व्यंग्य

फिर भी मेरे प्रेरणा पुंज हैं वे

बाकी जगह की पत्रकारिता का पता नहीं, लेकिन भोपाल में इस फील्ड के कई गजब वाले भीष्म पितामह पाए जाते हैं।इनमें से  कई से दुर्घटनावश हुई मुलाकातों के आधार पर एक अदद शक्ल उकेरने की कोशिश की है। ये कई सच्ची घटनाओं का केंद्रीयकृत हिस्सा आप की नजर कर रहा हूँ। यानी व्यक्ति अनेक लेकिन पात्र एक  वाला मामला है वो अखबारों में छपे मेरे हर आलेख को बहुत ध्यान से पढ़ते हैं। यह बात और है कि  जब-जब वह  यह बात मुझे बताते हैं, तब-तब मैं उन्हें स्मरण  कराता हूँ कि  बीते लम्बे समय से मैं लिखना बंद कर  चुका हूं। उनके दावों पर यकीन करूँ  तो मेरी आँख भर आती है। क्योंकि उनके मुताबिक आज तक जहां-जहाँ भी मैंने काम किया है, हर जगह के मालिक ने मुझे रखने से पहले उनसे ही सलाह की थी और हर मर्तबा उन्होंने मेरे बायोडाटा में ‘अपना छोटा भाई है’ के तौर पर अपनी सशक्त मौखिक उपस्थिति दर्ज करवाई है। गजब के त्यागी। हर अखबार के मालिक उनसे अपने यहां काम करने की मिन्नत कर-करके रह गए, लेकिन उन्होंने वर्षों से चली आ रही अपनी घनघोर बेरोजगारी के बावजूद सबको मना कर दिया। इसकी वजह उनके ही शब्दों में सुनिए, ‘गुरू! अपन ने तो फलाने  को कह दिया-मेरा लिखा छापने की आप में दम  नहीं है। क्योंकि मैं लिखूंगा तो साली सरकार हिल जाएगी।’





मुझे लगता है कि  सरकारों के प्रति वह बहुत सम्मान रखते हैं। चुनांचे, कहीं सत्ता हिल न जाए, इसलिए उन्होंने कभी भी कुछ  भी लिखा ही नहीं है। पत्रकारिता के हर छोटे और बड़े सम्मान को उन्होंने हमेशा लात मारी है। इसलिए उनके इस क्षेत्र में कदम रखने से लेकर आज तक कोई भी सम्मानकर्ता उनके पास ही नहीं गया। और जिस-जिसका भी सम्मान हुआ, उसको उन्होंने ‘अपना ही तो चेला है यार वो’ वाले सामानांतर सम्मान से भी नवाजा है। खंडन से बचने की जोरदार विधा के धनी हैं। हर उस वरिष्ठ पत्रकार के वह हमप्याला और हमनिवाला रहे हैं, जो उनके इस दावे को गलत ठहराने के लिए अब इस दुनिया में ही नहीं रहा। ज्यों ही किसी वरिष्ठ पत्रकार ने आँख हमेशा के लिए बंद की, त्यों ही अचानक वे उसके साथ की गयी अपनी हिला देने वाली पत्रकारिता के किस्से लेकर सक्रिय  हो जाते हैं। वो भी इस गजब आत्मविश्वास के साथ कि  ‘मानो न मानो’ वाला रॉबर्ट  रिप्ले भी उनके आगे पानी भरता दिख जाए। जो दिग्गज नेता अब हाशिये पर हो, वे अतीत में उसकी माँ-बहनों का अपने अंदाज में पुण्य स्मरण करने का दावा जरूर करते हैं। और जो नेता अब भी ताकतवर है, वे उसके लाख बार बुलाने के बावजूद उसके पास नहीं जाते।

