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आसान नहीं है शिवराज को समझना

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राजनेताओं द्वारा जनता के बीच जाने की खबरों की उम्दा स्क्रिप्ट पढ़ने और लिखने का मुझे हमेशा से शौक रहा है। यहां मैं उनके लेखन की बात नहीं कर रहा हूं, जिनकी लेखनी खुद ये चुगली कर देती है कि वह देखा हुआ नहीं, बल्कि आदेशित किया हुआ ही लिख रहे हैं। बात उनकी हो रही है, जो पटकथा लेखक की बजाय पटु लेखक की शैली में अपने पत्रकार होने के धर्म का निर्वहन करते हैं। ऐसे ही एक सीनियर पत्रकार (senior journalist) ने कभी दिवंगत माधवराव सिंधिया (Madhavrao Scindia) के चुनाव प्रचार (Election Campaign) की अद्भुत रिपोर्टिंग की थी। हवाला काण्ड के बाद हो रहे उस चुनाव में मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) विकास कांग्रेस (congress) के रूप में सिंधिया की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई थी। वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी रिपोर्टिंग में सिंधिया के चेहरे पर पसरे पसीने सहित रास्ते की धूल को जिस तरह एक्सप्रेशन (expression) प्रदान किये, वह अद्भुत था।

किसी समय अरविन्द नेताम (Arvind Netam) के कांग्रेस छोड़कर भाजपा (BJP) में जाने, छत्तीसगढ़ के गठन के समय मुख्य्मंत्री पद से वंचित किये गए शुक्ल बंधुओं के खेमे की हलचल, वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव (Assembly elections) से पहले दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) और उमा भारती (Uma Bharti) में जनता के बीच तक पहुंचने की मची होड़, कभी सतना तो कभी होशंगाबाद में अपनी खोयी सियासी जमीन वापस पाने की नाकाम कोशिशों से जूझते अर्जुन सिंह (Arjun Singh), आदि से जुड़े चुनिंदा कवरेज मुझे बहुत आकर्षित करते रहे हैं। लेकिन ऐसे तमाम प्रतिष्ठित पत्रकारों सहित खुद के लिए भी मुझे आज एक बड़ी चुनौती दिख रही है। वह यह कि किस तरह हम शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) के एक विशिष्ट स्वरूप को किसी अतिशयोक्ति से बचाते हुए सही-सही तरीके से अपने कवरेज की परिधि में पूरी तरह ला सकेंगे?

बुंदेलखंड का एक वीडियो वायरल (video viral) हो रहा है। देहात की महिलाओं के बीच बैठकर शिवराज सिंह चौहान लोक गीतों का आनंद ले रहे हैं। पूरी आत्मीयता और आनंद में डूबकर। बात महिलाओं के गायन और मुख्यमंत्री द्वारा एक वादन के माध्यम से संगत देने से शुरू होकर महिलाओं के नृत्य तक पहुंचती है। ठेठ पारिवारिक आयोजन जैसा वातावरण। विशुद्ध रूप से परिवार के किसी आत्मीयजन के साथ होने की खुशी का प्रकटीकरण करती स्त्रियां। कोई प्रोटोकॉल (protocol) का प्रपंच नहीं। मुख्यमंत्री वाले आवरण और आडंबर की परछाई तक नहीं। बमुश्किल आधे मिनट का वीडियो पूरा होते-होते न जाने कब आपके चेहरे पर भी वह उत्सव जैसा उल्लास तैरने लगता है, जो उस वीडियो में छलक-छलक जा रहा है। एक मुख्यमंत्री और महिलाओं के समूह के बीच के इस वीडियो के तमाम पक्षों को खबर में पूरी तरह उकेर पाना कम से कम मेरे लिए तो बड़ी चुनौती है।

भला कैसे संतुलित व्याख्या हो पाएगी कि किस तरह CM ने कुछ देर के लिए अपने कद तथा पद, दोनों की छांव से मुक्त होते हुए शिवराज को आम नागरिक की तरह आम लोगों के बीच स्थापित कर दिया? कौन से शब्द पाठकों या दर्शकों तक उन महिलाओं की उन पलों की खुशी को व्यावहारिक रूप से पहुंचा पाएंगे? किस माध्यम से उस ‘वाह’ की व्याख्या की जा सकेगी, जो इस वीडियो को बना रहे शख्स के मुंह से बरबस ही निकल गया? क्या यह सब लेखन की समस्त आवश्यकताओं तथा उसकी उत्कृष्ठता के साथ न्याय करते हुए वर्णित कर पाना आसान है?

