नज़रिया

अब तो बदल जाइए कमलनाथ जी

स्वर्गीय अजय नारायण मुश्रान (Colonel Ajay Narain Mushran) ने वित्त मंत्री रहते हुए विधानसभा में एक शेर पढ़ा था, ‘रकीबों ने वफ़ा का कुछ चलन सीखा अगर होता। न उनका हाल ये होता, न मेरी शान ये होती।’ सयानों की कही गयी अच्छी बातों से नसीहत लेना हमारे संस्कार का हिस्सा है। चुनांचे कमलनाथ (Kamal Nath) को चाहिए था कि मुश्रान की इस बात से ही कुछ सीख लेते। समझ लेते कि दुश्मनी का भी अपना एक चलन होता है। माना कि नाथ अपनी ही पार्टी के अजय सिंह राहुल (Ajay Singh Rahul) को अपना शत्रु मान बैठे हैं, लेकिन इस बैर भाव का मैहर वाली घटना के रूप में प्रदर्शन करके प्रदेश कांग्रेस के  अध्यक्ष ने अपनी ही भद पिटवा ली है।

दरअसल नाथ अति में भ्रम के शिकार हो गए दिखते हैं। दोस्ती-दुश्मनी की रवायतों को वो जैसे बिसरा चुके हैं। दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) से मित्रता निभाने के फेर में उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) से दुश्मनी पाल ली। चौधरी राकेश सिंह (Chaudhary Rakesh Singh) को दिग्विजय सिंह का पितृवत संरक्षण हासिल है। यही सिंह पार्टी के वरिष्ठ नेता अजय सिंह ‘राहुल’ को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। सो अब फिर नाथ की राकेश के लिए दोस्ती ऐसी परवान चढ़ी कि वे अजय से बैर पाल बैठे। उन्होंने  मैहर में कह दिया कि उनकी सरकार की कमजोरी की वजह विंध्य (Vindhya Region of Madhya Pradesh) में कांग्रेस को कम सीट मिलना रहीं। जबकि, सभी जानते हैं कि यह ग्वालियर-चंबल (Gwalior-Chambal Region in Madhya Pradesh) था, जो नाथ की उस सरकार को पंद्रह महीने में ही ले डूबा। और इस नाव में छेद खुद नाथ ने ही अपनी गलतियों से किये थे।





कुछेक अपवाद छोड़ दिए जाएं तो विंध्य की धरती तो कांग्रेस के लिए उर्वरा ही साबित हुई है। हालांकि ये सही है कि 2018 के चुनाव में इस अंचल से कांग्रेस को बुरी तरह मायूसी मिली। लेकिन क्या सरकार गिरने का इन कम सीटों से कोई सीधा लेना-देना हो सकता है। नाथ को सरकार चलाना  नहीं आयी। उनका अपने मंत्री तो दूर, विधायकों पर भी कोई नियंत्रण नहीं था। अपने कई दशक के राजनीतिक अनुभव के बावजूद वे हवा का रुख भांपने में  नाकाम रहे। सलाह लेने के मामले में दिग्विजय सिंह पर उन्होंने घातक रूप से अंधा भरोसा किया। सिंधिया की नाराजगी को वह ‘तो उतर जाएं’ जैसी हलकी तराजू पर तौलते रहे। परिणाम सबके सामने है। तो फिर भला उसमें विंध्य कहाँ से आ गया? कांग्रेस के लिए यह कमजोरी समझकर उसमें सुधार करने का सही समय है। यदि पार्टी को 2023 के विधानसभा चुनाव में अपनी फिर से फजीहत नहीं करवानी है तो उसके लिए जरूरी है कि वह अपनी गलतियों से सबक ले। मगर ऐसा होता दिखता तो नहीं है।

आप कुछ भी कह लें। अजय सिंह की पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में हार के उदाहरण दे दें। लेकिन इस समय विंध्य में कांग्रेस के आपस उनसे बड़ा और प्रभावशाली चेहरा और कोई भी नहीं है। अर्जुन सिंह (Arjun Singh), श्रीनिवास तिवारी (Srinivas Tiwari) और सुंदरलाल तिवारी (Sundarlal Tiwari) अब इस दुनिया में नहीं हैं। इंद्रजीत पटेल (Indrajeet Patel) भी नहीं रहे। पटेल के बेटे कमलेश्वर (Kamleshwar Patel) में पिता के जैसा राजनीतिक स्पार्क ढूंढें से भी नहीं मिल पाता है। कुल जमा कांग्रेस की सारी उम्मीदें अजय सिंह पर ही जाकर ठहर जाती हैं, लेकिन उसके रास्ते में भी कमलनाथ की नादानी से भरी दुश्मनी बाधा बन कर खड़ी हुई है। ये समय था, जबकि नाथ को राज्य कांग्रेस में सभी के साथ मिलकर काम करने की पहल करना चाहिए थी। राजनीतिक श्रमबल का श्रम विभाजन कर राज्य के अलग-अलग हिस्सों में पार्टी की कमान सक्षम हाथों में सौंपना चाहिए थी। ऐसा करने की बजाय नाथ का मैहर वाला आचरण बता रहा है कि वह अपनी गलतियों से कोई भी सबक लेने के मूड़ में नहीं हैं।





नाथ को मुश्रान से कुछ नहीं सीखना, तो कोई बात नहीं। वे कम से कम दिग्विजय सिंह से ही सीख ले लें। ये सिंह ही थे, जिन्होंने बीते विधानसभा चुनाव के समय ‘पंगत पे संगत’ कर राज्य के कांग्रेसियों के बीच एका कायम करने में काफी हद तक और बड़ी सफलता हासिल की थी। दिग्विजय की नर्मदा यात्रा के धार्मिक भाव पर कोई संदेह नहीं है। मगर विधानसभा चुनाव के पहले हुई ये यात्रा प्रदेश के बहुत बड़े हिस्से में पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता के पहुँचने और वहाँ के कार्यकर्ताओं की सुध लेने का जरिया भी बनी थी। ये दिग्विजय की खूबी ही थी कि वे चुनाव के समय अपने घोर राजनीतिक विरोधी सत्यव्रत चतुर्वेदी (Satyvrat Chaturvedi) को भी साथ लाने में सफल रहे थे। तो भला नाथ को अपने राजनीतिक भाई से इस तरह के आचरण की सीख लेने में क्या हिचक होनी चाहिए? इस दोस्ती-दुश्मनी के खेल में दोनों तरफ  गलत पात्रों का चयन करके नाथ पहले ही भारी नुकसान उठा चुके हैं। अब उन्हें खुद के ही पुराने नारे ‘वक्त है बदलाव का’ पर अमल करते हुए अपनी इस आदत में बदलाव का काम शुरू करना होगा। निश्चित ही नाथ से हमदर्दी रखने वाले उनकी वृद्धावस्था का हवाला दे सकते हैं।कह सकते हैं कि अब इस उम्र में भला कौन बदल पायेगा। तो ऐसे लोगों से यही कहा जा सकता है कि नाथ की उम्र का जिक्र छोड़कर पार्टी की लंबी उम्र की फ़िक्र ही कर लें। उस दीर्घायु के लिए नाथ के स्वरूप वाली गलतियां बहुत घातक हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button