नज़रिया

(गतांक से आगे) चलिए कि रोज की जाए पूजा समुद्र की

मैं पूरी तरह इस बात से सहमत हूँ कि जीवन साथी का चयन हरेक लड़की का अपना अधिकार है। लव के नाम पर लव जिहाद की जद में आयी हिन्दू लड़कियों को भी यही हक हासिल है। लेकिन क्या इश्क से लेकर धर्म परिवर्तन वाली बाध्यताएं केवल हिन्दू लड़कियों के लिए ही हैं। गुजरे दौर में भोपाल में कानूनी दांव-पेंच के एक दिग्गज हिन्दू नेता हुआ करते थे। जनाब का दिल एक मुस्लिम लड़की पर आ गया। तो फिर हुआ यह कि इन सज्जन ने बाकायदा इस्लाम कबूल किया और तब कहीं जाकर वह महिला उनसे निकाह के लिये राजी हुई। एक आला दर्जे के अफसर अब रिटायर हो चुके हैं। उन्होंने भी एक मुस्लिम महिला से शादी की थी। शादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी वह महिला आज तक अपने नाम के साथ मुस्लिम सरनेम ही लगाती है। नरगिस ने सुनील दत्त से शादी के बाद भी मुस्लिम वाला जीवन ही बिताया। मृत्यु के पश्चात नरगिस को सुपुर्दे-खाक ही किया गया था। ऐसे उदाहरण यही बताते हैं कि देश में हिंदू किस कदर अपने धर्म के लिए शर्मिंदगी वाले भाव से घिरे हुए हैं। वहीं कैसे मुस्लिमों के बीच उनके मजहब को लेकर कट्टरता की हद तक भाव लगातार पनपाये जाते रहे हैं।

ईरान में रहते हुए पारसी अपनी शिक्षा, ज्ञान और अपने धर्म की मजबूती का रट्टा ही लगाते रहे। इस्लामिक अत्याचारों के बीच वे इसी बात से मुतमइन रहे कि उनके धर्म की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि कोई उसे हिला ही नहीं सकता। वे इस मुगालते में भी रहे कि चूंकि उनकी कौम पढ़ी-लिखी है, लिहाजा उसे धर्म को लेकर चिंता का भाव पालते हुए खुद को कट्टर नहीं बनाना चाहिए। यही देश में हिन्दुओं के साथ हो रहा है। इस वर्ग को पढ़ा-लिखा होने की बात कहकर उसके धर्म से बड़ी तरकीब से दूर किया जा रहा है। नतीजा यह कि किसी दफ्तर का काम छोड़कर नमाज अदा करने जाने को महान धार्मिक आचरण समझा जाता है और इसी काम के बीच किसी के मंदिर जाने को रूढ़िवादिता का पर्याय बता दिया जाता है। और हम हिन्दू, इतने इस सब में पूरी खामोशी के साथ ढलते चले जा रहे हैं।




ज्यादातर मंदिरों में आपको अब एक मशीन दिख जाएगी। बटन दबाइये और उससे शंख सहित मंजीरे तथा घंटे आदि की मंगल ध्वनि निकलने लगती है। यह मशीन विज्ञान की किसी देन नहीं, बल्कि इस शर्मनाक तथ्य की परिचायक है कि हमारे मंदिरों में जाने वाले इंसानो का इतना टोटा हो गया है कि अब श्रद्धालुओं की जगह मशीनी आस्था से काम चलाना पड़ रहा है। हमें मंदिर जाने की फुर्सत ही कहाँ है! हम तो उस मल्टीस्क्रीन या टॉकीज में समय देने को प्राथमिकता देते हैं, जहां किसी ‘ओ माय गॉड’ या उस जैसी फिल्म में हमारे धर्म की खिल्ली उड़ाई जाए। ‘शोले’ में हिन्दू मंदिर को लड़की पटाने का अड्डा बताने से लेकर ‘ओ माय गॉड’ तक के अनगिनत प्रयोग हम हिन्दुओं से मिली कमाई के जरिये ही बॉक्स आफिस पर पैसे की बरसात करने में सफल रहे हैं।

हम बुक्का फाड़कर रोते हैं कि मकबूल फिदा हुसैन को यह देश छोड़कर भागना पड़ा, लेकिन इस बात को कहने में हमें सांप सूंघ जाता है कि हुसैन ही वह शख्स था, जिसने हिन्दू देवियों का नग्न चित्रण किया था। एक नयी मरोड़ सेक्युलरों के पेट में उठ रही है। मंदिर में पानी पीने से रोके गए लड़के का वीडियो जमकर प्रचारित किया जा रहा है। हिन्दुओं की एक तयशुदा फौज को इस घटनाक्रम के बाद खुद के धर्म पर शर्मिन्दा होने का मौका मिल गया है। लेकिन उन तमाम पोस्टों पर ये हरावल दस्ते पूरी तरह चुप हैं, जिनमें उन मुस्लिम स्थलों की सप्रमाण जानकारी दी गयी है, जहां हिन्दुओं का प्रवेश मना है। ऐसे दोगले हिन्दुओं को अपनी इस धर्म में पैदाइश पर शर्म है या शक, ये तो वे खुद ही बेहतर जानें, लेकिन एक बात सभी जानते हैं कि ये सब वही हो और किया जा रहा है, जो पारसियों ने ईरान में किया था या जो वहाँ उनकी बीच हुआ था।
(क्रमश:)

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