अपने स्थापना दिवस से लेकर अब तक मध्यप्रदेश के किसी भी चुनाव में इतना विषवमन नहीं हुआ, जितना 28 सीटों के मामले में देखने मिला है। मयार्दाएं तोड़ने की तो जैसे इस दौरान होड़ मची रही। न कोई राजनीतिक दल इसमें पीछे रहा और न ही इन पार्टियों के दिग्गज भी खुद को इस कीचड़ वाले युद्ध से अलग रख सके। हर तरफ 'दाग अच्छे हैं' जैसा दागदार माहौल बनाया और उसे कायम रखा गया। 'कमीना' और 'आयटम' की गूंज ने एकबारगी इस भय से भी कांपने पर मजबूर कर दिया कि राज्य का चुनावी माहौल बिहार, उत्तरप्रदेश या पश्चिम बंगाल जैसा होता जा रहा है।
कुछ मौकों पर पवई और एक अवसर पर भोपाल उत्तर भी, इन विधानसभा चुनावों में प्रदेश में अधिक आशंकाओं वाला मामला था। पवई में एक समय 'मोहर लगाओ हाथी पर-वरना गोली लगेगी छाती पर' वाला माहौल था और भोपाल उत्तर में 'मोहर लगाओ मछली पर' की धमकी की खासी चर्चा थी। लेकिन ये दोनों ही चुनाव व्यापक रूप से राज्य के माहौल को इतना प्रदूषित नहीं कर सके थे, जितना इस बार होता दिख गया। एक विवेचना बहुत जरूरी है।
वह यह कि कहीं मीडिया के जरूरत से ज्यादा एक्टिव होने की वजह से तो ऐसा नहीं हुआ! समाचार के रूप में जो छापा और दिखाया गया, उसमें मुद्दों से जुड़ी बातें विधवा की मांग में सिंदूर जितनी हैसियत भी नहीं रखती थीं। किस नेता ने किसे क्या अपमानजनक बोला, किस पार्टी ने दूसरी पर अशालीन रूप से टिप्पणी की, इसे मीडिया 'ग्लोरिफाई' करके ही दिखाता रहा। मैंने कई हमपेशाओं को देखा। इस चुनाव के बीच वे उन हर दिनों में मायूस दिखे, जिस दिन नेताओं का कोई अमर्यादित आचरण सामने न आया हो। मीडियाकर्मी उन दिनों मुद्दों पर बता करने के भार से परेशान साफ देखे जा सकते थे।
यही हमारे बीच का वह वर्ग है, जिसने राजनीतिज्ञों के उच्छंखृल व्यवहार को चटखारेदार खबर के लिए आसमान प्रदान किया। और वह जनता भी इस की दोषी है, जिसने किसी सभा या अन्य मौके पर सामने आये बेहद भौंडे आचरण पर ऐतराज जताने की बजाय ठहाके या ताली के जरिए अपने मूकदर्शक होने का परिचय दे दिया।
बुराई के प्रसार में समय नहीं लगता है। इसलिए पूरी आशंका के साथ ये कामना भी की जा रही है कि जो हुआ, वह अब और फिर कभी न हो। राज्य की सियायत में शांति के टापू की जो शीतलता हमेशा प्रमुखता से रही, वह कायम रहेगी। नेतागण अपने व्यवहार की खुद समीक्षा कर यह संकल्प लेंगे कि अब ऐसा फिर नहीं करेंगे। सनसनी पसंद मीडिया भी तय करे कि वह ऐसे आचरण को बढ़ावा नहीं देगा। यकीन मानिए कि लोकतंत्र की सेहत के लिए यह सब होना बहुत जरूरी है। वरना चुनाव दर चुनाव मूल्यों का ऐसा ही पतन होता रहेगा और हम इसी भ्रम में जीते रहेंगे कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के हिस्से हैं।