शख्सियत

बलिदान मुख़र्जी, नाकाम हम 

आज से ठीक सड़सठ साल पहले की सुबह जम्मू-कश्मीर (Jammu & kashmir) में रोजमर्रा की तरह ही सामान्य थी, लेकिन तब तक एक सितारा हमेशा के लिए अस्त हो चुका था। तेईस जून, उन्नीस सौ तिरपन की पौ फटने से कुछ देर पहले दो बजकर पच्चीस मिनट पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyamaprasad Mukherji) ने अंतिम सांस ली। कहने को तो मुख़र्जी मानवीय जीवन के अंतिम सत्य में समा गए, लेकिन ऐसा होने के कारणों के सच पर से आज तक पर्दा नहीं उठाया जा सका है। या, यूं भी कहा जा सकता है कि  पर्दा उठने ही नहीं दिया गया है।

देश को जनसंघ (Jansangh) के रूप में कांग्रेस (Congress) का शक्तिशाली विकल्प देने वाले मुख़र्जी की मौत की वजह आज भी रहस्य में है। उस समय की कई घटनाओं को याद रखकर बात की जाए तो साफ़ लगता है कि  उनका यह अंत स्वाभाविक नहीं था, बल्कि इसे पूरी योजना बनाकर अंजाम दिया गया। इसमें उस समय के दो बहुत ताकतवर चेहरों की तरफ शक की सुई घूमती है। पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु (Jawahar Lal Nehru) और दूसरे, जम्मू-कश्मीर के उस समय के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला (Shekh Abdullah) । ये तीनों आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन संयोगों का एक त्रिकोण इन्हें एक-दुसरे के आसपास रखता है। मामला उस कॉमन फैक्टर का है, जिसे तब कश्मीर का मुद्दा कहा जाता था। नेहरू कश्मीर को और स्वायत्तता यानी ऑटोनोमी (Autonomy) देने के हिमायती थे। इसकी वजह शेख अब्दुल्लाह से उनकी नजदीकी तो थी ही, साथ ही ऐसा कर वे मुस्लिमों को कांग्रेस से खुश रखने की  कोशिश भी कर रहे थे।  इसलिए जब मुख़र्जी ने स्वायत्ता के प्रस्ताव का विरोध किया तो नेहरू उनसे नाराज हो गए। जाहिर-सी बात है कि  श्यामाप्रसाद के इस रुख से शेख अब्दुल्लाह को भी अपने राजनीतिक हितों के लिए खतरा महसूस हुआ।

गतिरोध  इतना बढ़ा कि  मुख़र्जी ने नेहरू सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) की मदद से जनसंघ की स्थापना कर दी। इसका उस समय का सबसे बड़ा एजेंडा नेहरू की कश्मीर नीति (Kashmir policy of Nehru) का विरोध करना था। फिर वह दिन भी आया, जब घाटी के भीतर ही अपनी बात रखने की गरज से मुखर्जी ने वहाँ जाने का एलान कर दिया। यह नेहरू और अब्दुल्लाह, दोनों के लिए ही किसी जंग से कम गंभीर किस्म वाली सिचुएशन नहीं थी। इसलिए दोनों ने अलग-अलग तरीके से मुख़र्जी के खिलाफ मोर्चे तैयार कर लिए। इसका मिला-जुला असर यह हुआ कि  11  मई, 1953 को श्रीनगर (Srinagar) पहुँचते ही अब्दुल्लाह के कहने पर मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया।

