नज़रिया

आज भारत को जरूरत संत गाडगे महाराज जैसी विभूतियों की

अपने घर परिवार को छोड़कर समाज को जगाने का प्रयत्न करने वाले बहुत से समाज सुधारक इस देश दुनिया में हुए हैं। जिन्होंने अपने विचारों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए अपना जीवन त्याग कर दिया। ऐसे सभी संतों की विचारशैली और कार्यशैली भले ही अलग रही हो। लेकिन सभी का उद्देश्य केवल था,  एक – बेहतर समाज, हर प्रकार की बुराइयों से दूर। ऐसे ही महान विभूतियों में से एक है, संत गाडगे महाराज। जिनकी 23 फरवरी को जयंती है। संत गाडगे महाराज ने समाज को जगाने के लिए अपना परिवार त्याग दिया। वे खुद अशिक्षित थे, लेकिन शिक्षा के लिए लोगों को में जागरूकता फैले इसके लिए अपना जीवन त्याग दिया। वे बुद्धिवादी आंदोलन के प्रणेता बनें। संत गाडगे महाराज कर्मकांडवाद, पाखंडवाद और जातिवाद जैसी कुरीतियों का विरोध तो करते ही थे साथ ही स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने का काम भी अपने भजनों के माध्यम से करते थे। भारत को आज संत गाडगे महाराज जैसे विभूतियों की बहुत जरूरत है।
बेहतर समाज के लिए स्वच्छता भी जरूरी
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से स्वच्छ भारत अभियान के माध्यम से स्वच्छता की अलख लोगों में जगा रहे हैं, कुछ उसी तरह ही संत गाडगे महाराज ने अपने समय में लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया और उन्हें समझाया कि शिक्षित समाज के लिए साफ सफाई बेहद जरूरी है। दलित – बहुजन परंपरा की एक बेहद महत्वपूर्ण कड़ी संत गाडगे बाबा का जन्म महाराष्ट्र में भुलेश्वरी नदी के किनारे स्थित ग्राम शेंडगांव जिला अमरावती 23 फरवरी 1876 को धोबी समुदाय में हुआ था। पिता झिंगराजी जाणोरकार और माता सखूबाई की संतान जो बाद में संत गाडगे के नाम से जानी गई, लेकिन उनका असली नाम देविदास डेबूजी जाणोरकर था। आठ साल की आयु में पिताजी की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी माता डेबूजी को लेकर मायके चली गई।
एक लाठी, एक गडगा लेकर निकल दिए थे समाज सुधार के लिए
डेबूजी का बचपन उनके मामा के यहां ही बीता। डेबूजी यहां गाय भैंस को चराने के अलावा खेती बाड़ी के कामों में दूसरों का हाथ बंटाते थे। उनका विवाह कमालपुर गांव के घनाजी खल्लारकर के बेटी कुंताबाई से हुआ। वे अपने परिवार के साथ 1905 तक रहे। बचपन से ही डेबूजी को समाज में व्याप्त बुराइयां और समस्याएं कचोटती रहती थीं। जिन्हें दूर करने की मन में ठान कर वे 1 फरवरी 1905 को माता के पैरों माथा टेककर हमेशा के लिए अपना घर त्याग कर चले गए। जिस वक्त बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने की बात को मन में ठानकर अपना घर त्यागा था, तब उनके पास सामान के नाम पर केवल एक लाठी, एक गडगा और तन पर फटे- पुराने कपड़ों से बना केवल एक वस्त्र भर था। जिसके कारण कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ। लेकिन  समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प लेकर घर छोड़ने वाले डेबूजी कभी परेशान नहीं हुए। घर छोड़ने के 12 वर्षों तक एक साधक के रूप में देश भर में घूम – घूम कर भजन, कीर्तन और जनसंपर्क कर लोगों को जागरूक करते रहे। लोगों के मन में डेबूजी यानि गाडगे महाराज को लेकर