भले ही जनसम्पर्क विभाग में भृत्य भी उन्हें तवज्जो न दे,किन्तु उनका कहना यही रहता है, ‘वहाँ मैं जाता नहीं  यार। जिसके पास जाओ, डर  के मारे खड़ा हो जाता है।’ पुन:श्च, यह बात वे वहाँ के आला  अफसरों के लिए कहते हैं। बड़ी बात यह नहीं कि  इस विभाग का भृत्य भी उनको घास नहीं डालता, बड़ी बात यह कि  वे छोटे लोगों के मुंह  में यकीन नहीं रखते। भले ही जनसम्पर्क विभाग में अधिमान्यता के उनके तमाम अस्वीकृत आवेदनों  वाले कागज गल कर खत्म होने की कगार पर पहुँच चुके हों, किन्तु वे, ‘चूल्हे में गयी साली अधिमान्यता, अपन नहीं पड़ते इस यूतियापे  में’ वाला बैरागी भाव धारण किये रहते हैं। शहर का हर बड़ा पत्रकार रात में उन्हें फोन करके खबरें मानता है। प्रत्येक नवोदित या उभरता पत्रकार नियम से उनसे स्टोरी आइडियाज की गुहार लगाता है। यह बात और है कि तीस साल से अधिक की पत्रकारिता में मुझे आज तक उनसे किसी स्टोरी आईडिया या स्टोरी का अमृत नहीं मिल सका है।





अध्ययन का शौक इतना किकिसी भी अखबार का पत्रकार सामने पड़ जाये, वे उससे तुरंत उसके अखबार की कॉम्प्लिमेंट्री कॉपी मांगते हैं। आप और हम भले ही उनकी अध्ययनशीलता को तवज्जो न दें, किन्तु उनके यहां प्रत्येक माह जाने वाले कबाड़ी से पूछिए। वह उनकी तारीफ ही करेगा। गजब वीतरागी हैं। आकाशवाणी वाले विधानसभा समीक्षा सहित आलेखों के लिए लगातार उनकी चिरौरी करते हैं। दूरदर्शन तो मानों उनके सहयोग के बगैर एक पल भी न चल सके, लेकिन वे दोनों ही जगहों को अपने आशीर्वाद से वंचित रखते चले आये हैं। और जिन शेष पत्रकारों को इन जगहों में मौका मिल जाए, वे उन्हें तत्काल, ‘एक नंबर का जुगाड़ू और हरामी है साला’ कहकर दुवार्सा ऋषि के गुस्से पर से कॉपीराइट को छीन लेते हैं। भोपाल तो छोड़िये, दिल्ली तक के न्यूज चैनल उन्हें डिस्कशन के लिए लगातार बुलाते हैं, लेकिन उनकी महानता देखिये।

ऐसे हर मौके पर वह अपनी जगह किसी और पत्रकार का नाम आगे कर देते हैं। वह भी सम्बंधित उपकृत पत्रकार को बताये बगैर वह ऐसा करते हैं। आखिर नि:स्वार्थ सेवा भी कोई चीज होती है। हर विषय का उन्हें ज्ञान है, लेकिन मूडी  हैं, इसलिए कोई जानकारी मांगो तो, ‘कभी घर आओ यार, फुरसत से बात करेंगे’ वाले अस्त्र का प्रयोग कर खूबसूरती के साथ खुद का बचाव कर गुजरते हैं। हर बड़ा नेता और अफसर उनके उस दौर में उनके आगे हाथ बांधे खड़ा रहता था, जिस दौर को उनके अलावा कभी भी, किसी ने भी नहीं देखा है। उनका एक तकिया कलाम है, ‘यार पत्रकारिता तो हमारे समय में होती थी।’ यह बात और है कि ‘उनके समय’ की जटिल खोज की प्रक्रिया अभी भी बाकी है। पंडित जवाहरलाल नेहरू पूरे भारत की एक खोज कर गए। कोलंबस ने अमेरिका खोज निकाला। वास्को डिगामा भारत तक आने का रास्ता ढूंढ गए।

राखालदास बनर्जी ने सिंधु घाटी सभ्यता को तलाश लिया, लेकिन हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य कि  इन सज्जन की पत्रकारिता वाले दौर की खोज के लिए कोई भागीरथ अब तक नहीं मिल सका है। मुझे पूरा विश्वास है कि विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का एक न एक दिन पता लगा ही लिया जाएगा, किन्तु यह यकीन बिलकुल नहीं है कि उनकी कलम वाले दौर के अवशेष भी कहीं तलाशे जा सकेंगे। फिर भी वह प्रेरणा पुंज हैं। क्योंकि उन्हें देखकर कई भावी पत्रकार यह सोचकर आश्वस्त हो जाते हैं कि यदि ये पत्रकार कहलाते हैं तो फिर हम भी इस फील्ड में आगे निकल ही जाएंगे।

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