सियासी तर्जुमा

कांग्रेस के लिए ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाले हालात 

ऐसे में राहुल के लिए यह चुनौती है कि क्या वह यात्रा के बाद भी इन दिग्गज विपक्षी नेताओं के इस रुख में परिवर्तन कर सकेंगे?

कांग्रेस के लिए यह यकीनन ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाली स्थिति है। वह पहले ही उत्तरप्रदेश में बुरी तरह से अपना जनाधार खो चुकी है. जिस प्रदेश ने उसे 13 मुख्यमंत्रियों के शासन का अवसर प्रदान किया, उसी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस वर्ष 1989 के बाद से सत्ता में आना तो दूर, एक बार भी उसके नजदीक तक नहीं पहुंच सकी। राज्य के 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में यहां कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। फिर सन 2022 के चुनाव में प्रियंका वाड्रा ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का जोश भरा नारा देने के बाद भी पार्टी को और अधिक करारी हार से नहीं बचा सकीं। उलटे यह हुआ कि इस राज्य की कमान संभालते हुए वर्ष 2019 के आम चुनाव में वाड्रा अपने भाई राहुल को परिवार की परंपरागत सीट अमेठी में भी हार से बचा नहीं सकीं।

मूल विषय पर आएं। हाल ही में कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश के सभी राजनीतिक दलों को आमंत्रण दिया कि वे राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हों। जाहिर है कि ऐसा कर पार्टी भाजपा-विरोधी दलों को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही थी। आज समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आरोप लगाया कि कांग्रेस दरअसल भाजपा के साथ मिलकर चल रही है। इसके साथ ही  यह साफ़ हो  गया कि अखिलेश और उनकी पार्टी इस यात्रा में शामिल नहीं होगी। इधर, बसपा से लेकर अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी कांग्रेस के आमंत्रण को अब तक कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी है। यह पहला मौका नहीं है, जब अखिलेश ने कांग्रेस के लिए ऐसे तेवर दिखाए हैं। सभी को एक निजी न्यूज चैनल का कार्यक्रम याद होगा। उसमें राहुल ने भाजपा के खिलाफ विपक्षी मोर्चा बनाए जाने की बात कही थी। जवाब में अखिलेश ने दो टूक कहा था कि ऐसा तब ही हो सकेगा, जब राहुल उनके पिता (मुलायम) को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए समर्थन दे दें। अब यात्रा के निमंत्रण पर सीधे हाँ या ना कहने की बजाय अखिलेश ने जिस तरह कांग्रेस पर हमला बोला है, उससे संकेत मिलते हैं कि वह इस दल से जुड़ाव में फिलहाल कोई रूचि नहीं ले रहे हैं।
यह घटनाक्रम ताजा है, लेकिन इसमें राहुल के लिए भविष्य की बहुत बड़ी चुनौती छिपी हुई है। कांग्रेस को विश्वास है कि इस यात्रा के बाद राहुल गांधी एक बार फिर खुद को नरेंद्र मोदी के मुकाबले के लिए पेश कर सकेंगे। लेकिन ऐसा भी हो रहा है कि इसी फेहरिस्त में ममता बनर्जी से लेकर नीतीश कुमार और शरद पवार राहुल से काफी आगे हो चुके हैं। खुद अखिलेश भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे  हैं। ममता एक से अधिक मौके पर राहुल के नेतृत्व वाले विपक्ष के लिए अरुचि दिखा चुकी हैं और महाराष्ट्र में महा अगाढ़ी सरकार के पतन के बाद से शरद पवार के कांग्रेस से एक बार फिर बहुत अच्छे रिश्ते नहीं दिख रहे हैं। उल्टा हाल ही में पवार ने कहा है कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को अपनी अलग ताकत स्थापित करना होगी। जाहिर है कि यह कथन कांग्रेस से अलग होकर एक बार फिर अपनी पार्टी की अलग पहचान स्थापित करने की गरज से कहा गया है। ऐसे में राहुल के लिए यह चुनौती है कि क्या वह यात्रा के बाद भी इन दिग्गज विपक्षी नेताओं के इस रुख में परिवर्तन कर सकेंगे? ऐसा मुश्किल लगता है, क्योंकि इस यात्रा के बीच ही कांग्रेस ने गुजरात के विधानसभा और दिल्ली नगर निगम चुनाव में बुरी तरह हार का स्वाद चखा है। कांग्रेस यकीनन इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश में  जीत गयी, लेकिन यह उस राज्य का मामला है, जहां एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार बनने का दस्तूर स्थापित हो चुका है।

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