आदरभाव तब पैदा हुआ, जब उन्होंने देखा की ऋणमोचन के मेले में पूर्णा नदी के किनारे लोगों के स्नान करने से घाट की मिट्टी गीली हो गई थी जिसके कारण लोग गिर रहे थे। तब गाडगे महाराज दूर से सूखी मिट्टी लाकर घाट पर डाल लगे, ताकि लोग गिरे नहीं। दिन भर की मेहनत के बाद उन्होंने शाम को अभंग गाकर लोगों को मनोरंजन किया और अंत में कहीं से मिली हुई भाकरी को नदी के किनारे बैठकर खाने लगे। ऐसे साधारण संत को देखकर लोगों के मन में डेबूजी के लिए कृतज्ञता का भाव पैदा हुआ।
ऐसे जागा था गाडगे बाबा के लिए आदर का भाव
संत गाडगे महाराज ने अपने जीवन समाज की बुराइयों को खत्म करने के साथ ही समाज सेवा की दिशा में बहुत काम किए। पूर्णा नदी के तट के घाट बनाने के बाद उन्होंने ऋणमोचन और पंढरपूर में जरूरतमंदों के लिए धर्मशाला का निर्माण कराया। इसके बाद उन वृद्धजनों वृद्धाश्रम बनवाया। अपना जीवन गरीब और असहायों के कल्याण के लिए त्याग करने वाले डेबूजी महाराज ने 14 नवम्बर 1956 को पंढरपूर में रात भर कीर्तिन किया और उसी दौरान उन्होंने कहा कि यह उनकी “अंतिम भेंट है”। जिसके बाद संत गाडगे बीमार हो गए और उन्हें इलाज के लिए मुंबई के अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब वे अस्पताल से बाहर आए तो उन्हें डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर के निधन की सूचना मिली जिसे सुनकर गाडगे महाराज को गहरा आघात लगा। 20 दिसंबर 1956 को गाडगे बाबा की मृत्यु अमरावती के वलगांव में पेढ़ी नदी के पुल को पार करते समय हो गई। उनके निधन के खबर मिलते पूरा महाराष्ट्र शोक की लहर में डूब गया। जिस स्थान पर बाबा का निधन हुआ था वहां पर सिकची परिवार ने गाडगे महाराज वृद्धाश्रम का निर्माण करवाया। इसी स्थान पर गाडगे बाबा के द्वारा समाज सुधार की दिशा उनके द्वारा उठाए गए कदम और उनके जीवन को लेकर गाडगे बाबा रिसर्च सेंटर भी बनाया गया है।
पैसों की तंगी तो बर्तन बेच दो
संत गाडगे महाराज खुद अशिक्षित थे लेकिन शिक्षा को लेकर लोग जागरूक हो इसको लेकर वे कहते थे कि ‘अगर पैसों की तंगी है, तो खाने के बर्तन बेच दो पर अपने बच्चों को शिक्षा दिलाए बिना मत रखो’ से पता चलता है। व्यक्ति भले मर जाय पर विचार कभी मरते नहीं। वे समाज में फैली असमानता को लेकर कहते थे कि मराठी, माली, तेली, नाई, धोबी, चमार, कोली, कुम्हार, लोहार, बेलदार, गोंड, अहीर, मांग, महार, आदि ये लोग क्यों गरीब रहे? इनके पास विद्या नहीं, जिनके पास विद्या नहीं उन्हें बैल की तरह ही खटना पड़ेगा, इसलिए इसे सुधारो। विद्या धन के लिए समाज के हर वर्ग को जागरूक करने के उद्धेश्य लेकर भटकने वाले बाबा गाडगे कहते थे कि सुविधा संपन्न लोगों से कहते थे कि “अपने बच्चों को शिक्षित करने की इच्छा रखते हो लेकिन गरीब बच्चों को एक दो आने की कॉपी देने की बुद्धि अगर आप में नहीं है, तो आप मनुष्य नहीं हैं”। संत गाडगे महाराज के भक्ति के प्रचार प्रसार से ज्यादा शिक्षा के प्रचार प्रसार को बेहतर मानते थे। शराब की बुराई को समाज से खत्म करने के लिए दिशा में अभियान चलाने वाले गाडगे महाराज कहा है कि “जिस शराब ने करोड़पतियों का खाना खराब किया, राजपूतों को मरवा दिया, राजवाड़े वीरान हो गए, दारू के साए में खड़े मत रहो। जो शराब पीता है उसका खाना ख़राब