विश्लेषण

हार्दिक पटेल और भाजपा की दुविधा

हार्दिक पटेल (Hardik Patel) ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रति खुलकर आदरांजली देते हुए कांग्रेस (Congress) को तिलांजलि दे दी है। बीते कुछ समय में पटेल ने कश्मीर (Kashmir) से अनुच्छेद 370 (Article 370)  हटाने तथा अयोध्या में राम मंदिर (Ram Temple in Ayodhya)का निर्माण शुरू कराने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की प्रशंसा की। माना जा रहा है कि जब हार्दिक के इस रुख के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें मनाने का प्रयास नहीं किया तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी। युवा पाटीदार नेता के नाम पर एक समय के चर्चित चेहरे हार्दिक ने गए दिनों खुलकर कहा था कि कांग्रेस में उन्हें सम्मान नहीं दिया जा रहा है। अब पटेल का प्रयास साफ़ है कि वह भाजपा में जाकर अपने लिए नयी सियासी पारी का प्रबंध करने की कोशिश कर रहे हैं।
बीते कुछ समय में भाजपा का जो चरित्र सामने आया  है, उसके चलते कोई हैरत नहीं होना चाहिए कि हार्दिक को भी पार्टी में शामिल कर लिया जाए। यदि ‘व्हिस्की में विष्णु और रम में राम’ वाले नरेश अग्रवाल (Naresh Agrawal) को यह दल अपना सकता है तो फिर हार्दिक के लिए भी ‘हृदय परिवर्तन’ ‘कांग्रेस की नीतियों से उपजी नाराजगी’ और ‘भाजपा की रीति-नीति में अगाध विश्वास’ जैसे जुमलों की मदद से जगह बनायी जा सकती है। यह किसी से नहीं छिपा है कि गुजरात (Gujarat) में भाजपा के पास अब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुख्यमंत्रित्व काल वाली ताकत नहीं बची है।जिस तरह आनन-फानन में जैन धर्म से ताल्लुक रखने वाले विजय रूपाणी (Vijay Rupani) को हटाकर पाटीदार समुदाय (Patidar Community) के भूपेंद्र भाई पटेल (Bhupendra Bhai Patel) को मुख्यमंत्री बनाया गया, उससे स्पष्ट है कि भाजपा बीते विधानसभा चुनाव की अपेक्षाकृत कमजोर जीत से सबक लेकर पाटीदार समुदाय को साधने में जुट गयी है। भाजपा की इसी फ़िक्र और पाटीदार समुदाय में अपनी पैठ के चलते हार्दिक ने अपनी राजनीतिक संभावनाओं के उपग्रह के प्रक्षेपण के लिए भाजपा की तरफ रुख किया है।
लेकिन क्या सचमुच भाजपा को हार्दिक की आवश्यकता है? हार्दिक पर राजद्रोह (Sedition) जैसे गंभीर मामले में मुकदमा दर्ज है। किसी समाज द्वारा अपने हक में आरक्षण की मांग किया जाना गलत नहीं है, किन्तु हार्दिक की अगुआई में हुए पाटीदार आरक्षण आंदोलन में गुजरात जिस तरह धू-धूकर जला था, वह तथ्य भी बिसराया नहीं जा सकता है। यह भी तथ्य है कि हार्दिक की अब अपने समुदाय पर पहले जैसी पकड़ नहीं रह गई है। पाटीदार समाज के पैसे का अपने लिए इस्तेमाल करने के आरोप से भी उनकी छवि कमजोर हुई है।
