दिवंगत हरिशंकर परसाई जी बहुत अधिक याद आ रहे हैं। उनकी रचना ‘टॉर्च बेचने वाला’ स्कूल में पढ़ी थी। दिवंगत राज कपूर की भी स्मृति सहसा हो आई। उनकी फिल्म ‘श्री 420’ एक से अधिक बार देखने का अवसर मिला है। परसाई मध्यप्रदेश के थे। इसी राज्य में कपूर की ससुराल थी। आज इस प्रदेश से उन दोनों का अलग-अलग तरीके से, लेकिन एक ही संदर्भ में नया नाता जुड़ रहा है।
सीहोर के कुबेरेश्वर धाम में कल से आज तक जो हुआ और हो रहा है, वह परसाई की रचना वाले उस पात्र को जीवंत करता है, जो पहले कभी टॉर्च बेचता था। इसके लिए लोगों को भयानक अंदाज में अंधेरे से डराता था। अंदाज ऐसा कि लोग टॉर्च खरीदने के लिए टूट पड़ते। गोया कि यह एक वस्तु उन्हें अंधेरे के हर संकट से बचा लेगी। फिर वह अपने एक दोस्त के संरक्षण में प्रवचन देने वाला बन जाता है। इस कृति के अंत में यह पात्र लेखक के सवाल पर कहता है, धंधा वही करूंगा, यानी टार्च बेचूंगा।बस कंपनी बदल रहा हूँ।’ ‘कंपनी’ यानी उस दोस्त की संगति, जो श्रद्धालुओं को जीवन के अंधकार से बचाने के नाम पर बहला-फुसलाकर धर्म की दुकान चला रहा है।
जीवन में दुःख हैं तो इसे भी अंधकार वाली की श्रेणी में रखा जाता है। तो जब ऐसे दुखों को ख़त्म कर अंधेरा दूर करने जैसी बात की जाए, वह भी ‘मुफ्त एवं शर्तिया इलाज’ की शक्ल में, तो भला कौन इससे प्रभावित नहीं होगा? भीड़ का महासागर उमड़ पड़ेगा। जैसा सीहोर में हो रहा है। भीड़ परेशान होगी, बीमार होगी और कुछ मर भी जाएंगे। यह भी सीहोर में हो ही रहा है। हैरत है कि चमत्कारी बताए जा रहे रुद्राक्षों की छोटे-मोटे पहाड़ जैसी संख्या भी अपने लिए श्रद्धा और विश्वास से भरे अपार जनसमूह की बीमारी से लेकर अकाल मौत जैसे हालात से रक्षा नहीं कर पा रही है। जिन पर कष्टों से मुक्ति वाली सिद्धि का विश्वास है, वे ऐसे हालत के दोष से खुद के बचाव में किसी सिद्धहस्त के अंदाज में ‘मौत आनी होगी तो आएगी ही’ वाला उपदेश दे रहे हैं। जिस पुलिस पर अपराधियों से बचाव का विश्वास है, उस पुलिस को आयोजन की तीमारदारी में झोंक दिया गया है। शायद इस विश्वास के साथ कि एक बार ठीक-ठाक तरीके से रुद्राक्ष बंटने के साथ ही राज्य की कानून-व्यवस्था से जुड़े सारे संकट और अंधकार भी मिट जाएंगे।
स्थिति में कोई सुधार नहीं है। शुक्रवार को भी वहां एक दिन पहले जैसी खतरनाक अव्यवस्थाओं का बोलबाला रहा। फिर भी श्रद्धालुओं की भीड़ और उसके उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी। लोगों की अपार आस्था के अपरंपार तरीके से अन्धविश्वास में बदल जाने की यह ताजा मिसाल ही कही जाएगी। आयोजक सर्व साधन संपन्न हैं। उनके पास इतने संसाधन हैं कि निःशुल्क रुद्राक्ष घर-घर भिजवा सकते हैं। ऐसा करना तब और जरूरी हो जाता है, जब पहले भी इस वितरण कार्यक्रम के चलते अकल्पनीय तरीके की विसंगतियों को भोगा गया था। इसके बाद भी यदि जिद यही है कि ‘चाहिए है तो आना ही होगा’ तो ये संदेह होता है कि क्या यह धर्म की दुकान की ग्राहक संख्या के माध्यम से शक्ति प्रदर्शन करने की होड़ का हिस्सा है? यदि ऐसा नहीं है तो यह तो किया ही जा सकता था कि सात दिवसीय आयोजन में रुद्राक्षों की संख्या के हिसाब से प्रत्येक दिन के लिए श्रद्धालुओं की संख्या पहले ही तय कर दी जाती। जब सोशल मीडिया पर इस ‘चमत्कार’ का जबरदस्त तरीके से प्रचार किया ही गया तो यह भी कर लेते कि इसी माध्यम से रुद्राक्ष के उम्मीदवारों का पंजीयन कर उनके लिए दिन एवं समय को तय कर दिया जाता। ऐसा नहीं किया गया। क्योंकि फ़िक्र श्रद्धालुओं की सहूलियत और सुरक्षा से अधिक इस बात की है कि किस तरह श्रद्धा के सागर के अनुरूप अपनी ख्याति की गागर का आकार और बड़ा कर लिया जाए।
‘श्री 420’ का मुख्य पात्र बहुत चालाक है। वह भीड़ से कहता है कि सबको रोटी खिलाएगा। इस झांसे के चलते उसके पास भीड़ लग जाती है। तब वह कहता है कि रोटी खाने से पहले जरूरी है कि दांत साफ़ हों। इसके लिए उसके पास बिक्री के लिए उपलब्ध मंजन बहुत कारगर है। मुफ्त की रोटी के फेर में मंजन खरीदने वालों की भीड़ लग जाती है। मजे की बात यह कि खुद वह पात्र अपनी रोटी जुगाड़ने के लिए लोगों को झूठा आश्वासन दे रहा होता है। टॉर्च बेचने वाला, रोटी देने वाला और रुद्राक्ष बांटने वाला, इन तीन के बीच क्या कोई अंतर दिख रहा है?