हुए बिना नहीं रहता।” जीवन भर  गरीब, कमजोर, दुखी और निराश लोगों की मदद करना और उन्हें हिम्मत देने वाले गाडगे महाराज अपने अनुयायियों से कहते थे कि मेरे मरने के बाद मेरी मूर्ति, स्मारक, समाधि और मंदिर मत बनाना। जातीय भेदभाव को दूर करने के लिए भाई चारे की संस्कृति को विकसित करना। अपने मां बाप की सेवा करना ही ईश्वर सेवा है। यहीं कारण है कि संत गाडगे महाराज के निधन के बाद गाडगे सेवा मिशन आज भी जनसेवा के लिए बहुत काम कर रहा है। गाडगे बाबा स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए लेकिन वे शिक्षा के महत्व को जानते थे लेकिन आज भी गाडगे बाबा मिशन समाज के सभी तबकों के बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने के लिए काम कर रहा है। बाबा के समाज सुधार में दिशा में किए गए कामों को देखते हुए अमरावती में संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है। भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया।
गाडगे बाबा ने तिलक को भी कर दिया था निरूत्तर 
23 फरवरी को संत गाडगे बाबा की जयंती है। वे ऐसे संत थे जिन्होंने भजन – कीर्तन के माध्यम से सोए हुए समाज जगाने का जीवन भर प्रयास किया। उनकी दुखद मृत्यु के बाद उनके अनुयायी लगातार उनके विचारों को जन जन तक पहुंचाने काम कर रहे हैं। समाज सुधार की दिशा में गाडगे बाबा के द्वारा उठाए गए कदमों ने अनेकों लोगों के जीवन का उद्धार कया। ऐसी महान विभूति को पूरा भारत नमन करता है। बाबा गाडगे के जीवन से जुड़ी एक ऐसी ही घटना है जो बताती है कि वे जाति प्रथा जैसी कुरीति को लेकर वे कैसे भाव रखते थे। ‘अथनी’ पंढरपुर में ब्राह्मणों की एक सभा में, जिसमें संत गाडगे बाबा भी उपस्थित थे लेकिन तिलक जी को इस बात का पता नहीं था। सभा को संबोधित करते तिलक ने कहा कि “तेली, तांबोली और कुनबी, विधानमंडल में जाकर क्या हल चलाएंगे”? तिलक के ऐसा कहने का अर्थ यह था कि ब्राह्मणों से अलावा दूसरे लोगों को मनुस्मृति के अनुसार निर्धारित परंपरागत कार्य ही करना चाहिए, वे विधानमंडल में जाकर कुछ नहीं कर सकते। संबोधन के बाद तिलक ने बाबा से मार्गदर्शन करने के लिए अनुरोध किया। तो गाडगे बाबा ने “गलती मेरी है, मैं परीट, मैं धोबी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपके कपड़े धोना मेरा काम है, आपका मार्गदर्शन करना मेरी जाति का काम नहीं है। मैं मार्गदर्शन कैसे करूँ?” सभा में गाडगे बाबा ने तिलक से विनती करते हुए कहा कि “हमें भी विधानमंडल में जाना है। और हम ब्राह्मण नहीं हैं। और आप कहते हैं कि ब्राह्मण के अलावा अन्य किसी को भी विधानमंडल में नहीं जाना चाहिए। इसीलिए तिलक महाराज अब आप ही कुछ भी करो, लेकिन हमें ब्राह्मण बना दो” गाडगे बाबा की इस बात सुनकर तिलक भी निरुत्तर हो गए।

वैभव गुप्ता

वैभव गुप्ता मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में जाना-पहचाना नाम हैं। मूलतः ग्वालियर निवासी गुप्ता ने भोपाल को अपनी कर्मस्थली बनाया और एक दशक से अधिक समय से यहां अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में उल्लेखनीय सेवाएं दी हैं। वैभव गुप्ता राजनीतिक तथा सामाजिक मुद्दों पर भी नियमित रूप से लेखन कर रहे हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button