भोपाल

साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति अति आवश्यक,हिन्दू कालेज में एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन

दिल्ली। ‘सोचना और लिखना ऐन्द्रिक कार्य है जिसमें ज्ञान और भाव इकट्ठे चलते हैं। कलम को चलाना सबसे जरूरी है क्योंकि इसी से सारी शुरुआत होती है। विख्यात आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व समकुलपति प्रो सुधीश पचौरी जी ने उक्त विचार हिन्दू कालेज में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला ‘पुस्तक समीक्षा – क्या, क्यों और कैसे’ में व्यक्त किए। इस एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन हिंदी विभाग और आइ क्यू ए सी के संयुक्त तत्त्वावधान में हुआ जिसमें देश भर से सवा सौ से अधिक प्रतिभागियों ने प्रत्यक्ष और ऑनलाइन माध्यम से भागीदारी की।

फिल्म के बारे में बनी हमारी समझ ही समीक्षा

प्रो पचौरी ने फिल्मों का उदाहरण देते हुए कहा फिल्म देखने के पश्चात फिल्म के बारे में बनी हमारी समझ ही समीक्षा है। समीक्षा के लिए किसी भी पाठ के मानी पाठ के भीतर से ही खोजे जाने की जरूरत पर बल देते हुए उन्होंने कहा मीडिया ने आज आलोचना को दरकिनार कर दिया है। उन्होंने कविता समीक्षा के औजारों को स्पष्ट करते हुए कहा कि कविता अपने मायने स्वयं अंदर दबाए रहती है। जो मायने दबा दिए गए हैं वह हमें अपनी कल्पना और बुद्धि से बाहर लाने होते हैं। प्रो पचौरी ने संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद जैसे सिद्धांतों के माध्यम से नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ का पाठ-विश्लेषण कर प्रतिभागियों को समीक्षा की गहराइयों से अवगत करवाया। उन्होंने कहा यदि पुस्तक समीक्षक बनना है तो यह ना सोचिए कि इस पुस्तक पर पहले क्या लिखा गया है।

साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति आवश्यक

इससे पहले कार्यशाला का उदघाटन सुविख्यात लेखक और पत्रकार विष्णु नागर ने दीप प्रज्ज्वलन से किया। नागर ने विभिन्न प्रसंगों और उदाहरणों द्वारा समीक्षा की जरूरतों, समीक्षा और आलोचना में अंतर को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि समीक्षा और आलोचना को अकादमिक दुनिया के बंद दायरों से बाहर निकाल कर ही स्वस्थ रचनात्मक वातावरण बनाया जा सकेगा। उन्होंने साहित्य के लोकतंत्र के लिए असहमति को अति आवश्यक बताते हुए कहा कि यह बुलडोजर समय है जिसमें साहित्य ही नहीं संसार का लोकतंत्र भी खतरे में है। नागर ने अपने द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं ‘कादम्बिनी’ और ‘शुक्रवार’ के कुछ रोचक संस्मरण भी प्रस्तुत करते हुए कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण है कि समीक्षा से अप्रसन्न होकर अनेक रचनाकार समीक्षकों और सम्पादकों से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं। उन्होंने व्याख्यान के अंत में कहा कि लेखक ने जो पहले कहा है जरूरी नहीं कि वह आज अपनी उसी बात से सहमत हो, लोगों के विचार बदलते हैं जिन्हें समझना चाहिए। हिंदी विभाग के प्रभारी प्रो.रामेश्वर राय ने कार्यशाला की प्रस्तावना रखते हुए पुस्तक समीक्षा की सैद्धांतिकी और व्यावहारिकी की नवोन्मेषी स्थापना पर बल दिया। उन्होंने कहा कि आलोचना एक मोहल्ला है तो समीक्षा उस मौहल्ले का एक घर है। प्रो राय ने कहा कि बदलते हुए परिदृश्य में हिंदी विभागों को भी अपने समय की जरूरतों के अनुसार विभिन्न प्रयोग करने होंगे।

कथा समीक्षा की चुनौतियाँ

कार्यशाला के दूसरे सत्र में सुविख्यात प्राध्यापक व लेखक प्रो.गोपाल प्रधान ने ‘कथा समीक्षा की चुनौतियाँ’ विषय पर समीक्षा और साहित्य की सृजनात्मकता की व्याख्या करते हुए कहा सत्ता की आलोचना करने का कोई ना कोई रचनात्मक तरीका रचनाकार निकाल ही लेता है। प्रो प्रधान ने आलोचना की परिभाषा को प्रस्तुत करते हुए कहा कि यथार्थ या वास्तविकता को पाठकों के सामने रखना ही आलोचना है।  उन्होंने पंचतंत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि जब हम मानव को सामने रखकर आलोचना नहीं कर पाते तब हम मानवेतर प्राणियों के माध्यम से मानव समाज के आलोचना करते हैं। सच्ची समालोचना को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि पक्षपात से दूर ले जाने वाला आलोचना कर्म ही सच्ची समालोचना कहलाने का अधिकारी है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि समस्त लेखन रचनात्मक है। स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लेखन दूसरों के लिए ही लिखा जाता है। गद्य में भी संगीत होता है। पूरी पंक्ति एक अर्थ की उद्भावना करती है जिसमें से एक भी शब्द हटाया नहीं जा सकता।

कथेतर विधाओं की समीक्षा पर व्याख्यान

 चौथे और अंतिम सत्र में युवा आलोचक और ‘बनास जन’ के सम्पादक  डॉ पल्लव ने कथेतर विधाओं की समीक्षा पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कथेतर को परिभाषित करते हुए बताया कि  ऐसा गद्य जो व्याकरण की शर्तों पर कथा न हो लेकिन जिसका आस्वाद कथा जैसा हो। कथेतर में आत्मकथा, जीवनी, यात्रा आख्यान, संस्मरण, रेखाचित्र, डायरी, रिपोर्ताज़, निबंध, साक्षात्कार, पत्र और आख्यान जैसी रचनाओं को शामिल करते हुए उन्होंने इनके स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि गद्य के प्रचलित कथा माध्यम जब यथार्थ के उदघाटन में कमज़ोर दिखाई दे रहे हों तब कथेतर विधाएँ अपने समय और समाज का सच्चा मूल्यांकन करने लगती हैं। उन्होंने प्रतिभागियों से पुस्तक समीक्षा के व्यावहारिक पक्षों की चर्चा में कहा कि समीक्षा से पूर्व अध्ययन बहुत आवश्यक है।

 

 

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