कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक ये वायरस

मैं भी गुस्से से भरे उन सुरों में सुर मिलाना चाहता हूँ, जो कोरोना के बावजूद राजनीतिक रैलियों, सभाओं और इन जैसे अन्य भीड़ भरे असुरक्षित आयोजनों की निंदा के लिए उठ रहे हैं। लेकिन इस आपदा में ‘सुनहरा अवसर’ तलाशने की कोशिश करने वालों का कोई क्या करे? वे राजनीतिज्ञ नहीं हैं, फिर भी इस मामले में घाघ राजनीतिज्ञों को भी मात दे रहे हैं। मैं एक परिचित को जानता हूँ। कोरोना की दूसरी लहर के साथ ही उनके भीतर भी खास किस्म की लहर मरोड़ की शक्ल में उठ रही है। उनके निशाने पर खोमचे वाले या इसी तरह के अन्य कम पढ़े-लिखे लोग हैं। वह परिचित ऐसे लोगों से अचानक बहुत ज्यादा घुलने-मिलने लगे हैं।
बातचीत में पहले वे इन लोगों को कोरोना से हो रहे आर्थिक नुकसान के लिए शाब्दिक सांत्वना देते हैं। फिर तुरंत ही यह कह देते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार के चलते कोरोना इस कदर फैल रहा है। यहां तक कि इस तबके के कुछ लोगों को तो वे यह यकीन दिलाने तक में कामयाब हो रहे हैं कि यदि मोदी सत्ता से हटते हैं तो फिर कोरोना तुरंत ही खत्म हो जाएगा। बाकी ऐसे लोग सोशल मीडिया पर घनघोर एंटी-सोशल जैसा व्यवहार कर रहे हैं। उनका एक प्रमुख अस्त्र है। वह यह कि यदि देश में मंदिर की बजाय (ध्यान दें कि ऐसा लिखने वाला लगभग कोई भी हिन्दू ‘मंदिर’ के साथ ‘मस्जिद’ का जिक्र नहीं करता है) अस्पताल बनाये गए होते तो कोरोना से निपटने में आसानी होती। गोया कि अमेरिका सहित ब्रिटैन और इटली में जहां कोरोना ने भारत से कई गुना ज्यादा तांडव मचा रखा है, वहाँ भी हुक्मरानो ने स्वास्थ्य सेवाओं से ज्यादा फिक्र धार्मिक स्थलों को बनाने की ही की है।
मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी कल्याणकारी राज्य में सेहत की फिक्र बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। किन्तु कोरोना का मामला बिगड़ने को साजिशन राम मंदिर निर्माण से जोड़ना सरासर गलत है। क्योंकि इसी मंदिर वाली सरकार ने कोरोना की वैक्सीन बनाने के मामले में विश्व-भर में उल्लेखनीय तेजी तथा कामयाबी हासिल की है। केरल में मंदिरो और मंदिर वालों की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा नहीं है। वामपंथी और उसके प्रभाव में रची-बसी कांग्रेस उस राज्य में धर्मनिरपेक्षता के खांटी कलयुगी स्वरूप को लेकर ही चलती आ रही हैं। लेकिन मंदिर वाले कई राज्यों के मुकाबले केरल में कोरोना ने भारी कहर बरपाया। पकिस्तान तो मंदिरों का देश नहीं है, तो फिर वहाँ की हुकूमत को कोरोना की भारतीय वैक्सीन के लिए क्यों मोहताज होना पड़ रहा है?
दरअसल कोरोना की दूसरी लहर ने उन स्वयंभू प्रगतिशीलों को फिर दिमागी कब्ज ढीली करने का मौका दे दिया है, जो हिन्दू धर्म तथा मान्यताओं को नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं। इस आपदा में भी ऐसे लोगों ने यह अवसर तलाश ही लिया है। उन्हें बीमारी से मर रहे लोगों और उनके परिजनों से कोई सहानुभूति नहीं है, उनकी गिद्ध दृष्टि केवल इस बात पर जमी हुई है कि किस तरह अपने एकतरफा एजेंडे को इस मौके पर भी लागू कर दिया जाए। इस गिरोहबंद कोशिश के सरगना वह हैं, जिन्होंने 1984 के सामूहिक सिख नरसंहार के बाद भी उस समय की सरकार से पद सहित सम्मान खुशी-खुशी हासिल किये थे और जो कालांतर में मोदी सरकार के खिलाफ अवार्ड वापसी गैंग में सक्रिय हो गए थे।
ये सरगना वह भी हैं, जो देश में इस्लामिक आतंकवाद के मसले पर चुप्पी साध लेते हैं और अपने धर्म के अपमान के खिलाफ उठी हिन्दुओं की हरेक आवाज को असहिष्णुता का नाम दे देते हैं। ये वह सरगना भी हैं, जो हिन्दू देवियों का नग्न चित्रण करने वाले सफेद शूकर चित्रकार को अभिव्यक्ति की आजादी का सुरक्षा कवच पहनाते थे और जो तस्लीमा नसरीन या सलमान रुश्दी के पक्ष में एक शब्द भी नहीं बोलते हैं। यह गिरोह गिद्धों के झुण्ड से भी ज्यादा खतरनाक लाशखोर और लकड़बग्घों की टोली से भी अधिक नृशंस है। कोरोना के वायरस का इलाज तो देर-सवेर मिल ही जाएगा, लेकिन ऐसे वायरस का इलाज शायद कभी भी न खोजा जा सके।