नज़रिया

इस नपुंसकता को श्रद्धापूर्ण नमन

ये ‘हुर्रे’ कहकर अपार सफलता का जश्न मनाने का समय है। व्यवस्था के चाक-चौबंद होने की विरुदावली गाने की मंगल बेला है। झारखण्ड (Jharkhand) में वह ऑटो पकड़ लिया गया है, जिसके द्वारा मारी गयी टक्कर से वहां के एक धाकड़ किस्म के जज की जान ले ली गयी। ज़रा रुकिए। अभी तो इससे बड़ी कामयाबी का शुभ समाचार बाकी है। वह यह कि राज्य की पुलिस ने पूरी मुस्तैदी का परिचय देते हुए मामले के तीन आरोपियों को भी पकड़ लिया है। उफ़! प्रसन्नता जताने का आपका उतावलापन इस और बड़े पराक्रम वाले समाचार के रास्ते में बाधा बन रहा है कि पुलिस ने विशेष जांच दल (एसआईटी) (Special Investigation Team) (SIT) को यह मामला सौंप दिया है।

धनबाद के जिला जज उत्तम आनंद (Uttam Anand, District Judge, Dhanbad) की मृत्यु के बाद के ये घटनाक्रम हृदय और मस्तिष्क को कसैलेपन से भर दे रहे हैं। खाली सड़क पर एक ऑटो किनारे से चल रहे जज की तरफ मुड़ता है। उन्हें टक्कर मारता है। फिर उस सड़क के बीच में पुनः आकर वो दौड़ता चला जाता है। हम विषैली विवशता से जकड़े हुए हैं। इतना सब देखने के बाद भी इसे ‘संदिग्ध’ मौत कहना हमारी सिस्टम-जनित मजबूरी है। भला हम कौन होते हैं जो इसे हत्या कह दें! इसके लिए तो हमें उस एसआईटी के रहमो-करम पर ही यकीन करना होगा। वह जांच दल, जो उस सरकार का ही हुकुम बजाता है, जिस सरकार की इस संदिग्ध मौत के हत्या साबित हो जाने से भद पिट जाएगी। अदालत आग बबूला हो रही है। झारखण्ड की राज्य स्तर वाली सबसे बड़ी अदालत पुलिस को चेतावनी दे रही है कि जांच सही नहीं चली तो मामला सीबीआई (CBI) को सौंपा जा सकता है। देश की सबसे बड़ी अदालत से जुड़े बार एसोसिएशन ने उच्च स्तरीय जांच के लिए आवाज उठा दी है।

ये उस फ़ोन के जरिये बात करने जैसे उप्रकम हैं, जिसमें बैटरी ही नहीं है। जिस ऑटो से दिवंगत जज को टक्कर लगी, उसे वारदात के कुछ देर पहले ही चुराया गया था। यह ही केस की सबसे पहली और बेहद कमजोर कड़ी साबित हो सकता है। जो तीन लोग पकड़े गए हैं, संभव है कि उनमें से कोई ऑटो की चोरी तो कोई उसे चलाने का आरोपी हो। बाकी मामले से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े जो प्रभावशाली चेहरे दिखते हैं, वे घटनास्थल पर दूर-दूर तक कहीं नहीं थे। हां, वहां कोई ऐसा जरूर था, जिसने इस पूरे मामले की रिकॉर्डिंग की और फिर उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। संभवतः यह सन्देश देने के लिए कि हमसे टकराने वाले का क्या हश्र होता है।