तो फिर हार्दिक भाजपा के लिए भला कैसे उपयोगी साबित हो सकेंगे? क्या संघ (RSS) इस बात को गले के नीचे उतार सकेगा कि एक सेक्स टेप के जवाब में ‘इससे साबित होता है कि मैं नपुंसक नहीं हूं’ कहने वाले पटेल को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ (BJP- Party with difference) का अंग मान लिया जाए? क्या विचारधारा के स्तर पर किसी भी तरह से यह समझौता किया जा सकेगा कि जिस व्यक्ति पर पुलिस वालों की हत्या करने की बात कहने जैसा संगीन आरोप हो, उसे दल में शामिल कर लिया जाए? फिर यह तो उस युवा नेता का मामला है, जो ‘मूड स्विंग’ की जकड़ में है। कांग्रेस द्वारा अपनी गुजरात इकाई का कार्यकारी अध्यक्ष बनाये जाने के बाद भी यदि पटेल पार्टी में ‘खुद को अपमानित’ किए जाने की बात कह रहे थे, तो फिर यह सोचना होगा कि इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के बाद भी सम्मान देने का क्या कोई और विकल्प हो सकता था? यदि यह गुस्सा सही है तो फिर भाजपा क्या हार्दिक को नाराज होने से रोकने के अग्रिम प्रबंध के तौर पर उन्हें अपनी गुजरात इकाई का पूर्णकालिक अध्यक्ष बना देगी?
लालू यादव (Lalu Yadav) के बेटे तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) ने कुछ समय पहले कहा था कि यदि उनके पिता आज भाजपा में शामिल हो जाएं, तो यह दल उनके गुणगान करने लगेगा। सोशल मीडिया (Social Media) पर तो देश के कई बदनाम लोगों के लिए यह चुटकुला चलता आ रहा है कि वे यदि भाजपा में आ जाएं, तो उनका सारा किया-धरा बिसरा कर उन्हें ‘महान’ साबित कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ भी है। लेकिन ऐसा आगे न होने पाए, इसकी पुख्ता नाकाबंदी के लिए हार्दिक के रूप में भाजपा के सामने अपनी खोयी छवि को चमकाने का एक अच्छा अवसर है। लेकिन मामला चुनौती वाला भी है। आम आदमी पार्टी (AAP) पहले ही हार्दिक पर डोरे डालना शुरू कर चुकी है। गुजरात के चुनाव को लेकर भीतर रविवार को अमित शाह (Amit Shah) ने अहमदाबाद में पार्टी का चिंतन शिविर आयोजित किया था। इसमें राज्य में ‘आप’ के बढ़ते प्रभाव को लेकर खासतौर से रणनीति पर विचार किया गया। जाहिर है कि दिल्ली की बाद पंजाब में ‘माले-मुफ्त, दिल-बेरहम’ के जरिये सरकार बना लेने वाली ‘आप’ गुजरात सहित अन्य राज्यों में भी इसी फॉर्मूले को अपनाएगी। इस प्रयास में यदि हार्दिक के चेहरे को आगे रखकर पाटीदार समाज के आरक्षण को लेकर अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal)की शैली वाली लच्छेदार घोषणाएं कर दी जाएं, तो निश्चित ही भाजपा को मुश्किल हो सकती है।क्योंकि तमाम किंतु-परन्तु के बीच यह बात सोलह आने सही है कि राज्य के बीते चुनाव में कांग्रेस को चालीस फीसदी वोट मिलने के पीछे पाटीदार समुदाय की आरक्षण के मसले पर भाजपा से नाराजगी बहुत बड़ा फैक्टर थी। वैसे भाजपा में भी पर्याप्त चतुर सुजान नेतृत्व है। जो इस रणनीति पर पहले ही काम शुरू कर चुका होगा कि यदि हार्दिक को साथ लिया गया तो किस तरह उनका इस्तेमाल विधानसभा चुनाव तक ही करने के बाद बाद में उन्हें नरेश अग्रवाल की ही तरह ‘हैं भी और नहीं भी हैं ‘ वाली स्थिति में ला दिया जाए। ऐसा करने में कोई जोखिम भी नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर हार्दिक का कोई कद नहीं है और फिर एक बार सरकार बन गयी तो पांच साल तक के लिए हार्दिक की नाराजगी से भी पार्टी को कोई ख़ास नुकसान नहीं होगा।

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