तस्वीर का तो अपना-अपना किस्सा है
बतौर कांग्रेस नेता बेग ने अपनी पहली पत्रकार वार्ता में कहा था, "अब मैंने राम वाली राजनीति छोड़कर कृष्ण की राजनीति अपना ली है।" दीपक ने भी इसी तरह के परिवर्तन के बाद मीडिया से प्रथम संवाद में इच्छा जताई है कि वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहेंगे।
भोपाल : दीपक जोशी अपने दिवंगत पिता कैलाश जोशी की तस्वीर के साथ नयी तकदीर की तलाश में कांग्रेस में आ चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी में वह लंबे समय से अपने लिए गुम हो चुकी संभावनाओं को टटोलते हुए नाउम्मीद हो गए थे। संभव है कि उन्हें यह संकेत मिल गया हो कि इस साल के विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट मिल पाना मुश्किल है। लिहाजा उन्होंने कांग्रेस का रुख कर लिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया की झटकेदार बगावत और उसके बाद पतझड़ के पत्तों की तरह पंजे से फिसलकर कमल की पंखुड़ियों में समा जाने वाले कई नेताओं की कसमसाहट से भरी कांग्रेस के लिए यह यकीनन खुश होने का अवसर है। इसीलिए पार्टी ने “बहारों फूल बरसाओ…” वाली शैली में दिल खोलकर जोशी का स्वागत किया। अपने अब तक के सियासी जीवन में प्रदेश में मंत्री पद तक पहुंचे जोशी के लिए राज्य के प्रमुख विपक्षी दल ने जिस तरह पलक-पांवड़े बिछाए, इतना जोश तो उसने तब भी नहीं दिखाया था, जब पूर्व केंद्रीय मंत्री और जोशी के मुकाबले भाजपा के बेहद वरिष्ठ नेता आरिफ बेग ने अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था।
बतौर कांग्रेस नेता बेग ने अपनी पहली पत्रकार वार्ता में कहा था, “अब मैंने राम वाली राजनीति छोड़कर कृष्ण की राजनीति अपना ली है।” दीपक ने भी इसी तरह के परिवर्तन के बाद मीडिया से प्रथम संवाद में इच्छा जताई है कि वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहेंगे। वाकई यह साहस की बात है। इस के पीछे दो तथ्य हो सकते हैं। जब यह तय हो चला था कि जोशी पार्टी छोड़ देंगे, तब उन्हें मनाने की कोशिश करने वालों में शिवराज भी शामिल थे। जाहिर है कि भाजपा नहीं चाहती थी कि कैलाश जोशी जैसे आजन्म राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जनसंघ, जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के निष्ठावान सिपाही का बेटा उस दल में जाए, जिसके विरुद्ध उन्होंने आजन्म संघर्ष किया था। हो सकता है कि शिवराज के मनाने वाले भावों में दीपक जोशी को कुछ “कमजोरी” वाली झलक दिख गयी होगी और कांग्रेस के अपने प्रति उतावलेपन में उन्हें स्वयं तथा शिवराज की ताकत के बीच का अंतर मिटता नजर आने लगा होगा। शायद इसी वजह से जोशी को लगा होगा कि वह अब शिवराज का मुकाबला करने में समर्थ हो चुके हैं।
संभव तो यह भी है कि जोशी को राजनीतिक किस्म का बोधिसत्व हो गया है। वह यह कि हाटपिपल्या में वर्ष 2018 में साढ़े अठारह हजार वोट से अधिक अंतर वाली हार के बाद उस जगह पर उनके लिए अधिक संभावनाएं शेष नहीं रही हैं। ऐसे में बेहतर यही होगा कि स्वयं को शिवराज के मुकाबले लाकर शहीद होने का खिताब ही हासिल कर लिया जाए। बात शिवराज को अविजित घोषित करने या जोशी को कमजोर दिखाने की नहीं है। बात यह कि मामला जिस बुधनी सीट का है, वहां बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव शिवराज के मुकाबले करीब 59 हजार वोट के भारी अंतर से हारे थे। कमलनाथ ने ऐसा ही प्रयोग भोपाल लोकसभा सीट पर भी किया था। नतीजे में उनकी पार्टी के बेहद अनुभवी नेता दिग्विजय सिंह राजनीति के क्षेत्र में अपने से घनघोर श्रेणी की जूनियर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर से तीन लाख 64 हजार से अधिक मतों से परास्त हुए थे। ऐसे में यह प्रतीत होता है कि दीपक जोशी ने कमलनाथ के अगले ऐसे प्रयोग के लिए अभी से स्वयं को प्रस्तुत कर दिया है। बाकी और कुछ हो न हो, लेकिन ऐसा कर जोशी को नाथ की गुड बुक में जगह पाने का अवसर तो मिल ही गया है।
