‘अर्द्ध सत्य’ वाली हत्या का पूर्ण सत्य

‘अर्द्ध सत्य’ (Arddh Satya) फिल्म मैंने भोपाल (Bhopal) में अब अतीत बन चुकी लिली टॉकीज में देखी थी। खटमलों से भरी लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर पांव के नीचे हलचल मचा रहे चूहों से बचते हुए इस फिल्म को देखना पड़ा था। फिर भी निगाह परदे से हटती ही नहीं थी। क्योंकि वहां ओम पुरी (Om Puri) और स्मिता पाटिल (Smita Patilo) जैसे अभिनय के दिग्गज चेहरे जो दिख रहे थे। आगे कुछ देर के लिए शफी इनामदार का प्रभावी अभिनय भी देखने मिला। और इस सबके बाद जो दिखा, उसकी व्याख्या आज तक सटीक शब्दों में नहीं कर सकता हूं। फिल्म के सातवें मिनट के बाद परदे पर सदाशिव अमरापुरकर (Sadashiv Amrapurkar) का चेहरा आया। उन्होंने कुटिलता और क्रूरता के संतुलन को जिस अकल्पनीय खूबी के साथ अभिनय में उतारा, उसके चलते असर यह हुआ कि मेरे लिए उस फिल्म में कोई फ़िल्मी अमरापुरकर बचा ही नहीं। उसकी जगह उस खलनायक रामा शेट्टी ने ले ली, जो वास्तविक जीवन के बुरे लोगों से रत्ती-भर भी अलग नहीं दिख रहा था। फिल्म के अंत में सोफे पर तड़प-तड़प कर दम तोड़ते रामा शेट्टी को देखकर परम संतोष हुआ और इससे भी अधिक संतोष इस बात का था कि यह अंत अमरापुरकर का नहीं है।
लेकिन दुर्भाग्य से मैं काफी हद तक गलत था। क्योंकि इसके बाद अमरापुरकर के भीतर के अभिनेता को सचमुच तड़प-तड़प कर मरने के लिए मजबूर कर दिया गया। यदि आप ‘अर्द्ध सत्य’ के बाद के फ़िल्मी शीर्षकों जैसे, ‘ पुराना मंदिर’ ‘ज़ुल्म को जला दूंगा’ ‘मार-धाड़’ और ‘नाचे नागिन गली-गली’ पर ही गौर करें, तो स्वयं समझ सकते हैं कि रामा शेट्टी को किरदार के तौर पर अर्श से किस तरह बॉलीवुड (Bollywood) के तवायफ़खाने के फर्श पर ला खड़ा कर दिया गया था। अभिनय क्षमता की हत्या के इस जघन्य कांड की तीव्रता इतनी थी कि ऐसी फिल्मों के बीच ‘आघात’ (Aghaat) और ‘नासूर’ (Nasur) जैसे उत्कृष्ट चित्रों में अवसर मिलने के बाद भी अमरापुरकर का मिलन फिर कभी रामा शेट्टी वाला आत्मा से नहीं हो सका।
अमरापुरकर का एक साक्षात्कार पढ़ा था। जिसमें उन्होंने बताया कि वह अर्द्ध सत्य वाले प्लेटफार्म को ही कायम रखना चाहते थे। लेकिन हुआ यह कि बॉलीवुड की सशक्त लॉबी (‘गिरोह’ भी कह सकते हैं) उनकी रामा शेट्टी वाली छवि का अंधाधुंध दोहन करने पर आमादा थी। उनके पास केवल ऐसी फिल्मों के ऑफर आ रहे थे, जिनमें उन्हें छुरा या तमंचा लिए हुए सड़क-छाप गुंडे अथवा फिर विलन की बजाय विदूषक ज्यादा लगने वाले बुरे चरित्र की भूमिका के लायक ही समझा गया। अमरापुरकर ने बताया था कि जब उन्होंने ऐसी फिल्मों को करने से मना कर दिया तो इस लॉबी ने एकजुट होकर उनके लिए बाकी फिल्मों के रास्ते बंद कर दिए। तब विवश होकर इस महान अभिनेता को आत्मघाती कदम उठाते हुए फूहड़ किस्म की फिल्मों में फूहड़ता की सीमा पार करने वाले किरदारों को अपनाने के लिए विवश होना पड़ गया। फिर, महेश भट्ट (Mahesh Bhatt) की विदेशी चोरी की बदौलत बनी फिल्म ‘सड़क’ में अमरापुरकर के ‘महारानी’ वाले मैलोड्रामैटिक चरित्र को दर्शकों की भीड़ की भेड़चाल वाली जो तारीफ़ मिली, उसने मेरे विचार से स्वयं अमरापुरकर के भीतर की रामा शेट्टी को फिर जीने की चाह को सस्ती लोकप्रियता की राह में ढालकर ख़त्म हो जाने दिया होगा।
लेकिन सदाशिव के साथ ऐसा हुआ क्यों? आखिर उत्कृष्ट सिनेमा और किरदारों की मामले में तो नाना पाटेकर की गाड़ी भी असंख्य बार पटरी से उतरने के बाद फिर पटरी पर आ गयी। यही नसीरुद्दीन शाह (Nasiruddin Shah) और ओम पुरी (Om Puri) के साथ भी हुआ। ‘नमक हलाल’ (Namak Halal) और ‘कसम पैदा करने वाले की’ (Kasam Paida Karne Waale Ki) जैसी दोयम दर्जे की फिल्मों में काम करने के बाद भी स्मिता पाटिल आज तक शेष अनेक उल्लेखनीय फिल्मों के लिए याद की जाती हैं। शबाना आजमी (Shabana Azami) ने भी ‘अंकुर’ (Ankur) या ‘मंडी’ (Mandi) की श्रेष्ठता को ‘अशांति’ अथवा ‘अम्बा’ जैसे प्रदूषण का पूरी तरह शिकार होने से बचाये रखा है। फिर प्रारब्ध का ऐसा स्वरूप अमरापुरकर को क्यों नहीं हासिल हो सका? क्यों ऐसा है कि अर्द्ध सत्य से अनभिज्ञ दर्शक वर्ग के लिए सदाशिव की स्मृति एक महान अभिनेता वाली नहीं बन सकी? गनीमत है कि कुछ मराठी चित्रों की श्रेष्ठता के चलते अमरापुरकर को वहां ऐसे विचित्र दुर्भाग्य का सामना नहीं करना पड़ा। उन फिल्मों में बॉलीवुड से मिले असंख्य नासूरों के बीच भी अमरापुरकर ज़बरदस्त अभिनय की मुस्कराहट और ऊर्जा से लबरेज नजर आते हैं।
अमरापुरकर के अंदर के अभिनेता की ऐसी हत्या विचलित कर देती है। फिल्म में रामा शेट्टी को किसने मारा था, सब जानते हैं, लेकिन रामा शेट्टी के चरित्र में जान फूंक देने वाले अमरापुरकर को फिल्म जगत में किस-किस ने मिलकर मारा, क्या कोई इसका जवाब दे सकेगा?