विश्लेषण

बुढ़िया के मरने का गम नहीं पर मौत ने घर तो देख लिया

  • दमोह के बहाने भाजपा के अंदरखाने छा  रहा है असंतोष

भोपाल। इस विवाद की नदी का उद्गम स्थल भोपाल (bhopal) है। इस भूकंप के झटके जरूर बुंदेलखंड (Bundelkhand) के दमोह (Damoh) में महसूस किये गए, किन्तु इस भूगर्भीय गतिविधि का केंद्र भी भोपाल ही था। अक्षांश-दशांश, किलोमीटर या रेक्टर स्केल (Rector Scale) पर तीव्रता जैसे तमाम तकनीकी पैमानों (Technical parameters) का एक ही गैर-तकनीकी स्तरीय जवाब है कि ये मामले भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रदेश मुख्यालय (State headquarters) से जुड़े हुए हैं। भाजपा के लिए दमोह की हार को पचाना कठिन हो रहा है। तमाम ताकत झोंकने और करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद मिली शर्मनाक पराजय (Shameful defeat) ने पार्टी के नेतृत्व पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

मालवा में एक बड़ी पुरानी लोकोक्ति है, ‘बुढ़िया मर गयी, इसका अफसोस नहीं। अफसोस ये कि मौत ने घर देख लिया।’ यही दमोह में हुआ। विधानसभा उपचुनाव (Assembly by-election) में भाजपा (BJP) के ‘आयातित’ प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी (Rahul Singh Lodhi) अच्छी-खासी फजीहत के साथ हार गए। मामला संजीदा हैं। राहुल लोधी पिछले साल अट्ठाईस सीटों (Twenty-eight seats) के उपचुनाव के दौरान कांग्रेस (Congress) छोड़कर BJP में शामिल हुए थे। राहुल भाजपा में नहीं भी आते तो फर्क नहीं पड़ता। सरकार का सारा नतीजा इन अट्ठाइस सीटों के उपचुनाव से ही निकलना था। निकला भी। लोगों ने दिसम्बर, 18 की गलती को सुधारते हुए इन चुनावों में एक तरह से शिवराज (Shivraj) पर भरोसा जताते हुए एक स्थिर सरकार के लिए वोट दिया था।





सभी जानते हैं कि सेहरा हार का बनता है और दमोह में किसके चलते भाजपा को सेहरा की बजाय केवल हार से काम चलाना पड़ा, ये जानना इस पार्टी के लिए बहुत जरूरी हो गया है। ये नतीजा भाजपा के पार्टी विद डिफरेंस वाले स्वरूप से बिलकुल भी मेल नहीं खाता है। किनारे पर बैठकर लहर गिनने वाला सतही मामला हो तो यकीन इस पराजय के लिए जयंत मलैया (jayant malaiya), उनके पुत्र सिद्धार्थ (Siddhartha) और कुछ स्थानीय भाजपाइयों के नाम गिनाये जा सकते हैं, जो भाजपा में किया भी गया है। ऐसा करके यह भी साबित किया जा रहा है कि जयंत मलैया का कद पार्टी से बहुत ऊपर हो गया है जिसमें वे पार्टी उम्मीदवार को हजारों वोटों से हराने में सक्षम हो गए हैं। अगर ऐसा हो गया है तो यह सवाल भी स्वाभाविक है कि फिर आखिर जयंत मलैया खुद कैसे कुछ सौ वोटों से उस समय राहुल से हार गए थे? दमोह में भाजपा के उतरे पानी में से बचे हुए की भी गहराई में जाएं तो साफ हो जाता है कि पार्टी ने यह सीट अपने संगठन के शीर्ष के चलते ही गंवाई है। अंग्रेजी का चर्चित शब्द है, ‘रोम एक ही दिन में नहीं बना था।’ इसे हिंदी में ‘हथेली पर सरसों नहीं जमती’ के रूप में सुनाया जाता है। तो दमोह की हार की कामना अपने रोम-रोम में समाए तबके ने एक दिन में नहीं, बल्कि पिछले कुछ महीनों में भाजपा के भीतर ही तेजी से एक समानान्तर साम्राज्य (Parallel empire) स्थापित करने का प्रयास करते हुए कर डाली। ये हथेली पर वो सरसों जमाने का प्रयास है, जो भाजपा की बरसों की मेहनत और संगठन शक्ति को नष्ट करने का मामला बनता दिख रहा है। इसलिए आने वाले चुनाव चाहे वे स्थानीय निकाय (local body) के हो या फिर पंचायत के या फिर 2023 की दिसम्बर के आखिरी युद्ध के। चिंताएं गहराती जा रही हैं।

भाजपा में प्रदेश संगठन (State organization) के नाम पर खतरनाक किस्म के प्रयोग किये गए हैं। युवा नेतृत्व को आगे लाने की हिमायत नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) सहित अमित शाह (Amit shad), जेपी नड्डा (JP Nadda) और शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) भी करते हैं। किन्तु क्या नया पौधा रोपने के लिए पुराने वृक्षों की जड़ में मट्ठा डाल दिया जाता है? प्रदेश भाजपा में ऐसा ही हुआ। नतीजा यह कि पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता या तो दरकिनार कर दिए गए या उन्हें यही अहसास करवा दिया गया कि अब उनके लिए पार्टी की सक्रिय राजनीति से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (Voluntary retirement) लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है। इसके चलते हुआ यह कि शिवराज सिंह चौहान सहित पूरी प्रदेश सरकार तथा संगठन के निष्ठावान सिपाहियों (Loyal soldiers) की जी-तोड़ कोशिश के बाद भी भाजपा दमोह में हार गयी। यह वह संगठन था ही नहीं, जिसकी रीति-नीति पर चलते हुए सरकार से सामंजस्य की बदौलत BJP ने लगातार तीन बार राज्य में सरकार बनायी थी।

