ये जीत किसान की नहीं भीड़तंत्र की है
भोपाल – मैं किसान नहीं हूँ और न ही मेरे परिवार का खेती किसानी से कोई वास्ता नहीं है। लेकिन फिर भी सच्चा देशभक्त नागरिक होने के नाते जानना चाहता हूँ, कि देश की बदहाल और सालों से चली आ रही खेती की व्यवस्था में सुधार के लिए लाए गए तीन कृषि कानून(farmer bill) क्या इतने ज्यादा खराब थे ? कि वोटरों के द्वारा चुनी गई सरकार और घंटों की चर्चा के बाद बने तीनों कृषि कानून को लागू होने से पहले विश्व के सर्वाधिक ताकतवर नेता नरेंद्र मोदी को यह कहकर वापस लेना पड़ा कि ” दिए की रोशनी के समान पवित्र सच को हम देश के किसानों को समझा नहीं सकें इसलिए किसानों के हित में लाए गए कानूनों को वापस ले रहे हैं “। ये जीत देश के किसानों (केवल जिन्होंने इस कानून को वापस लेने के दबाव बनाया था) की है या फिर उस भीड़तंत्र की जिस पर कानून का जोर नहीं था या फिर अपनी विपक्ष की उस गुटबाजी की थी जिसका केवल एक ही एंजेडा है किसी तरह से मोदी सरकार की हार हो। इस कानून को लेकर घंटों की टीवी डिबेट हुई हैं, कई सौ किसानों की मौत और दिल्ली में किसानों की भेष में आएं उन्मादी तत्वों के द्वारा जो आतंक मचाया गया। उस सबके बावजूद अगर भारत के 80 प्रतिशत गरीब किसान जो गरीबी, बदहाली, सूदखोरी और बिचौलियों के साए में अपनी फसल को काम दाम पर बेचने के लिए मजबूर है उन किसानों की चिंता देश के सुविधा संपत्ति संपन्न 20 फीसदी किसानों को नहीं है वो केवल अपना घर और ज्यादा मजबूत करना चाहते हैं क्योंकि केवल ढाई राज्यों के किसानों को मोदी सरकार के कृषि कानून पर आपत्ति थी। ये हकीकत है क्योंकि देशभर के किसान को अगर इस कानून पर आपत्ति होती तो प्रधानमंत्री(prime minister) नरेंद्र मोदी(narendra modi) कानून वापसी का कदम पहले ही उठा लेते।
ये हार सरकार की नहीं ये हार किसानों की है –
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए तीनों कृषि कानून को वापस ले लिया और अपने संबोधन में इस बात को भी स्वीकार किया किया कि कानून देश के किसानों के लिए बहुत अच्छा था लेकिन हम इस बात को किसानों को समझा नहीं पाए। ऐसे में एक वोटर के नाते वोट देकर देश की सरकार को बनाने में अपना योगदान देने वाले उस वोटर एक सवाल जरूर उठ रहा होगा कि ये हार उसकी हार है क्योंकि अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह की फिल्म “वेडनसडे” में जब नसीरुद्दीन शाह अनुपम खेर से कहते हैं कि “मैं वोट देकर सरकार चुनता हुं। ताकि वो मेरे हित में फैसले लें”। लेकिन जब चुनी हुई सरकार इस बात को कहें कि कानून सही है लेकिन हम कानून के बारे में मात्र 20 फीसदी सुविधा संपन्न किसानों को समझा नहीं पाए । और फिर विदेशी ताकतों की फंडिंग की मदद से चल रहा किसानों के आंदोलन मोदी सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। लेकिन ऐसा है नहीं क्योंकि अब किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले क्या करेंगे? करोड़ों के मालिक राकेश टिकैत अपनी राजनीतिक रोटियों के लिए किस तवे का इंतजाम करेंगे और राहुल गांधी जो अब कह रहे हैं कि कानून वापस लेने से पहले चर्चा करनी चाहिए थी वो क्या कहेंगे। क्योंकि राहुल पहले कह रहे थे कानून वापस लेना चाहिए, तो हो गया कानून वापस।
किसानों को रिपोर्ट जानने का अधिकार था –
भारत की चुनी हुई सरकार के द्वारा देश के असल अन्नदाता किसान की बदहाली को खुशहाली में बदलने के लिए जो कानून बनाया गया था उस सुप्रीम कोर्ट(court) के द्वारा गठित कमेटी के सदस्य अनिल घनवट ने भी कहा कि “कानून किसानों के हित में थे 73 किसानों संगठनों से बातचीत के बाद यह निष्कर्ष निकला था कि पूरे देश के किसान इस कानून के खिलाफ नहीं थे यह कानून किसान की दशा और दिशा को बदलने वाला साबित होता” लेकिन ऐसा हुआ नहीं किसानों को हित में बनाई गई कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो पाई । खैर जो होना था वो हो गया लेकिन सवाल तो आखिर में भी यही है कि अगर भीड़तंत्र के आगे सरकार हार जाएगी तो फिर इस सुधार की दिशा में उठाए जाने वाले कड़े कदम कैसे उठाए जा सकेंगे।