नज़रिया

ऐसे वायरस ही रहते हैं वर्ण संकर प्रजाति के मूल में

आप बेशक अपनी पैदाइश की संदिग्धता के चलते आतंकवाद का समर्थन करें। पीड़ित पक्ष को लांछित करें। आपकी परवरिश और संस्कार निश्चित ही आपको ऐसा करने की अनुमति देते होंगे। लेकिन इस बात की अनुमति तो कश्मीरी पंडितों की भी दी जाना चाहिए कि वह अपने हाल पर दो आंसू बहा सकें।

इजराइल की वेब सीरीज ‘फौदा’ देखते समय एक ज्ञात तथ्य को बेहद जीवंत अंदाज में महसूस किया जा सकता है। वह यह कि किस तरह वहां के ज्यादातर लोगों में आज भी देश के लिए मर जाने और देश के लिए मार देने का जज़्बा कायम है। फिल्म के इजरायली और फिलिस्तीनी चरित्र अपने-अपने वतन के लिए प्यार तथा एक-दूसरे के लिए जानलेवा दुश्मनी पर अंत तक कायम रहते हैं। क्योंकि दोनों ही जगह रहने वालों के भीतर अपने-अपने साथ किए गए गलत की आग सुलग रही है। तब ही तो असल जिंदगी में भी ऐसा होता है कि फिलिस्तीन से सुलह का प्रयास करने वाले तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री इज्तियाक रॉबिन अपने ही देश के बाशिंदे के हाथ मारे जाते हैं। कहा जाता है कि रॉबिन का हत्यारा यिगल आमिर दक्षिणपंथी समूह का हिस्सा था। उस समय वह केवल 25 साल का था, जब अपनी विचारधारा के लिए उसने जिंदगी का सबसे बड़ा अपराध कर दिया। बहुत कुछ वैसे ही, जैसे यिगल वाली उम्र में ही कोई शेर सिंह राणा ने फूलन देवी की जान ले ले लेता है। क्योंकि वह बेहमई में अपने समुदाय के 22 लोगों की कथित रूप से फूलन के द्वारा की गयी हत्या के लिए गुस्से से भरा हुआ है।
गनीमत है कि कश्मीर में ऐसा नहीं हुआ। नब्बे के दशक में आतंकवादियों ने वहां रह रहे सैंकड़ों कश्मीरी पंडितों की जान ले ली। लाखों को रातों-रात अपना घर और सारा सामान छोड़कर जाने के लिए विवश कर दिया। इस वर्ग की मासूम बच्चियों से लेकर हर आयु की स्त्री नारकीय अत्याचारों की शिकार हुई। जो जिंदा बचीं, उन्हें भी इसके लिए अपने जिस्म और आत्मा पर बलात्कार के असंख्य निशान लगवाना पड़े। फिर उनके पास यही विकल्प शेष रखा गया कि जिंदा लाश वाली बची-खुची जिंदगी के लिए भी अपनी मूल पहचान, यानी धर्म को सदा के लिए त्याग दें। ऐसा सब हुआ। इस सबसे भयानक अंदाज में भी हुआ। कश्मीर के साधन-संपन्न ये पंडित अपने ही देश में रिफ्यूजी की तरफ दीन-हीन दशा में रहने को मजबूर कर दिए गए। ज़र, जोरू और जमीन को विवाद की जड़ बताया जाता है, लेकिन कश्मीर के इन हिंदुओं के लिए उनकी यह ज़र, जोरू और ज़मीन जीवन भर के विषाद की जड़ बन गए। सब पर आतंकवादी मंसूबों ने कब्जा कर लिया।
ऐसा हुआ। हुआ यह भी कि कई दशकों तक इन पंडितों की सुध नहीं ली गयी। लेकिन इनमें से एक भी ‘फौदा’ जैसा रील या यिगल अथवा शेर सिंह जैसा रियल जीवन का खलनायक नहीं बना। एक भी। वे अपनी ही राख से नवजीवन की स्थापना के प्रयास में लगे  रहे।एक शेर ठीक-ठीक याद नहीं आता। उसका भाव था कि किसी सूखी आंख को आंसुओं से खाली न समझें। मुमकिन है कि ‘इसी सहरा के पीछे एक दरिया भी छुपा होगा।’ यही दरिया बीते साल फट पड़ा। कश्मीरी पंडितों की सूखी दिख रही आंखों के पीछे से  इतने आंसू बह निकले कि उन्हें समाने के लिए झेलम और चेनाब का विस्तार भी कम जान पड़ने लगा। ऐसा इसलिए हुआ कि कि ‘दि कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने उनके दर्द को पहली बार बहुत बड़े स्तर पर स्वर प्रदान किए। उनकी अब तक की घुटी-घुटी चीखों को चीत्कार के रूप सामने आने का अवसर दिया। फाइल्स खुलीं, तो कश्मीरी पंडितों के वह जख्म भी खुल गए, जो नासूर बन चुके थे। लेकिन कमाल की बात है कि एक भी नासूर वाला इसकी प्रतिक्रिया में किसी असुर की तरह नजर नहीं आया। न वह देश की नजर में आतंकवादी बना और न ही मानसिकता-विशेष के द्वारा कूटरचित शब्द ‘गुमराह नौजवान’ की श्रेणी में आने वाले काम उसने किए।
(नादव लापिड)
ताज्जुब है कि अशांत हालात के बीच भी शांत जीवन जीने वालों के ये आंसू बर्दाश्त नहीं हो पा रहे हैं!  इजरायली फिल्म निर्माता नादव लापिड ज्यों ही ‘दि कश्मीर फाइल्स’ को ‘अश्लील प्रचार’ कहते हैं, त्यों ही कश्मीरी पंडितों वाले देश में ही एक तबके के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है। निरीह कश्मीरी पंडित परिवारों के आंसुओं के जवाब में तेजाबी कथन दोहराए जाने लगते हैं। क्योंकि दर्द बहुसंख्यक समुदाय का है, इसलिए उसकी अभिव्यक्ति वाली फिल्म को भाजपा से जोड़ दिया जाता है। आप बेशक अपनी पैदाइश की संदिग्धता के चलते आतंकवाद का समर्थन करें। पीड़ित पक्ष को लांछित करें। आपकी परवरिश और संस्कार निश्चित ही आपको ऐसा करने की अनुमति देते होंगे। लेकिन इस बात की अनुमति तो कश्मीरी पंडितों की भी दी जाना चाहिए कि वह अपने हाल पर दो आंसू बहा सकें। जो इस देश के होने के बावजूद कभी भी कश्मीरी पंडितों के हक में तख्ती लेकर कैमरे के सामने खड़े नहीं हुए, वो आज लापिड को अपने हृदय के तख़्त पर बिठाकर मुग्ध हुए जा रहे हैं। शायद वर्ण संकर प्रजाति के मूल में ऐसे वायरस ही रहते हैं।
लापिड का भारत के लिए इतना ज्ञान नहीं हो सकता कि वह कश्मीर को पूरी तरह समझ सकें। वह शायद ट्विटर के तत्कालीन सीईओ जैक डॉर्सी की तरह किसी टूल किट के टूल बन गए। डॉर्सी को चार साल पहले भारत आगमन पर सामाजिक समरसता का घोर अपमान करने वाला पोस्टर थमा दिया गया था। ऐसा इस देश के लोगों ने ही किया था और ऐसा ही लापिड को लेकर किया जा रहा लगता है। हैरत है कि ये बात उस लापिड ने कही है, जिनके पूर्वजों को यहूदी होने के चलते नारकीय यातनाएं झेलना पड़ी थीं। कश्मीर में यदि पंडित होना लाखों परिवारों का अभिशाप बना तो द्वितीय विश्व युद्ध की वेला में लापिड के पुरखों को यहूदी होने के चलते ऐसा ही अनाचार सहन करना पड़ा। इजरायली फिल्मकार ने यकीनन अपने अभिभावकों से यह सब सुना होगा। शायद उस दर्द को कभी महसूस भी किया होगा। कहते हैं कि घायल ही घायल की गति जानता है। लेकिन लापिड शायद इसके अपवाद हैं। और उनके समर्थन में उछले जा रहे तथाकथित भारतीयों के लिए जो कहा जाना चाहिए, संस्कार उसे कहने की अनुमति नहीं दे रहे हैं।

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