कि वो किसका साथ देगी। तो वही केजरीवाल भी विपक्ष का चेहरा बनने की होड़ में शामिल हैं। केसीआर भी राहुल को विपक्ष का चेहरा नहीं बनाना चाहते हैं। अब ऐसे में सवाल यही उठता है कि इस सियासी खिचड़ी के बीच आखिर विपक्षी एकता की अगुवाई कौन करेगा। या एक बार फिर विपक्षी एकता का नारा बस नारा ही बनकर रह जाएगा।

Web Khabar

वेब खबर

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button