नज़रिया

इंडिया…इंदिरा…इमरजेंसी 

नजरिया: आज 25 जून है। वह तारीख, जब आज से 46 साल पहले देश में आपातकाल यानी इमरजेंसी (Emergency) लागू कर दी गयी थी।  यह  इक्कीस महीने के उन भयानक दिनों की शुरूआत थी, जो हर तरफ ग़म, गुस्सा और दहशत  की शक्ल में साफ़ देखे जा सकते थे। प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की इंदिरा  गांधी  (Indira Gandhi) की ज़िद ने ऐसे हालात पैदा कर दिए थे। उस समय की हुकूमत ने तमाम ऐसे घोषित और अघोषित हुक्मों पर इस-इस तरह से अमल करवाया कि  जनता कांप  उठी। विरोधी दलों के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया।लाखों लोगों की जबरिया नसबंदी (Vasectomy) करवा दी गयी। मुग़लिया सल्तनत (Mughal dynasty) के जिन सनकी  बादशाहों के किस्से हम सुनते हैं, उनसे अलग नहीं था इमरजेंसी का माहौल। जो कुछ हुआ, उसे सुनने वाले भले ही केवल गलत कह कर चुप रह जाएं, लेकिन जिन्होंने वह सब भोगा, उनके लिए यह अनाचारों वाले वह दिन थे, जिनमें लोकतंत्र (Democracy) को पूरी तरह शोकतंत्र  में तब्दील कर दिया गया था। इमरजेंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी आज हमारे बीच नहीं हैं।वह राज नारायण (Raj Narain) भी इस दुनिया से कब के जा चुके हैं, जिनकी अदालती लड़ाई ने आखिरकार इंदिरा को अपने तमाम शासनकालों के सबसे विवादास्पद निर्णय को लेने के लिए ‘प्रेरित’ कर दिया था। उन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा (Justice Jagmohan Lal Sinha) की भी अब केवल स्मृति शेष है, जिन्होंने इलाहबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) के जज के रूप में इंदिरा गांधी का रायबरेली सीट (Raebareli Parliamentary Seat) से चुनाव रद्द कर दिया था। देश-भर में फ़ैली आपातकाल की आफत के बीच ‘इंदिरा इस इंडिया इंडिया इस इंदिरा’ (Indira is India, India is Indira) का मन्त्र देने वाले डीके बरुआ (DK Barooah) फिर सारी ज़िंदगी इस नारे की तोहमत झेलते हुए परलोक सिधार गए। इंदिरा के खिलाफ निर्णायक माहौल बनाने के सबसे शक्तिशाली माध्यम बने जय प्रकाश नारायण (Jai Prakash Narayan) भी अब इस लोक में नहीं हैं, लेकिन है तो आपातकाल की भयानक याद। उन जुल्मो-सितम के बयान, जिन्हें सुनने भर से  आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इंदिरा गांधी  सत्ता का सुख भोगती रहें, इस खातिर देश को जो-जो भोगने के लिए मजबूर किया गया, वह हमें काफी हद तक हिटलर(Hitler), मुसोलिनी (Mussolini) और ईदी  अमीन (Idi Amin) तक की याद दिलाने के लिए पर्याप्त है। तब से लेकर आज तक एक पूरी पीढ़ी गुजर चुकी है, लेकिन उस समय की पीढ़ी पर जो-कुछ गुजरा, उसका दर्द कभी भी बिसराया नहीं जा सकता है।

