सियासी तर्जुमा

आत्म-रति के ऐसे शिकार राहुल गांधी

पहले तो यह समझ नहीं आता था कि राहुल बोल क्या रहे हैं? अब अवसर पर यह समझना और मुश्किल हो  जाता है कि वह बोल क्यों रहे हैं?

मुझे उस रफूगर की याद आ गयी, जिसकी कहानी आप सब ने भी सुनी ही होगी। उसे किसी गप्पी बादशाह ने अपनी बातें रफू करने के लिए रखा था। एकाध दो गप्पों को तो उसने अपनी रफ़ूगरी से सही साबित कर दिया, लेकिन जब बादशाह ने बहुत ही बड़ी गप पेश कर दी तो रफूगर यह कहते हुए नौकरी छोड़ गया कि वह बातों को रफू कर सकता है, उन पर थिगड़ा लगाना उसे नहीं आता है।
गुजरात में राहुल गांधी की सभा का आज वायरल हुआ वीडियो बिलकुल इसी तरह का है। गांधी की बातों का गुजराती में अनुवाद कर रहा पार्टी वर्कर इस प्रक्रिया में उनके साथ दो या तीन वाक्य तक का ही सफर तय कर सका। इसके बाद उसने माइक और मंच, दोनों ही छोड़ दिए। इससे पहले दक्षिण भारत की किसी सभा में भी अनुवादक को एक स्थिति के बाद राहुल की बातों को समझने के लिए पूरी खामोशी के साथ संघर्ष करना पड़ गया था। ऐसा निरंतर हो रहा है और राहुल किसी राजनीतिक पार्टी के एकलौते ऐसे बहुत बड़े चेहरे हैं, जिनके इस मामले में सर्वाधिक मीम्स बने हों। सोशल मीडिया पर एक क्लिक कीजिए और गांधी के ‘कुछ तो भी बोलने’ वाले ढेर वीडियो आपके सामने आ जाएंगे।
पहले तो यह समझ नहीं आता था कि राहुल बोल क्या रहे हैं? अब अवसर पर यह समझना और मुश्किल हो  जाता है कि वह बोल क्यों रहे हैं? निश्चित ही उनमें राजनीतिक परिपक्वता की घनघोर रूप से कमी है। याद कीजिए, जब गांधी ने देश की अर्थव्यवस्था की तुलना हिन्दुओं की आराध्य देवियों से की थी। इस पर हुई एक टीवी चैनल की डिबेट में कांग्रेस के दमदार वक्ता आचार्य प्रमोद कृष्णम भी राहुल के कहे का बचाव करने से पहले अपने हंसी नहीं रोक सके थे। जिस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में थे, तब राहुल ने एक शोक पुस्तिका में मोबाइल फ़ोन से देखकर श्रद्धांजलि लिखी थी। तब ‘आप की अदालत’ कार्यक्रम में सिंधिया भी वह दृश्य देखकर हंसते हुए किसी तरह राहुल का बचाव करने की कोशिश ही कर सके थे।
समस्या यह है कि कांग्रेस में न तो किसी की रुचि है और न ही साहस, कि राहुल को उनके कहे के लिए टोक सके। गांधारी-सदृश आंचल भी ममता के आगे मौन है। यह यकीन लगातार गाढ़ा होता जाता है कि राहुल को ऐसा करने से न रोकने वालों की मंशा ही यह है कि वह पूरी तरह एक्सपोज हो जाएं। वरना तो यह मुमकिन ही नहीं है कि कोई चुपचाप अपने प्रिय नेता की ऐसी भद नियमित रूप से पिटते देखता रहे। इससे भी बड़ी समस्या वह चाटूकार हैं, जो गांधी के हर कहे को पार्टी कार्यालय या उसके किसी कार्यक्रम में ‘ब्रह्म सत्य’ जैसा आडम्बर-युक्त स्थान प्रदान कर देते हैं। फिर सबसे बड़ी समस्या यह नजर आती है कि खुद राहुल इस मामले में किसी आत्म-रति के शिकार हैं। निपट बचपने की बात करते हुए भी उनके चेहरे पर जो आत्मविश्वास तैरता है और आवाज में जो दमदारी होती है, वह यही बताती है कि उन्हें खुद से दुश्मनी निकालने में भी आनंद आने लगा है।

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