विश्लेषण

ये दौर ऐसे लाशखोरों का 

वह मेरे बचपन की एक यात्रा थी. ट्रेन को भोपाल स्टेशन (Bhopal Railway Station) पीछे छोड़े करीब आधे घंटे हो चुके थे. कूपे की खिड़की के बाहर एक आदमी रस्सी खींचकर जाता दिखा। रस्सी के दूसरे सिरे पर एक बछड़े की लाश बंधी हुई थी. जब तक मैं कुछ समझता, तब तक दौड़ती ट्रेन के चलते अगला दृश्य सामने था. एक दूसरा आदमी मरी हुई गाय की खाल निकाल रहा था. आसपास मांसभक्षी पक्षियों सहित कुत्तों का भी जमावड़ा इस प्रक्रिया को ललचाई हुई नज़रों से देख रहा था. किसी हमसफ़र सयाने ने मुझे  बताया कि उस जगह यही काम होते हैं. क्योंकि वह शहर से दूर है और आमतौर पर वहाँ कोई निवास भी नहीं करता है.

करीब चालीस साल हो चुके हैं, यह सब हो चुके। मेरा शहर खरामा-खरामा खिसकते हुए ट्रेन की खिड़की से  दिखे उस स्थान को भी निगल चुका है. अब ये वो शहर है, जो अपने बीचों-बीच स्थित एक बूचड़खाने (Slaughter House) को हटाने या न हटाने की बहस के बीच उलझा हुआ है.

कोरोना (Corona) वाले काल में जो कुछ देखने और सुनने मिल रहा है, उससे साफ़ है कि मेरा शहर हरेक मायने में उस जगह को अपने भीतर समाहित कर चुका है, जिस जगह पर लाशों से कमाई की जाती है.  उनकी खाल, बाल और हड्डियों सहित अन्य अवयव बेचकर। हाँ, इस व्यापार की प्रवृत्ति कुछ बदल चुकी है. तब मैंने लाशों से कमाने वाले दो लोग देखे थे, आज अपने शहर में लाश बनने जा रहे लोगों से पैसा बनाने वाले कई लोगों को देख रहा हूँ. वे निश्चित ही कोरोना के वायरस (Corona Virus) की लंबी उम्र की कामना करते होंगे। क्योंकि इस वायरस की आड़ में ही तो वे इस रोग की नकली दवाएं बना रहे हैं. दवा सहित इंजेक्शन और ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी कर रहे हैं. जिन्होंने अस्पतालों को सौदेबाजी का अड्डा  बना दिया है.

और फिर अकेला मेरा शहर भोपाल ही क्यों, मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh)  सहित देश के कई हिस्सों से ऐसे ही नरपिशाचों के खौफनाक किस्से रोज सुनाई दे रहे हैं. वे लाश बनने की कतार में खड़े इंसानों को गिद्ध वाली भूख भरी नजर से देख रहे हैं. उसके परिजनों को लूट-खसोट रहे हैं. किसी अस्पताल में चले जाइए। कोरोना के आम परिवेश वाले मरीजों के साथ जो सलूक वहाँ हो रहा है, वह ब्रिटिश दौर के ‘डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट अलाउड’ (Dogs and Indians are not allowed) वाले दुर्भाग्यशाली दिनों की याद ताजी कर देता है.

वो तो मजबूरी में किसी गाय की खाल निकालकर पेट पाल रहे थे. मगर मेरे शहर सहित देश के भीतर प्रकट हुए अनगिनत सफेदपोश खाल नोचने वाले, कफ़न बेचने और  इंसानी लाशों से भी अपनी कमाई तलाशने वाले मजबूर कतई नहीं हैं. वे इस बात का प्रतीक हैं कि इंसानों की वह खतरनाक प्रजाति अभी ख़त्म नहीं हुई है, जो इंसान को ही खाकर पेट भरती है. कोरोना का वायरस आने वाले समय में  शायद काबू कर लिया जाए, मगर इन लाशखोरों के संक्रमण (Infection) से समाज को कभी मुक्ति मिल पाएगी, इसमें  मुझे पूरा संदेह है.

 

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