विश्लेषण

क्या ये स्थिति बेहद शातिराना ‘ब्रेन वाश’ से  होती है?

ऐसे प्रेम संबंधों में भी एक पक्ष अपनी धार्मिक जंजीर को तोड़ने तो दूर, उसे जुंबिश देने तक का प्रयास नहीं करता है। जबकि दूसरा पक्ष अपने परिवारगत संस्कार के धागों को बेड़ी मानकर उन्हें उखाड़ फेंकने में ही गर्व महसूस करता है।

सच कहूं तो तुनिषा शर्मा की मौत से पहले उनका नाम तो दूर, मैंने कभी जिक्र भी नहीं सुना था। फिलहाल कुछ दिनों से इस नाम के अलावा यदि और कुछ सुनाई दे रहा है, तो वह शीजान है। तुनिषा का घोषित प्रेमी। एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। इसमें दिवंगत अभिनेत्री को बुर्का पहनकर गणेश जी की प्रतिमा को पूजते दिखाया गया है। साथ में शीजान भी मुस्लिम परिवेश में नजर आ रहे हैं। तस्वीर में जिस तरह दोनों का मुंह गणपति जी की बजाय कैमरे की तरफ है, उससे लगता है कि यह मामला श्रद्धा से अधिक यह जताने का था कि कपल कितना धर्मनिरपेक्ष है। बुर्के वाली मेहबूबा और उनका मेहबूब कैसे एक-दूसरे की धार्मिक मान्यताओं के लिए परस्पर समर्पित हो चुके हैं।
खबर है कि अब यही शीजान पुलिस से कह रहा है कि अलग-अलग धर्म के चलते उन दोनों के बीच दूरियां आने लगी थीं। रिपोर्ट्स के अनुसार शीजान कहने लगा है कि श्रद्धा वालकर कांड के बाद से तुनिषा इस संबंध को लेकर असहज महसूस करने लगी थी। इन बातों का सच पुलिस और शीजान ही जानें। लेकिन एक सच सोलह आने की हैसियत वाला दिखता है। वह यह कि सरापा बुर्के में ढकी हिंदू परिवार की तुनिषा प्रेमी  शीजान के रूप में अपने भविष्य को लेकर ठोस फैसला ले चुकी थी। तो सवाल यह कि इस बुर्के के भीतर वह सुराख कहां से आ गए, जिनसे अभिनेत्री के मन में श्रद्धा की हत्या को लेकर स्वयं से जुड़ी किसी आशंका ने प्रवेश कर लिया? इस संबंध को तो तुनिषा के परिवार ने मान्यता दे रखी थी। मृतका की मां का बयान सुनिए। उन्हें शीजान के धर्म से कोई आपत्ति नहीं। उनकी शिकायत केवल यह कि शीजान ने बेटी से शादी का वादा किया और फिर मुकर गया। उनकी आपत्ति से बात से भी है कि ‘हो सकने वाले दामाद’ के दूसरी लड़कियों से ताल्लुकात थे। जो परिवार भी इस संबंध के लिए ‘शादी की शर्त’ पर राजी था, उस परिवार की बेटी क्या किसी श्रद्धा और आफताब अमीन पूनावाला को लेकर इस हद तक विचलित हो सकती है कि वह अपना जीवन ही ख़त्म कर ले? इस लिहाज से शीजान के इस दावे में विशेष दम नजर नहीं आ पा रहा है।
गणपति जी के सामने वाली तस्वीर पर ध्यान दीजिए। यदि मामला इंटर-रिलीजन वाले अद्भुत बदलाव का हो तो फिर ऐसा भी होना चाहिए था कि बुर्के वाली प्रेमिका के बगल में शीजान कुर्ता-पायजामा पहनकर माथे पर टीका लगाए हुए नजर आता। ऐसा नहीं हुआ। ऐसे प्रेम संबंधों के अतीत को देखें तो ऐसा होना आज भी नामुमकिन ही बना हुआ है। बेहद पढ़े-लिखे मंसूर अली खां ‘पटौदी’ अत्याधुनिक विचारों वाले माने जाते थे, लेकिन उन्होंने भी पत्नी शर्मिला टैगोर का नाम बदलवाकर आयशा बेगम करवाया। जबकि इस विवाह के आसपास की ही बात है। भोपाल में एक चर्चित हिंदू सज्जन ने मुस्लिम युवती से विवाह किया, इसके बाद वह खुद मुस्लिम बन गए थे। अकेले भोपाल ऐसे किस्से असंख्य हैं। एक वरिष्ठ आईएएस अफसर भी अपनी प्रेमिका से पत्नी बनी लेखिका के मानों ‘स्क्रिप्टेड इश्क’ की गलियों में अपने मूल धर्म को पीछे छोड़कर अंतरात्मा से मुस्लिम बन गए थे।
