कैसे होते होंगे वो लम्हे …?

बीस साल पुरानी वह टीस आज फिर सता रही है। अधीनस्थ रिपोर्टर ने मुझसे सपाट लहजे में कहा, ‘कैफ़ी आज़मी (Kaifi Azami) की डेथ हो गयी है। कुछ लोगों से उनके बारे में बात करना है। तो उनसे क्या पूछूं?’ इस सवाल ने मुझे स्तब्ध कर दिया था। यूं भी कैफ़ी आज़मी का न होना हृदयविदारक समाचार था, उस पर यह तथ्य तो आत्मा को सुन्न कर गया कि एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा रिपोर्टर कैफ़ी के बारे में यह जानता ही नहीं था कि उनसे जुड़ी क्या बातें की जा सकती हैं। विषय तो ‘कैफ़ी क्या थे’ से लेकर ‘कैफ़ी क्यों थे’ तक के अनंत विस्तार तक ले जाए जा सकते थे। लेकिन शाम तक एक सतही खबर मेरे सामने आयी। कुछ लोगों से उथले किस्म की बातचीत। कैफ़ी की कुछ रचनाओं का उल्लेख। उन्हें श्रद्धांजलि। बस। एक महान लेखक की यादों को ऐसी औपचारिकताओं के कफ़न में लपेट कर दफन करने जैसा काम कर दिया गया।
अपने पिता कैफ़ी आज़मी के जीवनकाल में शबाना आज़मी (Shabana Azami) का कुछ मौकों पर भोपाल (Bhopal) आना हुआ था। ऐसे एक अवसर पर मैंने पत्रकार के रूप में शबाना से मिलने का भरपूर प्रयास किया। लेकिन मुझे पूरे समय इंकार का ही सामना करना पड़ा। यदि यह भेंट हो जाती तो मैं उनसे एक गुजारिश जरूर करता। वह यह कि शबाना अपनी अगाध अभिनय क्षमता में एक पल के लिए अपने पिता को उतार कर दिखा दें। केवल उन लम्हों को एक्सप्रेशन दे दें, जब उन्होंने अपने पिता को कुछ लिखते या लिखने के लिए सोचते हुए देखा हो। क्योंकि मेरे लिए ऐसे क्षणों की कल्पना किसी नशे से कम नहीं होती है , जिन क्षणों में ‘आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है…’ जैसी जादूई रचना ने आकार लिया था। या फिर तब, जबकि ‘मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था …’ वाले शब्द स्याही से कागज़ पर उतारे गए थे। मैं शबाना जी से यह जानना चाहता था कि सारे दिन के बीच किसी समय लेखक/विचारक वाली परकाया प्रवेश की महान प्रक्रिया के समय उनके पिता के चेहरे पर क्या भाव तैरते थे? उनकी पेशानी पर लकीरों का उतार-चढ़ाव किस किस्म का होता था? उस समय उस मुबारक हाथ और उसमें थमी खुशकिस्मत कलम के बीच की जुगलबंदी का स्वरूप कैसा होता था? कैसा होता होगा वह लम्हा, जब स्याही के सूखने से पहले ही काग़ज़ पर उत्कृष्ट लेखन की कभी न मुरझाने वाली हरियाली उतर आती होगी?
अब सोचता हूं कि शबाना जी से मुलाक़ात न हो पाना अच्छा ही रहा। वरना तो ऐसी बातें सुनकर वह यक़ीनन मुझे पागल ठहरा देतीं। पागलपन तो आज भी है। कैफ़ी साहब की ही तरह के अन्य सभी उत्कृष्ट लेखकों के इन लम्हों को देखने की कसक आज भी बदस्तूर सताती है। और इस पागलपन को जिंदा रखने की वजह यह कि मैं लेखन से लेखक और लेखक से लेखन के बीच की तीर्थ यात्रा के हरेक पड़ाव का पुण्य अर्जित करना चाहता हूं। मेरे लिए बहुत अच्छा लिख पाना एक तसव्वुर तक ही सिमटा हुआ मामला है, और कैफ़ी साहब तथा उनकी ही तरह महान बाकी लेखकों के लिए लेखन की उत्कृष्टता तयशुदा तथ्य रहती रही। ‘तसव्वुर’ वाले इस कण से ‘तयशुदा’ वाले महान पर्वतों तक के विराट अंतर को पूरी तरह समझने की छटपटाहट ही मेरे भीतर के पागल की प्राणदायी वायु है। शाश्वत सत्य है कि यह अंतर कायम रहेगा और एक पागलपन को अमरता नसीब होती रहेगी।
अल्हड़पन वाली अवस्था में ‘ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं’ वाला गीत काफी पसंद आता था। तब मैं ये सोचता था कि कैफ़ी साहब ने कैसे दर्द को महसूस कर उसे शब्दों की सूरत दी है। फिर बाद में कैफ़ी साहब का ही एक शेर पढ़ने मिला। आपने लिखा है, ‘जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा। बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा।’ ये पढ़ने के तुरंत बाद मेरे भीतर ऊपर बताये गए गीत के लिए कैफ़ी साहब के प्रयास की कोई कीमत नहीं रह गयी। क्योंकि मुझे यकीन हो गया कि जिस शख्स ने ‘वो मिरे न रहे …’ की दो पंक्तियों में एक ज़िंदगी रख दी हो, उसके लिए ‘ये दुनिया …’ का सृजन तो जैसे बाएं हाथ का खेल रहा होगा। लेकिन कैफ़ी आज़मी होना कोई खेल नहीं है। ऐसा होने के लिए विचार और उनकी अभिव्यक्ति की उल्लेखनीयता के उस शीर्ष का स्पर्श करना होता है, जो विरले ही किसी को नसीब होता है। पुण्यतिथि पर कैफ़ी आज़मी जी को विनम्र श्रद्धांजलि।