आखिर देश की अवाम ने किस के किस गलत की सजा भुगती?   क्या संयुक्त सोशलिस्ट  पार्टी (Sanyukt Socialist Party) के राज नारायण का यह कसूर था कि  रायबरेली लोकसभा सीट के चुनाव नतीजे के खिलाफ वह अदालत में चले गए थे? क्या जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा का चुनाव खारिज कर उन्हें प्रधानमंत्री पद  छोड़ने का आदेश  देकर गलत किया? क्या देश की सबसे बड़ी  कोर्ट यह आदेश देकर चूक कर गयी कि  इंदिरा लोकसभा की मतदान प्रक्रिया में शामिल नहीं हो सकेंगी? या इस कोर्ट की खता यह थी कि  उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश  पर इंदिरा की  याचिका के बावजूद पूरी तरह रोक लगाने से मना कर दिया था? या लोकनायक जेपी को गुनहगार मान लें कि  उन्होंने बिहार के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन सरकार के खिलाफ सबसे बड़े आंदोलन को खड़ा कर दिया था?  और नहीं तो फिर तोहमत मढ़  दें इंदिरा गांधी के छोटे  संजय पर, जिन्होने ही मां  को सलाह दी थी कि  किसी भी हाल में प्रधानमंत्री का पद न छोड़ें? ये सारे चेहरे उस प्रक्रिया से जुड़े हैं, जिनके बाद इंदिरा जी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। जो जानते हैं, वो मानते हैं कि  कसूर केवल और केवल इंदिरा गांधी की ज़िद्दी मानसिकता का रहा। राजनारायण ने तो अपने संवैधानिक हक (Constitutional Right) का प्रयोग किया। अदालतों ने सबूत और तथ्यों के आधार पर फैसले सुनाये। जेपी ने देश के गुस्से को बुलंद आवाज़ प्रदान की। लेकिन संजय अपनी सियासी महत्वकांक्षाओं को लेकर जुनूनी हो चुके थे। इंदिरा अपनी सत्ता कायम रखने के लिए मनमानी पर आमादा थीं। नतीजा  यह हुआ कि  इक्कीस मार्च 1977 तक के लिए विश्व की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी को एक तरह से बेड़ियों में जकड़ दिया गया।





किशोर कुमार ने हिसाब बराबर किया था शुक्ल से

कैसे-कैसे विचित्र तथ्य। मशहूर गायक किशोर कुमार (Playback Singer Kishor Kumar) के गानों के प्रसारण पर आल इंडिया रेडियो (All India Radio) में रोक लगा दी गयी। उस समय विद्याचरण शुक्ल (VC Shukla) सूचना और प्रसारण मंत्री थे. उन्होंने फरमान भेजा कि  किशोर इंदिरा जी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम (20 Points programme of Indira Gandhi) पर बने एक गीत को गायें। किशोर ने मना कर दिया। इसलिए उनके गीतों को सुनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उस समय कागज़ का एक टुकड़ा लोगों की  जान और इज़्ज़त को बचाने का तरीका बन गया था। इस कागज़ पर इंदिरा के बीस सूत्रीय कार्यक्रम सहित बाकी नीतियों के समर्थन की कसम ली जाती थी। जिन्होंने उस पर दस्तखत कर दिए गए, इमरजेंसी के अत्याचारों से उन्हें बचा लिया गया, और जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे फिर बहुत लम्बे समय के लिए कहीं के नहीं रहे। जेल उनका इन्तजार कर रही थी। जिसकी सलाखों के भीतर तब देश के कानून को भी कांपते हुए महसूस किया जा सकता था। यही वह वक़्त रहा, जब कहा जाता है कि  संजय गांधी  ने अपने तमाम खतरनाक मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाने का कुचक्र रचा। आरोप है कि  उनके कहने से इमरजेंसी के दौरान देश में करीब बासठ लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गयी। यह दमन चक्र ऐसा चला कि  करीब दो हजार लोगों ने गलत तरीके से किये गए नसबंदी के ऑपरेशन के चलते दम  तोड़ दिया। दरअसल, संजय का इसके पीछे एक छिपा हुआ एजेंडा (Hidden Agenda) भी था। उस वक़्त विश्व की शक्तियां भारत पर आबादी के नियंत्रण (Population Control in India) के लिए दबाव बना रही थीं।संजय की कोशिश थी कि  नसबंदी के जरिये इन ताकतों के सामने इंदिरा जी को विश्व स्तरीय नेता के रूप में स्थापित कर सकें। संजय और उनके उस समय के कुछ ख़ास कांग्रेसी  नेता उनके आदेशों के पालन में सही-गलत का फर्क किये बिना ही जुट गए। इंदिरा के विरोध की कोशिशों को कुचलने के लिए उन्होंने तमाम हदें पार कर दी थीं।