खैर, दीपक जोशी को उनके भविष्य के लिए शुभकामनाएं। तो तस्वीर का एक और रोचक वाकया है। जगदीश शेट्टार फिलहाल कर्नाटक में कांग्रेस की राजनीतिक आशाओं के प्रमुख केंद्रों में से एक हैं। जोशी से कुछ समय पहले ही इस पूर्व मुख्यमंत्री ने भी भाजपा को छोड़कर कांग्रेस से हाथ मिला लिया है। हाल ही में एक न्यूज एजेंसी का प्रतिनिधि शेट्टार का साक्षात्कार लेने उनके दफ्तर पहुंचा। उसने पाया कि वहां आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की तस्वीरें लगी हुई हैं। इस बारे में पूछने पर शेट्टार ने कहा कि वह मोदी और शाह का अब भी सम्मान करते हैं और उन तस्वीरों को हटाने की कोई वजह उन्हें महसूस नहीं होती है। वैसे इस दक्षिणी राज्य में तस्वीर और मूर्ति के मामले में घना घमासान छिड़ गया है। कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के संकेत देकर भाजपा को सुनहरा अवसर प्रदान कर दिया । मामले को सीधे बजरंगबली से जोड़कर कांग्रेस को एक बार फिर तुष्टिकरण के आरोप में घेरने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। ख़ास बात यह कि कांग्रेस ने प्रतिबंध वाली बात कहते समय बजरंग दल और पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफआई) को एक ही तराजू में रखकर तौल दिया। बजरंगदल और पीएफआई के विवादित होने के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। ऐसे में यह गलती पार्टी को शायद भारी पड़ जाए। यूं ही उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे अपने इस गृह राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कथित रूप से “जहरीला सांप” बोल चुके हैं। खरगे के बेटे प्रियांक ने भी प्रधानमंत्री को “नालायक” बोल दिया। हालिया वर्षों में अधिकांश मौकों पर दो बातें निर्विवाद रूप से सही साबित हुई हैं। पहली, कांग्रेस ने मोदी के विरुद्ध जितने ‘हल्के’ संबोधन का प्रयोग किया है, उसका उसे उतना ही भारी तरीके से नुकसान उठाना पड़ा है। दूसरी, तुष्टिकरण के फेर में अब कांग्रेस इसकी प्रतिक्रिया में हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की शिकार हो चुकी है। इसके बाद भी खरगे पिता-पुत्र के बयान और पीएफआई से बजरंगदल की तुलना के चलते यह पता लगाने की इच्छा होने लगी है कि क्या इस राज्य के चुनाव का संचालन भी कांग्रेस के वही शुभचिंतक कर रहे थे, जो अपने ऐसे ही आचरण के चलते अपनी सलाहों से राहुल गांधी को जेल के मुहाने तक पहुंचा चुके हैं?
इधर वो तस्वीरें कहीं पीछे छूट गयी हैं, जो राहुल के खिलाफ गुजरात की अदालत के फैसले के बाद सोशल मीडिया पर दिख रही थीं। जिनमें लोग राहुल को अपने-अपने घर में रहने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। कांग्रेस ने ऐसी तस्वीरों के चलते दावा किया कि उनके नेता को संसद और सरकारी मकान से निकाला जा सकता है, लेकिन लोगों के दिलों से उन्हें बाहर किया जाना असंभव है। फिर हुआ यह कि सरकारी ठिकाना छोड़कर माँ सोनिया गाँधी के निवास में जाने के बाद राहुल के लिए ” ये मेरा घर, है तेरा घर” वाली पुकार मंद होती जा रही हैं। खैर, कई बार ऐसा होता है कि कोई कथन या कदम हैरतअंगेज रूप से भविष्य से जुड़ जाता है। अब देखिए ना, इसी साल फरवरी में राहुल ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बेहद भावनात्मक भाषण दिया था। जिसमें वह बोले कि आज तक उनके पास खुद का कोई मकान भी नहीं है। और कम्बख्त यही वाक्य कुछ इस रूप में अब सामने आया है कि राहुल के पास जो सरकारी मकान था, वह भी उनके हाथ से जा चुका है। और चूंकि साढ़े पंद्रह करोड़ से अधिक की संपत्ति के मालिक होने के बावजूद राहुल के पास खुद का एक अदद मकान तक नहीं है, तो फिर उनके पास माँ के साथ रहने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं बचा रहा होगा। हो सकता है कि यह गांधी की मितव्ययता का उदाहरण हो। वरना वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के हलफनामे में तो राहुल ने अपने पास 15. 88 करोड़ की संपत्ति होने की स्वयं ही जानकारी दी थी। ऐसा भी नहीं कि यह संपत्ति “जस की तस धर दीनी चदरिया” वाली शैली की हो। क्योंकि वर्ष 2014 का हलफनामा देखें तो पता चलता है कि उस समय उनके पास केवल 9. 4 करोड़ की प्रॉपर्टी ही थी। इतनी संपत्ति से “बैचलर होम” वाला सिर छुपाने का इंतज़ाम तो किया जा सकता था, लेकिन गांधी ने ऐसा क्यों नहीं किया, यह वह ही बेहतर जानते होंगे। हो सकता है कि कांग्रेस के लिए अपनी चिंता और चिंतन के चलते गांधी को खुद के बारे में ये सब सोचने का समय न मिल पाया हो। यदि यह अनुमान सही है तो फिर दुःख केवल इस बात का है कि इतना सब करने के बाद भी गांधी के खाते में कांग्रेस को तीस से अधिक शर्मनाक पराजय से न बचा पाने का आंकड़ा दर्ज हो गया। वह न कांग्रेस की तस्वीर बदल पा रहे हैं और न ही तकदीर। तकदीर तो खैर मतदाता के हाथ में है। जहां तक तस्वीर की बात है तो आज की कांग्रेस का फ्रेम ही इतना छोटा कर दिया गया है कि उसमें गांधी-नेहरू परिवार के अलावा किसी और की तस्वीर के लिए जगह की गुंजाइश ही नहीं बची है। ऐसे में दीपक जोशी वाकई सौभाग्यशाली हैं कि मध्यप्रदेश कांग्रेस में उनके विशुध्द भाजपाई पिता की तस्वीर को भी सादर स्थान प्रदान कर दिया गया।
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