उत्तम कुमार झारखण्ड के नामी-गिरामी आपराधिक तत्वों के खिलाफ मामलों की सुनवाई कर रहे थे। कानून-व्यवस्था के मामले में झारखण्ड और उसके पूर्ववर्ती स्वरूप अविभाजित बिहार (Bihar) की सारे देश में एक विशिष्ट छवि है। बिहार में वर्ष 1994 में आनंद मोहन सिंह (Anand Mohan Singh) राजनीति के माफियाकरण (Criminalisation of Politics) के पुरोधाओं में शामिल किये जाते थे। इसी दम पर वह सपत्नीक देश की संसद तक पहुंचने का सनसनीखेज राजनीतिक सफर तय कर चुके थे। आनंद के नेतृत्व वाली भीड़ ने ही उस दिन गोपालगंज (Gopalganj) के जिला जज और आईएएस अफसर जी कृष्णय्या (G Krishnaiah) की बीच सड़क पर पीट-पीटकर जान ले ली थी। मामले में आनंद सहित छह आरोपी लंबे समय बाद दोषी ठहराए गए। कुछ को फांसी की सजा भी सुनायी गयी। लेकिन एक भी मामले में इस सजा पर अमल नहीं किया गया। शायद इसलिए कि इसे ‘दुर्लभतम’ यानी ‘रेयर ऑफ़ दि रेयरेस्ट’ (Rare of the rarest Crime) श्रेणी का अपराध साबित नहीं किया जा सका। या अपराध की फितरत को ऐसे माना ही नहीं गया। उत्तम आनंद का मामला तो फिर इससे काफी छोटा है। कोई सीधा हाथ इसमें नहीं दिखता। इसलिए यह आशंका बेहिचक जताई जा सकती है कि ‘दुर्लभतम के अभाव’ की सुरक्षा कवच वाली अवधारणा यहां भी आरोपियों का संरक्षण कर गुजरे। यदि ऐसा होता है तो फिर हमें इनसे भी अधिक संगीन और दिल दहला देने वाले मामलों का इंतज़ार करना होगा। तब कहीं जाकर हमारी व्यवस्था किसी पड़ाव को ‘दुर्लभतम’ के प्रादुर्भाव के योग्य करार दे सकेगी। बेचारे मोहम्मद शाहबुद्दीन (Mohammed Shahabudin) ने इस इंतज़ार की अवधि घटाने की कोशिश में कोई कमी नहीं रखी थी। दो सगे भाइयों को उन्होंने तेज़ाब से नहलाने के बाद उनकी जान ली। फिर उनके तीसरे भाई को भी मार डाला। लेकिन दैवयोग से यह अपराध भी रेयर ऑफ़ थे रेयरेस्ट नहीं साबित हुआ और शाहबुद्दीन अपराध की श्रेणी के ऐसे हृदयविदारक सफल प्रयोग के बाद भी खुद को केवल उम्र कैद के लायक ही साबित कर सके।

हम सचमुच उस अवधारणा पर पूरी कर्म-निरपेक्षता के साथ चल रहे हैं कि भले ही सौ गुनहगार बच जाएं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। सत्तर साल से अधिक की स्वतंत्रता में हजारों गुनहगारों के बच जाने जैसे आरोप आम हो चले हैं। लेकिन वो एक निर्दोष कहीं ढूंढें से भी नहीं मिलता, जिसे बचाने के फेर में बाकी पूरा का पूरा लॉट ही महफूज कर दिया गया हो। उस एक निर्दोष की तलाश की जाना चाहिए। ताकि कम से कम हलचल-विहीन हो चुके देश के अधिकांश फांसी घरों और वहां बेरोजगारी का दंश झेल रही रस्सियों को तो यह दिलासा मिल सके कि देखो इस एक व्यक्ति की वजह से तुम हजारों सुपात्रों का वरण करने से वंचित रह गए।

उत्तम आनंद ने कुछ ही दिन पहले अमन सिंह (Aman Singh, Mafia Don of Bihar) की जमानत याचिका खारिज कर दी थी। अमन सिंह के चरित्र चित्रण में काफी समय लग जाएगा। राज्य के बहुत बड़े हिस्से में उनकी दहला देने वाली शौर्य गाथाएं हर उम्र और लिंग के शरीफ लोगों को डराने के काम आती हैं। प्रकाश झा (Prakash Jha) की ‘दामुल’ (Damul) से लेकर ‘गंगा जल’ (Ganga jal) और ‘अपहरण’ (Apaharan) जैसी फ़िल्में देखिये। इनमें जो सबसे अधिक बुरा चरित्र आपको लगे, आप बेशक उसके माध्यम से अमन सिंह के पराक्रम को समझ जाने के लिए स्वतंत्र हैं। बस आपसे इतनी ही चूक हो सकती है कि आप अमन की आतंकमयी क्षमताओं को कम आंक लें। इन महाशय पर भाजपा नेता रंजय सिंह की ह्त्या का आरोप है। अब कहा जा रहा है कि जमानत न मिलने को अमन ने अपने लिए अपमान और भविष्य की आशंका का कारण समझा। इसके चलते ही एक ऑटो की चोरी से शुरू हुई वारदात व्हाया एक ह्त्या किसी एसआईटी के गठन की घटना तक पहुंच गयी। कल्पना कीजिये उस अगले जज की, जिसके पास अब अमन का केस जाएगा। क्या वो मामले की सुनवाई के बीच भी अपने दिमाग से सूनी सड़क पर अचानक मुड़े ऑटो और फिर एक सजीव के अचानक निर्जीव बनने वाले दृश्य का पल भर के लिए भी अलग कर पाएगा? यानी एक वीडियो के जरिये एक सन्देश तो प्रसारित कर ही दिया गया है। आइए इस सन्देश को आत्मा तक किसी सबक के रूप में ग्रहण करें। उत्तम आनंद को ‘आरआईपी’ (RIP) ‘या ‘ॐ शांति’ की औकात में लपेट दें। ये संतोष करें कि अपने-अपने भीतर के नपुंसक की वजह से हम ऐसे पथभ्रष्ट नहीं हो सके कि कोई पथभ्रष्ट ऑटो हमे कुचल कर चला जाए। इस सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी तथा इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर शेष में सर्व-स्वीकार्य नपुंसकता (Impotency) को हमारा श्रद्धापूर्ण नमन।

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