1953  की 11  मई को कोई महत्वपूर्ण तारीख  समझने की  गलती नहीं करनी चाहिए। उस दिन तो मुख़र्जी की महज गिरफ्तारी की गयी। असली महत्त्व तो इसके पहली की कुछ अज्ञात तारीखों का है।  वो तारीखें, जिनमें मुख़र्जी की गिरफ्तारी की बात तय की गयी। जिनमें यह  फैसला लिया गया कि  जनसंघ के इस नेता को श्रीनगर की  सेन्ट्रल जेल की बजाय उस शहर से बने कॉटेज में रखा जाएगा। बहुत गहरे अर्थ वाले हैं कैलेंडर मे छपे वह अंक, जिनमें तय हुआ कि  गिरफ्तारी के बाद गंभीर रूप से बीमार हुए मुख़र्जी का इलाज उनके अपने डॉक्टर की बजाय जम्मू कश्मीर के डॉक्टर अली मोहम्मद करेंगे। काफी बूझने लायक हैं काल की गणना करने वाले वह हिस्से, जिनमें यह निर्धारित हो गया कि  मुख़र्जी की बहुत ज्यादा खराब तबियत के बावजूद बाईस से 23  जून की दरमियानी रात के लिए उनके पास केवल एक नर्स को रखा जाएगा। और बहुत गहरा कुहासा छाया हुआ है, समय के उस चक्र पर, जब डॉक्टर अली मोहम्मद  ने बुखार और पीठ दर्द से बेहाल मुख़र्जी को स्ट्रेप्टोमाइसिन (Streptomycin) का इंजेक्शन दिया था।  मुख़र्जी के फॅमिली डॉक्टर पहले ही बता चुके थे कि स्ट्रेप्टोमाइसिन का इंजेक्शन उनके शरीर को सूट नहीं करता है।मुख़र्जी ने डॉक्टर अली से भी यही बात कही, लेकिन अली ने इसे अनसुना कर दिया।

ज्ञात और अज्ञात तारीखों के ये घटनाक्रम पूरी तरह से तयशुदा नज़र आते हैं। जिनके मिले-जुले नतीजे के रूप में हुआ यह कि  मुख़र्जी ने अंततः गिरफ्तारी वाली  हालत में ही आख़िरी सांस ली।  मुखर्जी की गिरफ्तारी  के लिए शेख अब्दुल्लाह सख्त रहे। उन्हें सूट  न करने वाला इंजेक्शन देने के लिए डॉक्टर अली मोहम्मद भी कठोर दिखे। मुखर्जी की बहुत नाजुक हालत के बावजूद उनकी तीमारदारी के लिए केवल एक नर्स  की जिम्मेदारी तय करने वाला भी वास्तव में विचित्र किस्म का जिद्दी ही रहा होगा। यक़ीनन यह सारा घटनाचक्र वह खेल था, जिसके असली तार जम्मू-कश्मीर से लेकर नई दिल्ली (New Delhi) तक के बीच कई प्रभावशाली मुट्ठियों के भीतर समाये हुए थे। हैरत की बात यह कि  उन मुट्ठियों का बंद मुंह आज तक नहीं खोला जा सका है। यानी अब तक यह बात रहस्य है कि  वाकई मुख़र्जी ने सांसों का साथ छोड़ा था या फिर साँसों से उनको कोशिश करके  हमेशा के लिए जुदा  कर दिया गया। मृत्यु को स्वाभाविक या अस्वाभाविक बताने के बीच केवल एक शब्द ‘अ’ का फर्क होता है। यह एक लफ्ज़ न जाने कब पहाड़ जितना इतना बड़ा हो गया कि इसके पीछे छिपे या छिपाये गए सच का हम आज भी साक्षात्कार नहीं कर पाए हैं।

