सियासी तर्जुमा

धन्य हैं चुनाव आयोग के कर्ताधर्ता 

कोरोना (Corona) का समय है। यूं ही मेरे राज्य में सख्त लॉकडाउन (Lockdown) लगा हुआ है. उस पर संक्रमण के डर से खुद भी घर से बाहर जाने की हिम्मत नहीं हो रही। वरना तो आज की सुबह मैं दिल्ली के लिए निकल पड़ता। कोई और साधन नहीं मिलता, तब भी मैंने इससे बेपरवाह होकर पैदल ही यह यात्रा शुरू कर  दी होती। श्रद्धालुजन नर्मदा नदी Narmada River) के किनारों की पैदल यात्रा करते हैं. वृंदावन (Vrindavan) में गोवर्धन (Govardhan) पर्वत की पाँव-पाँव ही परिक्रमा करने का ख़ासा महत्व बताया जाता है. दक्षिण भारत में स्वामी  अय्यप्पा (Lord Ayyappa) और मुरुगन भगवान (Lord Murugan) के तीर्थों तक पैदल की जाने वाली यात्रा को बहुत पुण्य फलदायी माना जाता है। तो मैं भी इसी तरह की श्रद्धा से ओत-प्रोत होकर दिल्ली में चुनाव आयोग  (Election Commission of India) के कर्ताधर्ताओं के पाँव धोकर  पीना चाहता हूँ। उन्होंने मानवता पर बहुत बड़ा अहसान किया है। पश्चिम बंगाल (West Bengal) के विधानसभा सहित कई उपचुनावों के नतीजे आने के बाद विजय जुलूस पर रोक लगा दी है।





जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था रहा था। ये बात तो पुरातनपंथी स्वरूप की हो चुकी है। अब तो यह कहा जाएगा कि जब देश मर रहा था, तब चुनाव आयोग लोकतंत्र के गले में पट्टा डालकर डुगडुगी बजा रहा था। इधर कोरोना की दूसरी लहर एक के बाद एक लोगों की जान लेती चली जा रही थी और उधर देश का चुनाव आयोग इस वायरस को लेकर बहुत बड़े खतरों से आँखें मूंदे बैठा रहा. पश्चिम बंगाल सहित चुनाव वाली अन्य जगहों पर हजारों की भीड़ के बीच चुनावी रैलियां और सभाएं आयोजित की गयीं। प्रचार के नाम पर लोगों के जत्थे भीड़ भरे इलाकों में जाकर वहाँ की भीड़ को और बढ़ाते रहे। ऐसी लगभग सभी जगहों पर मास्क के नाम पर औपचारिकता बरती गयी। सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाई गईं। यह सब होता रहा। कोई भी पार्टी इसमें पीछे नहीं रही। और निर्वाचन आयोग हाथ पर हाथ धरे ये सब देखता चला गया। मध्यप्रदेश में दमोह विधानसभा के उपचुनाव में भी यही सब हुआ।

चुनाव आयोग  चाहता तो इस सब पर आसानी से अंकुश लगा सकता था। ये तकनीकी का दौर है। वर्चुअल रैलियां और सभाएं कैसे की जा सकती हैं, यह सभी मध्यप्रदेश विधानसभा की 28 सीटों पर पिछले साल (वर्ष 2020) में हुए उपचुनाव में देख चुके हैं। फिर भी आयोग ने असुरक्षा के माहौल को अराजकता में बदल देने वाले चुनावी कार्यक्रमों पर समय रहते अंकुश लगाने की दिशा में जैसे विचार तक नहीं किया। जब मद्रास का उच्च न्यायालय देश में कोरोना के भयावह प्रसार के लिए चुनाव आयोग को दोषी बताता है,  तब कहीं जाकर आयोग के अफसरान को शायद कुछ शर्म आती है। कोई मानवता वाला तत्व उनके भीतर कुछ सरगर्मी का संचार करता है. और तब कहीं जाकर वे विजय जुलूसों और इसके जश्नों पर रोक लगाने की बात कहते हैं। ये घोंघा चाल आपराधिक तरीके से अक्षम्य है। क्योंकि इस सुस्ती के चलते ही देश में कोरोना के मामलों में हौलनाक किस्म की तेजी आयी है।





टीएन शेषन (TN Seshan) के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले तक देश में चुनाव आयोग की  उपयोगिता नाम मात्र की नजर आती थी। तब आयोग के केवल दो ही काम दिखते थे। किसी चुनाव की तारीख की घोषणा और उसके ऐलान। लेकिन शेषन ने सारा नजारा ही बदलकर रख दिया था। उन्होंने आयोग को मिली शक्तियों का पूरी ताकत से इस्तेमाल किया और पूरे देश को बता दिया कि इस संस्था की किस तरह तूती बोलती है। आज शेषन हमारे बीच नहीं हैं। उनके रिटायरमेंट के बाद वाले सभी आयुक्तों ने आयोग की इसी छवि को कायम रखा, लेकिन वर्ष 2021 के कोरोना काल में आयोग जिस तरह निकम्मेपन और आलस सहित जिम्मेदारी से मुंह छिपाने वाले वायरस की चपेट में आया, उसने एक बार शेषन से पहले वाले युग की निर्बल वाली छवि को एक बार फिर ज़िंदा कर दिया है।

फिर भी मैं दिल्ली जाकर आयोग के कर्ताधर्ताओं के पांव छूना चाहता हूँ। वजह यह कि उसने विजय की खुशी के सार्वजनिक इजहार पर रोक लगा दी है। चुनावी गतिविधियों वाले राज्यों/ स्थानों पर कोरोना की मौत वाली लीला चरम पर है। तो अब जबकि वहाँ खुशी मनाने पर रोक है, तो कम से कम लोगों को यही फुरसत मिल जाएगी कि अपनों या अपने इलाके वालों की कोरोना से हो रही अकाल मौतों पर दो आंसू बहा सकें। इसे भी आयोग की उदारता भरी नेमत ही मानिये। धन्य हो आयोग के कर्ताधर्ताओं। तुम्हें कोरोना की शिकार हजारों दिवंगत आत्माओं और दिवंगत होने की कगार पर पहुँच चुके लाखों लोगों का श्रद्धापूर्वक नमन। प्रणाम तो उन सभी राजनीतिक दलों को भी, जिन्होंने चुनावी गतिविधियों के समापन के ठीक पहले तक एक भी बार एक राय से यह मांग नहीं की कि कोरोना के चलते चुनाव कार्यक्रमों में कुछ सख्ती की जाए। खैर, सियासी पार्टियां भला ऐसा क्यों करने लगीं। ये चुनाव में अपनी- अपनी जीत वाले घोर निजी स्वार्थ का मामला है। हाँ सांसदों/विधायकों के वेतन तथा भत्ते में वृद्धि की बात होती तो वे एकजुट हो जाते। संसद के पांचसितारा स्तर वाले भोजन की कीमत जनप्रतिनिधियों के लिए कम करने की बात होती, तो भी उनकी एकता दिख जाती। मगर ये तो आम जनता को बेमौत मरने से बचाने वाली नीरस बात है, उससे सियासी विचारधारा का भला क्या लेना-देना हो सकता है?

 

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