धर्म

इतना शक्तिशाली है समुद्र मंथन से निकला पाञ्चजन्य शंख

हमारे हिंदू धर्म में शंख का विशेष महत्व है। चाहे पूजा-अर्चना हो या फिर कोई शुभ कार्य का शुभारंभ हो। हम लोग शंख बजाकर ही उस काम की शुरुआत करते है। शंख को खुशहाली, हर्ष, उल्लास, शांति, सुख और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

धर्म डेस्क : हमारे हिंदू धर्म में शंख का विशेष महत्व है। चाहे पूजा-अर्चना हो या फिर कोई शुभ कार्य का शुभारंभ हो। हम लोग शंख बजाकर ही उस काम की शुरुआत करते है। शंख को खुशहाली, हर्ष, उल्लास, शांति, सुख और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। शंखनाद करना शरीर के लिए भी बेहद फायदेमंद होता है। इससे सांस संबंधित बीमारियां नहीं होती है। वेदों पुराणों में तो शंख के कई प्रकार बताए गए है। पुराणों में वर्णित है कि महाभारत के युद्ध के समय युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, अर्जुन के पास देवदत्त, भीम के पास पौंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक और श्रीकृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख थे। आइये जानते हैं श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंख के बारे में रोचक बातें।

पाञ्चजन्य शंख की उत्पत्ति

समुद्र मंथन के दौरान निकले चौदह रत्नों में से छठा रत्न  पाञ्चजन्य शंख था। पाञ्चजन्य शंख का नाद 1000 शेरों की गर्जना के बराबर था। महाभारत के समय श्रीकृष्ण पाञ्चजन्य शंखनाद से ही पांडवों में उत्साह बढ़ाते थे और श्रीकृष्ण के इस शंखनाद से पांडवों में नई ऊर्जा का संचार होता, जबकि कौरव सेना भयभीत हो जाती थी।

पाञ्चजन्य शंख की कहानी
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब श्रीकृष्ण और बलराम की शिक्षा पूरी हो गई थी। तब उनके गुरु सांदिपनी ने श्रीकृष्ण से दक्षिणा में अपने पुत्र पुनर्दत्त की मांग की, जो कि समुद्र में डूब के मर चुका था। श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने गुरू को दक्षिणा में उनका पुत्र लौटने का वादा किया। श्रीकृष्ण और बलराम समुद्र में गुरुजी के पुत्र को ढूंढने गए। जहां श्रीकृष्ण ने समुद्र में शंख में रहने वाले पाञ्चजन्य शंखासुर से पुनर्दत्त को वापस लौटाने को कहा, लेकिन शंखासुर ने श्रीकृष्ण के साथ युद्ध किया और युद्ध में श्रीकृष्ण से हारकर शंखासुर ने बताया कि पुनर्दत्त की आत्मा यमलोक में है।

श्रीकृष्ण को कैसे हुआ प्राप्त

श्रीकृष्ण ने शंखासुर के वध के बाद शंख अपने पास रख लिया। यमलोक में यमराज द्वारा पुनर्दत्त की आत्मा नहीं लौटाने पर क्रोधित श्रीकृष्ण के शंखनाद से पूरे यमलोक को हिला दिया। जिसके बाद श्रीकृष्ण के भय से और यमलोक को बचाने के लिए यमराज ने पुनर्दत की आत्मा को वापस धरती लोक पर, गुरु सांदिपनी के पास भेज दिया। गुरुजी ने खुश होकर श्रीकृष्ण को ही पाञ्चजन्य शंख वापस भेंट कर दिया। तब से ही पाञ्चजन्य शंख श्रीकृष्ण अपने पास रखने लगे।

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