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पीवी नरसिम्हा राव से वह दुराव सोनिया गांधी का

पामुलापति वेंकट नरसिम्हा राव। देश के पूर्व प्रधानमंत्री। आज उनकी जयंती है। यूं तो रवायत है कि जयंती पर जीवन से जुडी बातें की जाएं। लेकिन राव वह शख्सियत रहे, जिनकी मृत्यु का चर्चा अधिक होता है। वह आंध्र प्रदेश के थे। अपनी मृत्यु के करीब तीस साल पहले इस राज्य के मुख्यमंत्री रहे। फिर केंद्र की राजनीति में इंदिरा गांधी के साथ चले। केंद्रीय मंत्री बने। राजीव गांधी की मृत्यु के बाद गांधी-नेहरू परिवार में सक्रिय राजनीति के नाम पर पसरे सन्नाटे के बीच राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
राव का सबसे बड़ा तिलिस्म उनकी खामोशी का रहा। राजीव की मृत्यु के बाद कांग्रेस की जिस पीढ़ी का अवसान देखा जा रहा था, उसमें राव का नाम भी शामिल था। कहा जाता है कि खुद राव भी सियासी वानप्रस्थ का मन बना चुके थे और उन्होंने गृह राज्य आंध्र प्रदेश लौटने के लिए तैयारियां भी शुरू कर दी थीं। लेकिन तकदीर उनके लिए कुछ और ही तैयारियां कर चुकी थी। अप्रत्याशित घटनाक्रम में राव अचानक प्रधानमंत्री बन गए और पार्टी के अध्यक्ष भी।


इसके बाद राव जिस खामोशी के साथ आगे बढे, उसने कांग्रेस में उनके गुप्त और ज्ञात, दोनों किस्म के शत्रुओं के बीच बेचैनी भरा कोलाहल पैदा कर दिया। अर्जुन सिंह का नाम इन्हीं लोगों में शामिल रहा। सिंह के लिए कहा जाता है कि राजीव के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए कोशिशें की। लेकिन सफल नहीं रहे। अलबत्ता सांत्वना पुरस्कार के तौर पर इतना भर हो सका कि सिंह को राव के मंत्रिमंडल में मानव संसाधन विकास का जिम्मा दे दिया गया। नारायण दत्त तिवारी, अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह और माधव राव सिंधिया भी राव से नाखुश लोगों में गिने जाते थे। दिग्विजय सिंह तब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस समय सिंह के नेतृत्व में भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर कांग्रेस की एक विशाल रैली हुई थी। इस रैली में राव की जयकार तो दूर, उनके नाम का भी उल्लेख नहीं किया गया। उन्हें बैनर या पोस्टर तक में जगह नहीं मिली ।
फिर जो हुआ, उसके लिए कहा जाता है कि राव ने चुप्पी ओढ़े हुए ही कांग्रेस और सरकार, दोनों पर से गांधी-नेहरू परिवार के नियंत्रण की गठानों को ढीला करने की कोशिश शुरू कर दी। जाहिर है कि राव इस बात से आशंकित थे कि राजीव के सदमे से उबरने के बाद सोनिया राजनीति का रुख कर उन (राव) की सियासी संभावनाओं को विपरीत तरीके से प्रभावित न कर दें। तो क्या एक मनाही भी इसी रणनीति का हिस्सा थी? यह सवाल उस अनुरोध से जुड़ा हुआ है, जो कहा जाता है कि सोनिया ने उस समय राव से किया था।

 


राव के पोते एनवी सुभाष भाजपा के नेता हैं। सुभाष कहते हैं कि सोनिया ने एक समय राव से निवेदन किया था कि वह राहुल और प्रियंका को राजनीति में सफल होने के गुर सिखाएं। सोनिया के दोनों बच्चे कुछ दिन राव के पास आए। फिर राव ने एक दिन सोनिया से साफ़ कह दिया कि उनके बच्चे राजनीति के लिए अनफिट हैं। दोनों ही औसत बुद्धि वाले हैं और बेहतर है कि उन्हें बिजनेस में भेज दिया जाए। बकौल सुभाष, ‘इस सलाह से सोनिया चिढ़ गयीं। उन्हें यह लगने लगा कि राव उनके बच्चों को राजनीति से दूर करना चाहते हैं।’
यह तब की बात है, जब सोनिया को राव पर अगाध भरोसा था। इतना कि राजीव की मृत्यु के छह महीने बाद सोनिया ने राव से कहा था, ‘लोग कहते हैं कि मुझे राजनीति में आना चाहिए। यदि मेरी जगह आपकी बेटी होती तो आप उसे क्या सलाह देते?’ राव का जवाब था, ‘मत आइये।’
राव ने भले ही विवशता के चलते, लेकिन इस रिश्ते को निभाया भी। प्रधानमंत्री रहते हुए वह नियम से सप्ताह में दो बार सोनिया से उनके निवास पर जाकर मिलते थे। कहा तो यह तक जाता है कि राव वहां सोनिया से नीतिगत विषयों पर भी चर्चा करते थे। जानकार बताते हैं कि इस बीच राव को अपनी शक्ति पर कुछ ऐसा भरोसा हुआ कि उन्होंने सोनिया के यहां जाना बंद कर दिया। यही वह गैप था, जिसमें राव के विरोधियों को उनके खिलाफ सोनिया के कान भरने का मौक़ा मिल गया।फिर आई तारीख 20 अगस्त 1995 की। सोनिया ने अमेठी में एक रैली को संबोधित किया। कहा कि उनके पति की हत्या को चार साल और तीन महीने हो गए हैं, लेकिन इसकी जांच बहुत धीमे तरीके से की जा रही है। तुरंत ही सभास्थल ‘राव हटाओ, सोनिया को लाओ’ से गूंजने लगा और इसकी धमक निश्चित ही दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास तक भी महसूस की गयी होगी।


प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा होते ही राव के अच्छे दिन भी पूरे हो गए। कांग्रेस में उन्हें हाशिये पर भी स्थान नहीं मिला। वह बीमार रहने लगे। कोई उनसे मिलने तक नहीं जाता था। फिर 23 दिसंबर, 2004 को राव की मृत्यु हो गयी।
लेकिन सोनिया गांधी ने तो जैसे मौत के बाद भी राव के लिए रार वाले भाव को ज़िंदा रखा। राव के परिजनों की पुरजोर कोशिशों के बावजूद देश के इस पूर्व प्रधानमंत्री का अंतिम संस्कार दिल्ली में होने नहीं दिया गया। यहां तक कि उनके दिवंगत शरीर को कांग्रेस मुख्यालय के परिसर में तक ले जाने की अनुमति नहीं दी गयी। जब तक शव वाहन कांग्रेस मुख्यालय के बाहर खड़ा रहा, तब तक मुख्यालय के मुख्य दरवाजे पर ताला लटका रहा। मीडिया के अनुसार मुख्यालय के लोगों ने कहा कि सोनिया गांधी ने ही वह ताला खोलने की इजाज़त नहीं दी थी। यही वह मोड़ था, जिसने राव के जीवन से अधिक उनकी मृत्यु को चर्चा का विषय बना दिया।

 

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