इस 23 जून को मुख़र्जी की याद का कुछ हर्ष तो कुछ विषाद के साथ दिमाग में हलचल मचाना अजीब नहीं लग रहा है। खुशी इस बात की कि  उनकी सड़सठवीं पुण्य तिथि ऐसे समय आ रही है, जब बीते साल अगस्त में ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को आर्टिकल 370 (Article 370) की बेड़ियों से मुक्त कर दिया है। अब यह केंद्र शासित राज्य के तौर पर वह स्वरुप ले चुका है, जिसका सपना और जिद लिए ही मुख़र्जी इस दुनिया से विदा हो गए थे। आमतौर पर नारेबाजी मे यक़ीन नहीं रखा जाता। उनके भीतर खोखलापन ही दिखता है।मुख़र्जी को लेकर भी कई दशकों तक नारा गूंजा। उन्हें पसंद करने वालों ने कहा, ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है।’ संयोग से शेष देश की जनता के लिए अब यह नारा सार्थक रूप में सामने आ गया है. क्योंकि जिस अनुच्छेद के जरिये एक ही देश के भीतर होने के बावजूद कश्मीर के लिए ‘हमारा-तुम्हारा’ वाला शर्मनाक भाव जीवित था, उसी देश में कश्मीर अब ‘हर भारतीय का’ बन चुका है। इस बेहद साहसिक फैसले के लिए मोदी सरकार सचमुच आग से खेल गयी, लेकिन यह याद रखना होगा कि  इस आग से अलग एक ऐसी चिंगारी को मुख़र्जी ने ही पैदा किया था, जो अंततः देश के लोकतंत्र के मंदिर में आरती की पवित्र अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित होकर भारत माता की आराधना कर  रही है।

लम्बे संघर्ष और इन्तजार के बाद कश्मीर में तो लोकतंत्र का सूर्य उग गया है, लेकिन उन अंधेरों को  रोशनी कब नसीब होगी, जिनमें मुख़र्जी की मृत्यु के कारणों का सच छिपा हुआ है? दुर्भाग्य से इस दिशा में अब तक हुई सभी कोशिशें असफल रही हैं। पता नहीं कि  कितनी पीढ़ियां कई सवालों के असहनीय बोझ को ढोने  के लिए अभिशप्त रहेंगी। 1953 की उस अंधेरी सुबह से लेकर आज तक कई प्रश्न अनुत्तरित हैं। कोई नहीं  बताता है कि  मुखर्जी को जेल से ट्रांसफर क्यों किया गया और उन्हें एक कॉटेज में क्यों रखा गया? किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है  डॉ. अली ने यह जानने के बावजूद कि मुखर्जी को स्ट्रेप्टोमाइसिन सूट नहीं करती, वो दवा क्यों दी? यह उत्तर भी नहीं मिल पाता  है की एक महीने से ज़्यादा वक्त तक मुखर्जी को सही और समय पर इलाज क्यों नहीं दिया गया? चौथा ये कि उनकी देखभाल में सिर्फ एक ही नर्स क्यों थी, वह भी रात के वक्त जब मुखर्जी की हालत गंभीर थी? ये सवाल भी था कि मौत का समय अलग अलग क्यों बताया गया? इस दिशा मे कई कोशिशें की गयीं। कई नेताओं और समाज व सियासत से जुड़े कई समूहों ने मुखर्जी की मौत की निष्पक्ष जांच कराए जाने की मांग की थी।

मुखर्जी की मां जोगमाया देवी (Jogmaya Devi) ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को इस मांग संबंधी चिट्ठी  लिखी. लेकिन, इन सभी मांगों के जवाब में नेहरू ने यही कहा कि उन्होंने मुखर्जी की देखभाल में रहे कई लोगों से तथ्य जुटाए हैं, और इन सबके आधार पर मुखर्जी की मौत कुदरती थी, कोई रहस्य नहीं कि जांच करवाई जाए।  नेहरू के ये कह देने के बावजूद डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत संदिग्ध बनकर रह गई। आज़ादी के समय से देश के इतिहास में जिन तीन नेताओं की मौत पहेलियां बनकर रह गईं, उनमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस, पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का नाम शामिल हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी कश्मीर की गुलामी के  खिलाफ लड़े। उस दिशा में निर्णायक माहौल का निर्माण करने की शुरूआत का महत्वपूर्ण काम उन्होंने किया। अब  कश्मीर भी उनकी आशाओं के  अनुरूप नए रूप में सामने आ चुका है. लेकिन उनके मृत्यु हुई या ह्त्या, इसका जवाब आज तक नहीं मिल  सका है. एक मकसद के संवाहक बने  हों या हों मुखर्जी, ऐसा  क्यों है कि  उनका अंत आज भी अनंत पीड़ाओं के साथ हमारे लिए एक पहेली बना  हुआ है।

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