नज़रिया

हिंदी सिनेमा का बदलता स्वरूप,रोमांटिक नहीं हकीकत का आईना दिखा रहा सिनेमा जगत

हिंदी सिनेमा में परिवर्तन का दौर देखने को मिल रहा है। पहले फिल्मों को लेकर फैंस की सोच अलग थी। शुरुआती दौर में परिवर्तन की ओर संकेत करती हुई फिल्मों को खास तौर से भावनात्मक फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता था।

नज़रिया : हिंदी सिनेमा में परिवर्तन का दौर देखने को मिल रहा है। पहले फिल्मों को लेकर फैंस की सोच अलग थी। शुरुआती दौर में परिवर्तन की ओर संकेत करती हुई फिल्मों को खास तौर से भावनात्मक फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता था। उसके बाद दौर थोड़ा बदला और फिर उन फिल्मों का प्रसारण किया जाने लगा। जिनमें थोड़ा गुंडाराज या फिर यों कहे कि डाकुओं की प्रवृत्ति को प्रदर्शित किया गया। इसके बाद हिंदी सिनेमा ने पारिवारिक फिल्मों पर फोकस करना शुरू किया, तो वहीं साल 2000 के लगभग रोमांटिक फिल्मों की मांग की जाने लगी। इन सभी दौरों के बाद अब देश में एक अलग तरह की फिल्मों का क्रेज देखने को मिल रहा है। अब उन फिल्मों की डिमांड ज्यादा होने लगी है, जो देश हित से जुड़ी हुई हो और जिनकी वजह से समाज में जागरुकता आती है।

 

ऐसी ही फिल्म हाल ही में रिलीज हुई थी द केरल स्टोरी। हालांकि इन फिल्मों को लेकर निर्माताओं को काफी ज्यादा सावधानी भी बरतनी पड़ती है, क्योंकि उन्हें कई संगठनों से धमकी भी मिलती है और उनकी जान पर खतरा भी मंडराता है। फिल्म द केरल स्टोरी इसका अच्छा उदाहरण है। जिसमें दिखाया गया कि कैसे समुदाय विशेष द्वारा कॉलेजों में घर से बाहर रहकर पढ़ने वाली लड़कियों को बहला फुसलाकर उनसे जबरदस्ती इस्लाम धर्म कबूल कराया जाता है। इतना ही नहीं केरल में सन् 2009 में 32 हजार लड़कियों को कैसे बहला फुसलाकर जबरदस्ती उनसे इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया गया। ये भी दिखाया गया था। पहले द कश्मीर फाइल्स ने समुदाय विशेष द्वारा की गई आतंकी गतिविधियों को दिखाया था। जिसकी वजह से फिल्म को खासे विरोध का सामना करना पड़ा था और अब इसी कड़ी में फिल्म द केरल स्टोरी में भी आतंकी संगठन का जिक्र होने की वजह से उसे भी विरोध का सामना करना पड़ा।

 

हालांकि इस तरह की फिल्मों के प्रदर्शन को रोकने के लिए तमाम दल राजनीति करने से पीछे भी नहीं हटते है। वे इन फिल्मों को प्रोपेगेंडा फिल्म बताते है,जबकि कश्मीर फाइल्स, द केरल स्टोरी और उसके बाद 72 हुरें और अजमेर 92 जैसी फिल्में इन समुदायों की पोल खोलती है। जिसकी वजह से इन्हीं मिर्ची लगती है और यहीं कारण है कि ये लोग विरोध कर फिल्म के बैन की मांग करते है। वहीं राजनीतिक दल अपनी-अपनी चुनावी रोटियां सेंकने के लिए बैन का समर्थन करते है, जबकि इन फिल्मों के माध्यम से दर्शकों को जागरुक किया जाता है और उन्हें उस सच्चाई के करीब तक पहुंचाया जाता है। जिससे वो लाखों मिल दूर थे। ताकि हमारे समाज में जागरुकता आ सके।

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