ये फितरत में ही नहीं है भदौरिया की
मुख्यमंत्री निवास पर हुए सम्मेलन में भदौरिया ने खुद को राज्य के राजपूत नेता के रूप में भी काफी हद तक स्थापित कर लिया है। पहले बात केवल भाजपा के राजपूत नेता जैसी थी, लेकिन अब उसमें पार्टी से बाहर भी विस्तार होने लगा है। भोपाल में आयोजित राजपूत समाज के सम्मेलन को दो तरह की बड़ी सफलताएं मिलीं।

मुख्यमंत्री निवास में गुरूवार को हुए राजपूत सम्मेलन से भारतीय जनता पार्टी में राजपूतों के एक नए नेता का उदय हुआ है। अभी तक नरेन्द्र सिंह तोमर और जयभान सिंह पवैया को राजपूतों का बड़ा नेता माना जाता था। अब शिवराज सरकार के सहकारिता मंत्री अरविंद भदौरिया को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। अरविंद सिंह भदौरिया भिंड के भी हैं और ठाकुर तो हैं ही। लेकिन बोलने वाले और जानने वाले अरविंद सिंह भदौरिया को सिर्फ अरविंद जी के नाम से ही जानते हैं। कारण, उनके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्कार हो सकते हैं। संघ में न राजनीति है और न जातिवाद। इसलिए संघ से विद्यार्थी परिषद और वहां से व्हाया भाजपा में आए अरविंद भदौरिया को शायद कभी अपने ठाकुर होने के राजनीतिक नफा नुकसान के बारे में सोचने का मौका नहीं मिला होगा। लेकिन अब मिल गया है तो उन्होंने राजपूत समाज को सरकार के लिए साध कर अपने नेतृत्व के गुणों का खुलकर प्रदर्शन भी कर दिया।
अरविन्द भदौरिया को तब से देखा है, जब वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्णकालिक हुआ करते थे। उन्होंने संघ के प्रचारक का दायित्व भी संभाला है। भारतीय जनता युवा मोर्चा तथा भाजपा किसान मोर्चा में भी उन्हें काम करते हुए देखा है। वैसे तो राजनीति में थोड़ी भी रुचि रखने वाले अधिकांश लोग भदौरिया की इस पृष्ठभूमि से परिचित होंगे। मामला भाजपा संगठन में कई पदों पर रहे और वर्तमान में सहकारिता मंत्री होने जैसा महत्वपूर्ण भी है। फिर भी अतीत के इन सिरों को सोद्देश्य वर्तमान से जोड़ा गया है।
गुरूवार को मुख्यमंत्री निवास पर हुए सम्मेलन में भदौरिया ने खुद को राज्य के राजपूत नेता के रूप में भी काफी हद तक स्थापित कर लिया है। पहले बात केवल भाजपा के राजपूत नेता जैसी थी, लेकिन अब उसमें पार्टी से बाहर भी विस्तार होने लगा है। भोपाल में आयोजित राजपूत समाज के सम्मेलन को दो तरह की बड़ी सफलताएं मिलीं। इस आयोजन में भदौरिया की पहल से जिस बड़ी संख्या में समाज के लोग जुटे, वह राजपूत वर्ग में उनकी स्वीकार्यता को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है। दूसरी बात यह कि समाज के प्रतिनिधियों ने भदौरिया के नेतृत्व में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाकात की। इस चर्चा में यह हुआ कि मुख्यमंत्री ने इस समाज की लंबे समय से लंबित कई मांगों को मौके पर ही स्वीकार कर लिया।
ये सब घटनाक्रम उस समय हुए हैं, जब करणी सेना का एक हिस्सा राजपूत शक्ति की दम पर भाजपा और कांग्रेस से पृथक अपनी अलग सियासी जमीन तलाशने और उसे मजबूती देने में जुटी हुई है। मध्यप्रदेश भाजपा में नरेंद्र सिंह तोमर के बाद राजपूत समाज के एक अदद ताकतवर नेता की कमी लंबे समय से महसूस की जा रही थी। कांग्रेस में यह तमगा पहले अर्जुन सिंह और अभी दिग्विजय सिंह इस समुदाय के बड़े क्षत्रप के रूप में माने जाते हैं। करणी सेना और अन्य संगठनों के 8 जनवरी के आंदोेलन के पीछे कांग्रेस का ही हाथ माना जा रहा है। ऐसे में करणी सेना को इस शून्य का लाभ मिलता दिख रहा था, लेकिन अब भदौरिया ने अपने प्रभाव से हवा का रुख भाजपा की ओर मोड़ने में बड़ी सफलता हासिल की है।
भदौरिया जात और समुदाय की राजनीति में उतरे हैं, लेकिन खुद को ऐसी सियासत की जकड़न से उन्होंने पूरी तरह बचा रखा है। वह राजपूत समाज को साथ लेकर चल रहे है, किंतु केवल इस समाज के साथ ही नहीं चल रहे हैं। बाकी समुदायों से भी उनका सरोकार पहले की तरह ही कायम है। निश्चित ही भदौरिया राजपूत समाज के नेता हैं, लेकिन केवल ‘राजपूतों के नेता’ वाला सेहरा बांधने में उनकी भी शायद कोई रुचि नहीं दिखती। और ये रुचि उनके भीतर विकसित हो पाना भी लगभग असंभव है। ऐसा होना उनकी फितरत में ही नहीं है। यहीं से बात आती है, उस आरंभ की, जिसमें भदौरिया के सार्वजानिक जीवन की पृष्ठभूमि को याद किया गया था। संघ के सिद्धांतों का अनुसरण और विद्यार्थी परिषद सहित भाजयुमो और भाजपा की रीति-नीति को अपनाकर भदौरिया ने स्वयं को जातिगत राजनीति की विषमता से निरापद बनाए रखा है। उनके काम एवं प्रयास केवल यह दीखते हैं कि वह राजपूत समाज को भाजपा के रूप में एक उचित एवं विश्वसनीय माध्यम तक पहुंचाना चाहते हैं। राजपूतों के सम्मेलन की सफलता और समाज की मांगों को शिवराज द्वारा स्वीकार लिया जाना बताता है कि भदौरिया इस काम में अपने लक्ष्य के काफी करीब हैं। साथ ही वह उस स्थिति से बहुत सुरक्षित दूरी पर भी हैं, जो उन्हें जातिवादी सियासत के दलदल में खींच सकती थी।