नज़रिया

हिटलर के गैस चैंबर और बीफ पूजकों के बूचड़खाने 

आवश्यकता आविष्कार की जननी (Necessity is Mother of invension) है। यह आज के समय की आवश्यकता है कि गाय (Cow) पर निबंध को नए तरीके से लिखा जाए। क्योंकि अब मामला ‘गाय हमारी माता है’ वाला नहीं रह गया है। अब गाय गरीब की वह ब्याहता है, जिससे आते-जाते शोहदे चुहल कर ले रहे हैं। गौ मूत्र अब आउटडेटेड मामला है। उसका स्थान गौ मांस (Beef) ले चुका है। इसके तरह-तरह से प्रचार की कई शैली इन दिनों खासी लोकप्रिय हो चुकी हैं। उन्होंने फैशन का रूप ले लिया है। ठंडक के दिन में पहले लोग एक-दूसरे से पूछते थे, ‘गाजर का हलवा खाया या नहीं?’ अब जल्दी ही पूछा जाएगा, ‘बीफ खाया या नहीं?’ ये चलन जोरदार गति पकड़ेगा। क्योंकि गाय का मांस खाने के लिए किसी मौसम विशेष के आने का मुंह ताकना नहीं पड़ता है। हां, आस्था का कुछ दकियानूसी संकट हो सकता है, लेकिन उसका भी हल मिल गया है। वीर सावरकर (Vir Savarkar) के लिखे की  दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) वाली व्याख्या पर तमाम अविश्वास के बाद भी आंख मूंदकर यकीन कर लो। दिवंगतों में श्रद्धा हो तो ऋषि कपूर (Rishi Kapur) की याद कर लीजिए। विवादितों के माध्यम से यह काम करना है तो मार्कण्डेय काटजू (Markandey Katju) को सुन सकते हैं। इन दोनों ही महानुभावों ने बीफ के सेवन को लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब ऐसे लोगों का पलड़ा हल्का हो रहा है, जिनके हृदय में गाय को देखकर भक्ति और वात्सल्य का रस बहने लगता है। पलड़ा उनका भारी है, जिन्हें गाय को देखते साथ अपने मुंह में पानी उतरता महसूस होने लगता है।

गाय अब श्रद्धापूर्ण भजन की बजाय रुचिकर भोजन का माध्यम बना दी गयी है। अब इस दिशा में उलझन का कोई स्थान नहीं रह गया है।  केरल में कांग्रेस नेता रिजिल मक्कुट्टी का सभी को आभार जताना चाहिए कि चार वर्ष पूर्व आपने बीच सड़क पर गाय का बछड़ा काटकर देश के बूचड़खानों (Slaughter House) को कुटीर उद्योग की तरह संचालित करने की शिक्षा प्रदान की थी। गौ मांस से बने व्यंजन किस तरह मानसिकता विशेष के लोगों के बीच परस्पर सौहार्द्र को बढ़ा सकते हैं, यह प्रयोग भी चार साल पहले देश के कुछ शिक्षण संस्थानों में सफलतापूर्वक संचालित किया जा चुका है। अब समय आ गया है कि इन अभियानों को और गति प्रदान की जाए।

इस तरह यह माहौल थोपा जा रहा है कि गाय श्रद्धा से रोटी खिलाने नही, बल्कि सूतकर उसकी बोटी खाने के लिए ही बनी है। इसकी पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कर लेने की कोई ग्यारंटी नहीं है, किन्तु इसका पेट फाड़कर अपना पेट भरने में शत-प्रतिशत संतुष्टि की गुंजाइश है। प्रेमचंद (Munshi Premchand) जी ने होरी को बहुत पहले मार दिया। वह ‘गोदान’ (Godan) के इस चरित्र को आज मारते तो उपन्यास का अंत ही कुछ अनूठा होता। होरी की मौत के बाद उसकी पत्नी और बेटा परिवार के मुखिया की स्मृति में गांव के लोगों को बीफ पार्टी देते। खैर, अब भी समय है कि बिसाहड़ा गांव में अख़लाक़ की प्रतिमा स्थापित कर गाय को मौजूदा समय में उसकी असली औकात का परिचय दे दिया जाए। ऐसा किया जाना नितांत आवश्यक हो गया है, ताकि इस नवीन राष्ट्रीय चेतना के पुनीत प्रतीकों की स्थापना में तेजी लाई जा सके। इस सन्दर्भ में एक निराशा बहुत सता रही है। वह यह कि दिल्ली की बॉर्डर पर अन्नदाता के खाने-पीने का पांच सितारा इंतजाम करने वाले धनदाता वहां गौ मांस से बने व्यंजनों का इंतजाम करना भूल गए। यह चूक उन अगुआओं के चाल, चरित्र और चेहरे से बिलकुल भी मेल नहीं खाती है। ऐसे धनदाता कृपया भविष्य के अपने आयोजनों में इस दिशा में मेरी शिकायत को अवश्य ध्यान में रखें।

एक मित्र अलीगढ़ (Aligarh) में रहते हैं। वह फ़ोन पर बता रहे हैं कि वहां के ताला उद्योग में जबरदस्त उत्साह का माहौल है। इस उद्योग को पूरी उम्मीद है कि अब जल्दी ही देश की सभी गौशालाओं पर ताला लगानी की नौबत आ रही है। इससे उनके उत्पाद की डिमांड में बंपर उछाल आना तय है। फिर जब गौ मांस को लेकर इस सामाजिक क्रांति का प्रसार होगा तो गौ मूत्र से आधारित उत्पाद तैयार करने वालों को भी इन तालों की ही आवश्यकता होगी। इस तरह अलीगढ़ के ताले जल्दी ही ‘मेक इन इंडिया’ (Make in India) की सफलता का प्रतीक बन जाएंगे। वाह! यह सोचकर ही आंख खुशी से छलकने लगी है कि स्वदेशी और मेक इन इंडिया का कंपोनेंट मिक्स्चर देखने की दिशा में लोग कितनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन हाय! कि हम पीछे धकेल दिए जा रहे हैं। वजह यह कि हमारी अंतरात्मा गाय को खाने की कल्पना से भी कांप जा रही है। हम कांप रहे हैं और इसीलिए प्रगतिशील भीड़ में खुद को कम आंक रहे हैं। गाय को दुहने वाला समय ख़त्म हो रहा है। अब उसे चुगने वाली नस्ल ताकतवर हो गयी है। ऐसे लोगों का विरोध कर भला कौन अपने आप को नस्लवाद के आरोपियों की फेहरिस्त में शामिल कराना चाहेगा? अंत में केवल एक सवाल। घोर नस्लवाद के जनक हिटलर (Hitler) के गैस चैंबर और बीफ पूजकों के बूचड़खानों के बीच कोई अंतर दिखेगा या नहीं?  गाय पर परिवर्तित स्वरूप में लिखे जाने वाले निबंध में इस सवाल का उत्तर अवश्य शामिल किया जाना चाहिए।

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