आज पार्टी के किसी भी जानकार से बात कीजिये। वो खुलकर बताएगा कि राज्य के वरिष्ठ भाजपा नेता राज्य इकाई की दुर्दशा से कितने दुखी और इसके कर्ताधर्ताओं से कितने अधिक नाराज हैं। उन्हें बेहद अप्राकृतिक तरीके से एक्सपायरी डेट (Expiry date) वाले व्यवहार का शिकार बनाया जा रहा है। पार्टी का राज्य संगठन दिग्गज नेताओं से राय लेना तो दूर, उनके अनुभवों का लाभ लेने तक से गुरेज कर रहा है। खुद शिवराज सिंह चौहान की प्रदेश कार्यालय से दूरी बहुत कुछ कहती है। बाकी नरेंद्र सिंह तोमर (Narendra singh Tomar), प्रह्लाद पटेल (Prahlad Patel), कैलाश विजयवर्गीय (Kailash Vijayvargiya), प्रभात झा (Prabhat Jha) और इसी दिग्गज श्रेणी के अधिकांश चेहरों में भी संगठन की दिशा में मुंह करके सोना तक बंद कर दिया लगता है। इनमें से किसी को भी कुरेद लीजिये, उनके इस व्यवहार के पीछे, ‘…तुलसी तहां न जाइये, कंचन बरसे मेह’ वाला दर्द साफ दिख जाएगा। सच तो यह है कि जो संगठन भाजपा की रीढ़ हुआ करता है, उसी में मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में दीमक लगा दी गयी है। दमोह में भाजपा के वरिष्ठजनों (Senior) को ‘पिक एंड चूज’ की शैली में आगे लाने या पीछे धकेलने का काम किया गया। जिन्हें चुनावों को जिताने का अनुभव है, वे बेचारे पार्टी के लिए अतिथि कलाकार वाली हैसियत तक के नहीं रहने दिए गए। कोरोना के भयावह प्रसार के चलते शिवराज को इस चुनाव के अंत में दमोह से कुछ दूरी बनाना पड़ गयी। उनकी काफी अधिक व्यस्तता पश्चिम बंगाल, असम में प्रचार वाली जिम्मेदारी के चलते भी थी। शिवराज अतीत के फेर में ढेर कर दिए गए। उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा को इस पद पर पूर्व में रह चुके नरेंद्र सिंह तोमर जितना विश्वसनीय मान लिया। सत्ता और संगठन के तालमेल की प्रक्रिया को वे शर्मा के समय भी कायम मान बैठे। भरोसे की यह भैंस पानी में चली गयी और खुद शिवराज भी कुछ न कर सके।





दमोह की हार आने वाले चुनावों में भाजपा की संभावनाओं पर बहुत बुरा असर कर सकती है। क्योंकि संगठन की राज्य इकाई के शीर्ष के रवैये में कोई बदलाव आने की गुंजाईश नहीं दिखती है। जबकि भाजपा के लिए ये बहुत जरूरी है कि वल्लभ भवन से लेकर पंडित दीनदयाल परिसर (Pandit Deendayal Complex) तक परस्पर सामंजस्य की बयार बहती रहे। शिवराज (Shivraj) को खुद संगठन का गहरा अनुभव है इसलिए इस दिशा में शिवराज की नेकनीयत और प्रयासों पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता है। लेकिन ताली एक हाथ से तो नहीं ही बज सकती है। यहां तो दूसरा हाथ खुद की लकीरों में राजयोग तलाशने में व्यस्त है, तो फिर ताली बजने का स्कोप ही नहीं रह जाता है। BJP के लिए यह भले ही ‘पूरे घर के बदल देने’ का अलार्मिंग समय न हो, फिर भी जिसे करने की कोशिश की जा रही है। लिहाजा, हर जगह पार्टी में हो यह रहा है कि चाहे सीनियर विधायक (Senior MLA) या सांसद (MP) हो, सबकी सलाह की अनदेखी कर संगठन को एकदम अनुभवहीन नए नवेलों के हाथ में देने की गलती हो रही है। इसके चलते चुनौती बड़ी है। दमोह में हार से भाजपा की सरकार पर कोई असर नहीं होना है। उसे पूर्ण बहुमत पहले से ही हासिल है। इसलिए बुढ़िया के मरने का गम उसे नहीं होगा। केवल इस बात का डर होगा कि मौत ने घर देख लिया है।

प्रकाश भटनागर

मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में प्रकाश भटनागर का नाम खासा जाना पहचाना है। करीब तीन दशक प्रिंट मीडिया में गुजारने के बाद इस समय वे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में प्रसारित अनादि टीवी में एडिटर इन चीफ के तौर पर काम कर रहे हैं। इससे पहले वे दैनिक देशबंधु, रायपुर, भोपाल, दैनिक भास्कर भोपाल, दैनिक जागरण, भोपाल सहित कई अन्य अखबारों में काम कर चुके हैं। एलएनसीटी समूह के अखबार एलएन स्टार में भी संपादक के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। प्रकाश भटनागर को उनकी तल्ख राजनीतिक टिप्पणियों के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है।

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