केवल फिल्म इंडस्ट्री को लेकर ही कितनी बातें याद की जाएं? मुमताज जहां बेगम ‘मधुबाला’ ने कभी प्रेमनाथ से टूटकर इश्क किया था, लेकिन मामला परवान  नहीं चढ़ सका। फिल्मों का इतिहास बताता है कि यूसुफ़ खान यानी दिलीप कुमार की इस संबंध के ऐसे हश्र में निर्णायक और प्रमुख भूमिका रही थी। देव आनंद और सुरैया बेपनाह प्यार के बाद भी शादी नहीं कर सके। सायरा बानू की राजेंद्र कुमार के लिए भारी दीवानगी को रोकने की गरज से तो दिलीप कुमार ने अपनी बेटी जैसी उम्र वाली इस अभिनेत्री से खुद ही निकाह कर लिया था। लेकिन खुद देव सहित किसी गुरु दत्त, राज कपूर, राजेंद्र कुमार में यह प्रयास नहीं दिखा कि नरगिस से शादी करने के लिए सुनील दत्त को माफिया सरगना हाजी मस्तान की अनुमति लेने वाली शर्मिंदगी से बचा लिया जाए। दत्त से शादी के बावजूद नरगिस निधन के बाद ‘सुपुर्दे-ख़ाक’ की गईं। जबकि परवीन बाबी जीवनकाल में ही कह चुकी थीं, कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों से किया जाए और मौत के बाद उनकी इस अभिलाषा को भी उनके शव के साथ ही कब्र में दफना दिया गया।
कहने का आशय यह कि ऐसे अधिकांश मामले एक तरफ ‘ढहती दीवार’ और दूसरी तरफ ‘तयशुदा फौलादी इरादों की ठोस बयार’ वाले ही दिखते हैं। पुरानी जंजीरों को तोड़कर स्थापित किए जाते ऐसे प्रेम संबंधों में भी एक पक्ष अपनी धार्मिक जंजीर को तोड़ने तो दूर, उसे जुंबिश देने तक का प्रयास नहीं करता है। जबकि दूसरा पक्ष अपने परिवारगत संस्कार के धागों को बेड़ी मानकर उन्हें उखाड़ फेंकने में ही गर्व महसूस करता है। क्या ये स्थिति बेहद शातिराना किस्म वाले ‘ब्रेन वाश’ के चलते होती है? आशंका भरे इस सवाल का जवाब कम से कम मैं तो ‘हां’ में ही दूंगा।

रत्नाकर त्रिपाठी

रत्नाकर त्रिपाठी बीते 35 वर्ष से लगातार पत्रकारिता तथा लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में जन्मे एवं पले-बढ़े रत्नाकर ने इसी प्रदेश को अपनी कर्मभूमि भी बनाया है। वह दैनिक भास्कर और पत्रिका सहित ईटीवी (वर्तमान नाम न्यूज 18) राष्ट्रीय हिंदी दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' एवं पीपुल्स समाचार में भी महत्वपूर्ण पदों पर सेवाएं दे चुके हैं। त्रिपाठी को लेखन की विशिष्ट शैली के लिए खास रूप से पहचाना जाता है। उन्हें आलेख सहित कहानी, कविता, गजल, व्यंग्य और राजनीतिक तथा सामाजिक विषयों के समीक्षात्मक लेखन में भी महारत हासिल है। उनके लेखन में हिन्दू सहित उर्दू और अंग्रेजी के कुशल संतुलन की विशिष्ट शैली काफी सराही जाती है। संप्रति में त्रिपाठी मध्यप्रदेश सहित छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश के न्यूज चैनल 'अनादि टीवी' के न्यूज हेड के तौर पर कार्यरत हैं।

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