नज़रिया
ऐसे किसी फ़रिश्ते का इंतज़ार और कब तक ?
इस त्रासदी से पीड़ितों के हृदय का स्पर्श कर लीजिए। आप पाएंगे कि दिल पर पत्थर रखकर वह सब भूलने की कोशिश के बावजूद अंदर से निरंतर बहते मवाद की सड़ांध आप को दहला रही है।
भोपाल में दो और तीन दिसंबर, 1984 की दरमियानी रात नींद के लिए मुंदी न जाने कितनी ही आंखें फिर हमेशा के लिए नींद में समा गयीं। हजारों जीवन फिर नहीं रहे। जो रह गए, उनमें से भी अधिकतर फिर कहीं के नहीं रहे। यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस ने उन्हें ऐसी बीमारियां दीं कि उनका जीवन सामान्य रूप से चलने की बजाय किसी चलती-फिरती लाश में बदल गया। शहर की बाकी आबादी भी अभिशप्त रही कि उसने अपने जीवनकाल में असंख्य लोगों के जीवन के इतने करुण और भयावह अंत को देखा। वो देखा, जिसकी स्मृति आज भी सिहरा देती है ।
भोपाल ने यह दंश किसलिए भोगा, यह शायद ही कभी ठीक-ठीक पता चल सके। आरोप तो यह भी लगे कि यह एक साजिश थी। रासायनिक युद्ध का प्रयोग था। जो सच की जड़ से जुड़े हुए थे, वह अपनी जड़ यानी विदेश में सुरक्षित तरीके से पहुंचा दिए गए। जो छोटी मछलियां फंसीं, उन्हें भी वह सजा मिली, जिसने गैस पीड़ितों के घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया। जो लोग कहते हैं कि आज भोपाल वह गैस त्रासदी वाला भोपाल नहीं रहा, उन्हें यह समझना होगा कि यह शहर त्रासदी से पहले वाला वह शहर भी नहीं रह पाया। मॉडरेट किस्म की फिजा थी झीलों की नगरी की। हर मौसम वातानुकूलित वाले अंदाज का। न तीखी गर्मी और न ही हाड़ कंपा देने वाली सर्दी। बरसात भी भरपूर और रिमझिम की लय-ताल का संतुलन ली हुई। पुराना शहर तो खैर था ही देखने और जानने के लायक। संतुष्ट लोग। एक खास किस्म के कल्चर का आनंद लेते हुए। लेकिन त्रासदी के बाद ऐसा नहीं रहा। कभी गौर कीजिए तो पाएंगे कि गैस का जहर जैसे मौसम पर भी चढ़ गया। इस कांड के बाद से ही भोपाल हर मौसम को किसी विभीषिका की तरह ही झेलने के लिए अभिशप्त हो गया है। गर्मी झुलसाने लगी है। सर्दी की गुलाबी तासीर अब नाम-भर की होती है। बाकी तो ठंडी हवाएं अब सामान्य जन-जीवन को असामान्य बनाने का काम करने लगी हैं। अब बरसात अपना आनंद लेने के लिए बुलाती नहीं, बल्कि डराती है। ऋतु-चक्र किसी कुचक्र की तरह बदल चुका है। निश्चित ही भोपाल कभी ‘सुबहे-बनारस, शामे-अवध और शबे-मालवा’ वाला नहीं रहा, लेकिन उस समय की पीढ़ी से पूछिए। वह यही कहेगी कि भोपाल ऋतुराज था। अब ऐसा नहीं रहा है।
कितना बदल दिया भोपाल को इस त्रासदी ने, ये समझना हो तो उन आंखों में झांकिए, जिन्होंने उस समय, वह सब देखा और भुगता भी। खौफ ऐसा कि त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड के प्लांट को खाली करने में पूरी सुरक्षा बरतने के बाद भी शहर की बहुत बड़ी आबादी पलायन कर गयी। बस्तियों में मनहूस सन्नाटा पसर गया। प्लांट खाली होने के बाद जो लोग घर लौटे, उन्हें भी फिर कहाँ कभी सुकून मयस्सर हुआ? उनमें से अधिकांश ने पाया कि उनका शेष जीवन गैस से प्रभावित अपने शरीर को बचाने तथा राहत राशि के लिए किसी संघर्ष गाथा में बदल गया है। उनके लिए ये भी किसी त्रासदी से कम नहीं रहा होगा कि वे अपने आसपास अनगिनत वह जीवन देखें, जो गैस के प्रभाव के चलते ‘घिसट-घिसट’ और सिसक-सिसक कर’ ही हालत की गर्द में अपना वजूद खोते चले गए। त्रासदी को हुए तीन दशक से भी अधिक बीत चुके हैं। भोपाल की वह पीढ़ी भी उम्र की सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ने लगी है, जिसने इस त्रासदी के बाद जन्म लिया। कहते हैं कि समय हर जख्म का सबसे बड़ा मलहम है, लेकिन क्या वाकई कोई मलहम भोपाल के नासूर हो चुके घावों को दुरुस्त कर पाएगा? इस त्रासदी से पीड़ितों के हृदय का स्पर्श कर लीजिए। आप पाएंगे कि दिल पर पत्थर रखकर वह सब भूलने की कोशिश के बावजूद अंदर से निरंतर बहते मवाद की सड़ांध आप को दहला रही है। इस मवाद का मुदावा (इलाज) क्या किसी के पास है? भोपाल को ऐसे किसी फ़रिश्ते का और कितना इंतज़ार करना होगा? फिलहाल तो फरिश्तों से यही फ़रियाद की जा सकती है कि भोपाल जैसा जख्म कभी भी किसी और की जिंदगी का हिस्सा न बने।