विश्लेषण

बापू की सोच पर भला कैसा संदेह?

श्रद्धा का अपना ही अलौकिक आनंद है। किंतु इस आनंद की व्याख्या से पहले श्रद्धांजलि देने की आवश्यकता है। स्वामी श्रद्धानन्द (Swami Shraddhanand) जी को भावभीनी श्रद्धांजलि। आज आपका बलिदान दिवस है। वर्ष 1926 की 23 दिसंबर को आपकी हत्या कर दी गयी थी। अब्दुल रशीद (Abdul Rashid) आपके घर पर आया। उसने कहा कि वह आपसे कुछ धार्मिक चर्चा करना चाहता है। आप सहृदय थे। सहजता से उसे अपना अतिथि बना लिया। रशीद ने बंदूक निकाली। उसके फायर से आपकी जान ले ली।

स्वामी जी ने परतंत्र भारत में असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज (Arya Samaj) के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। आपने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म (Hindu religion) में दीक्षित किया। स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्य समाजी थे, किन्तु आपने सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था।  क्या ये सब करना गलत था? वर्तमान वातावरण के संदर्भ में यह भी पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा करके आप असहिष्णु (Intolerant) हो गए थे? भला कैसे कोई इस तरह के काम के लिए इतना गुस्सा हो सकता है कि वह किसी की जान ले ले? स्वामी जी की इस सेवा से प्रभावित होकर तो स्वयं डॉ. भीमराव अम्बेडकर (Dr. BR Ambedkar) ने सन 1922  में कहा था कि श्रद्धानन्द अछूतों के “महानतम और सबसे सच्चे हितैषी” हैं।

रशीद इतने जघन्य कांड के बाद भी एक तरह से खुशकिस्मत रहा कि उसे प्यार मिला। इस हत्या के दो दिन बाद गुवाहाटी (Guwahati) में कांग्रेस (Congress) का अधिवेशन हुआ। उसमें एक शोक प्रस्ताव पारित कर स्वामी जी को जिस तरह श्रद्धांजलि दी गयी, वह गौरतलब है। शोक प्रस्ताव महात्मा गांधी ने रखा। इसमें उनकी तरफ से कहा गया, ‘मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूं। मैं यहां तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूं। वास्तव में दोषी वे लोग हैं, जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आंसू बहाने का नहीं है।’

बापू ने यह कहते हुए स्वामी जी की हत्या पर शोक जताने से इंकार कर दिया कि, ‘हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूं।’ गांधी जी ने यह भी कहा कि  समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पड़ती है, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी जी ने कहा, ‘ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली समूहों के विभाजन को मजबूत कर सकेगा।’

एक टीस उठती है कि काश कांग्रेस ने गांधी जी के स्वामी श्रद्धानन्द तथा रशीद को लेकर इस विचार एवं दर्शन को आत्मसात कर लिया होता। ऐसा हो जाता तो न बापू की हत्या की प्रतिक्रिया में हजारों चितपावन ब्राह्मणों की जान ले ली गयी होती और न ही इंदिरा जी (Indira Gandhi) की हत्या के बाद हजारों सिखों का सामूहिक नरसंहार किया गया होता। क्योंकि बापू तथा इंदिरा जी भी समाज सुधारक वाली श्रेणी में ही थे। कांग्रेस इन दोनों के बताये पथ पर चलने का संकल्प रह-रहकर दोहराती है। फिर ऐसा क्यों हुआ कि  श्रद्धानन्द जी के मामले में बापू की  ‘हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए’ वाली थ्योरी को हाशिये पर धकेल दिया गया? किसलिए हजारों बेक़सूर चितपावन ब्राह्मण तथा सिखों को किसी समुदाय-विशेष का होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ गया? इस सन्दर्भ में तो मैं उन्हें बापू का पटु शिष्य मानता हूं, जिन्होंने भोपाल की गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) में हजारों बेकसूरों की जान जाने के बाद भी उनकी हत्या के आरोपी वारेन एंडरसन (Warren Anderson) के लिए इस देश तथा इसके कानून से साफ़ बच निकलने का मार्ग प्रशस्त किया था। आखिर एक बेजान कारखाने से रिसी गैस के कारण लोगों के मर जाने के अपराध के लिए किसी जीते-जागते इंसान को कैसे अपराधी माना जा सकता था?

पता नहीं कि रशीद के पक्ष में मुकदमा लड़ने की बापू की तीव्र इच्छा पूरी हुई थी या नहीं। किंतु मुझे पूर्ण विश्वास है कि रशीद बच जाए, इसके लिए अपनी प्रार्थनाओं में बापू ने कभी कोई कमी नहीं आने दी होगी। रही बात श्रद्धानन्द जी की, तो उनका क्या? बापू तथा डॉ. अंबेडकर के जबरदस्त वैचारिक मतभेद किसी से छिपे नहीं थे। हो सकता है कि बाबा साहेब द्वारा श्रद्धानन्द की प्रशंसा ही उन्हें मर जाने के बाद भी गांधी जी की करुणा का पात्र न बना सकी हो। एक संभावना और है। श्रद्धानन्द जी ने ब्रिटिश हुकूमत के संरक्षण में चल रहे हिंदुओं के धर्मान्तरण का विरोध किया था। संभव है कि वैचारिक रूप से भी हिंसा के विरोधी बापू ने इस विरोध को भी अनुचित माना हो। फिर श्रद्धानन्द जी ने तो बापू की कांग्रेस पर धर्मान्तरण के विषय पर मौन साधने का आरोप लगाते हुए इस पार्टी की खुलकर आलोचना की थी। हो सकता है कि इस मतभेद का उन्हें मृत्यु के उपरान्त भी अपने ऊपर लांछन तथा अपने हत्यारे के महिमा-मंडन के रूप में त्रास भोगना पड़ गया हो। बापू तो इतने कोमल हृदय थे कि हिंसा का मार्ग अपनाने वाले शहीदे-आज़म भगत सिंह (Bhagat Singh) जी की पैरवी तक से उन्होंने स्वयं को दूर रखा।  लन्दन जाकर दुर्दांत ब्रिटिश अफसर माइकल ओ ड्वायर का अंत करने वाले शहीद ऊधम सिंह (Udham Singh) जी के इस कृत्य की भी राष्ट्रपिता ने निंदा की थी। निश्चित ही इन दोनों की हिंसा तथा बापू के मुंहबोले भाई अब्दुल रशीद द्वारा की गयी हत्या के बीच कोई बहुत बारीक और महान अंतर छिपा हुआ हो। बापू का कोई सच्चा अनुयायी इस अंतर को मुझे समझा सके तो मुझे भी स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के क्रोध से कुछ निजात मिल सकेगी। आखिर बापू राष्ट्रपिता (Father of Nation) हैं। उनकी सोच पर भला कैसे संदेह किया जा सकता है?

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button