आप बेशक ऐसे कई अवसरों को शिवराज द्वारा खुद की ब्रांडिंग (branding) करने या लोकप्रियता (Popularity) बटोरने का जतन कह सकते हैं, लेकिन ऐसे अवसरों पर शिवराज की सहजता के भीतर से किसी अभिनय के तत्व को तलाश पाना दुरूह रहता है। पेटलावद (petlavad) में सड़क किनारे बैठकर लोगों के आक्रोश को झेलना क्या सचमुच कोरी भावुकता के रूप में चित्रित किया जा सकता है? मंदसौर में गोली चालन (firing in mandsaur) में मृत किसानों (dead farmers) के परिजनों से मिलते समय वाले शिवराज के व्यवहार में खेद और क्षमा मांगने के अतिरिक्त क्या किसी और भाव की उपस्थिति सिद्ध की जा सकती थी? आप इस सबको नाटकीयता लिख तो सकते हैं, लेकिन इस लिखे को स्थापित करना नामुमकिन हो जाता है। शिवराज ने न सिर्फ वातावरण, बल्कि लोगों के अनुरूप स्वयं को ढालने का ऐसा अभ्यास विकसित कर लिया है, जो किसी खंडन के हिसाब से अखंडनीय ही जान पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे तमाम अवसरों पर शिवराज लोगों के बीच अपनी याद की ऐसी परछाई छोड़ जाते हैं, जिसके मुकाबले का कोई और अक्स स्थापित करने के लिए यादों के कई-कई सूरज का प्रकाश भी कम पड़ जाता है।

तो फिर वह कौन से शिवराज थे, जिन्हें दो दिन पहले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह (Former Chief Minister Digvijay Singh) से मिलने में ऐतराज था? जिसे अपने बंगले के क्षेत्र की परिधि में सिंह के साथ बैठे लोगों के बीच जाने का समय नहीं मिल सका? जो विमानतल (airport) पर कमलनाथ (Kamal Nath) से तो गर्मजोशी से मिल लिया, लेकिन जिसने श्यामला हिल्स (Shyamla Hills) की चढ़ाई के तल पर बैठे दिग्विजय को कोई तवज्जो नहीं दी। मौका तो ये भी छवि चमकाने के हिसाब से अनुकूल था। शिवराज दिग्विजय (Digvijay) के नेतृत्व में धरने पर बैठे लोगों के बीच जाकर यह सन्देश दे सकते थे कि वह लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए तत्पर रहते हैं। या फिर दिग्विजय को बंगले पर बुलाकर यह प्रचारित किया जा सकता था कि मुख्यमंत्री विपक्ष को भी यथोचित सम्मान एवं समय प्रदान करते हैं। अब यह कहना तो शिवराज की राजनीतिक परिपक्वता के साथ अन्याय होगा कि उन्होंने ऐसे अवसरों को जानबूझकर हाथ से निकल जाने दिया। तो फिर इसकी वजह क्या रही होगी?

सियासी तराजू पर दिग्विजय के मुकाबले कमलनाथ को अधिक वजन देकर शिवराज ने क्या ये साफ कर दिया है कि वह किसको कितनी बड़ी चुनौती मानते हैं? और किसे कितनी तवज्जो देकर बैलेंस करने का हुनर उन्हें आता है? किसको कितना भाव देना है, इस अनुपात का भाव उन शिवराज के चेहरे पर पढ़ पाना असंभव है, जिनका चेहरा अपना हर भाव आसानी से बयां कर देता है। वह आम लोगों के बीच आमतौर पर आम आदमी की ही तरह दिखते हैं। हां, खास मौके पर शिवराज एक पल में किसी खास व्यक्ति की तरह भी दिखाई पड़ सकते हैं। व्यवहार परिवर्तन के इस बहुत छोटे क्षण के भीतर ही वह शिवराज मौजूद हैं, जिनकी संतुलित, संपूर्ण एवं सारगर्भित व्याख्या कर पाना बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है।

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