जनता का गुस्सा रंग लाया

इमरजेंसी के फैसले की  पहली सजा कांग्रेस ने सन 1977 के आम चुनाव में भुगती। जनता का गुस्सा रंग लाया। बीते चुनाव के मुकाबले कांग्रेस ने करीब दो सौ सीटों का नुकसान उठाया। खुद इंदिरा और संजय यह चुनाव हार गए। लेकिन उन काले दिनों की  छाया से यह पार्टी आज भी पूरी तरह बाहर नहीं आ सकी है। कांग्रेस ने जब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नोटबंदी (Demonetization) के फैसले का विरोध किया, तो जवाब में भाजपा (BJP)  ने इमरजेंसी वाली बात उठा दी. सोनिया गांधी  और राहुल (Rahul Gandhi) ने जब लोकतंत्र बचाओ आंदोलन का ऐलान  किया तो भी बीजेपी ने आपातकाल की याद दिलाकर ही उसका काउंटर किया। बात केवल राष्ट्रीय स्तर की नहीं है। मध्य प्रदेश विधानसभा (Legislature Assembly of Madhya Praeesh) आज जिस भवन में चलती है, उसका नाम इंदिरा गांधी  के नाम  पर रखने के भी भारी विरोध हुआ था।विधानसभा में बीजेपी सहित अन्य विरोधी दलों ने इसके लिए आपातकाल की ही बात उठाई थी। विवाद इतना बढ़ा कि  विपक्ष के विधायकों ने मिलकर बिल्डिंग से इंदिरा गांधी  का नाम ही प्रतीकात्मक (Symbolic) तरीके उखाड़ दिया था। यानी आपातकाल भले ही चला गया, लेकिन उसकी आफत से खुद कांग्रेस भी आज तक निजात नहीं पा सकी है।





दामन पे खूं के दाग रहने भी दीजिये

इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी  ने अपनी प्रलयंकारी गलती का भान कर लिया था। इसलिए 1977 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने कई तरीके से आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी, लेकिन जनता टस  से मस नहीं हुई। उस समय एक शायर ने लिखा था, ‘दामन पे खूं  के दाग रहने भी दीजिये, महशर में वरना ढूंढेंगे फिर किस निशां  से हम?’ बाद मे ये दाग फीके भी पड़  गए। कांग्रेस का विकल्प बने राजनीतिक मंच की सरकार पूरी तरह फिसड्डी साबित हुई। इंदिरा जी ने फिर देश की सत्ता संभाल ली। उनके बाद राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) प्रधान मंत्री बने, रिकॉर्ड बहुमत लेकर। ख़ास बात यह कि  इतनी अधिक संख्या में लोकसभा की सीटें इंदिरा गांधी  की ह्त्या (Assassination of Indira Gandhi) से उपजी सहानुभूति के चलते ही कांग्रेस के हिस्से में आ गयीं। फिर पीवी नरसिम्हा  राव (PV Narsimha Rao) और मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) के रूप में कांग्रेसी प्रधानमंत्री इस देश को मिले। लेकिन वंश वाली पार्टी आपातकाल के दंश से आज तक पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है। कहा जाता है कि  डीके बरुआ और संजय गाँधी से कुछ लम्हों की बातचीत के तुरंत बाद इंदिरा जी ने इमरजेंसी का निर्णय ले लिया था।लम्हों की इस खता को सचमुच सदियों ने भुगता है।

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