सियासी तर्जुमा

किनारे पर बैठे बुद्धि-विलासी

‘मैं जैसे-तैसे, टूटे-फूटे अलफाज ले के आ गया, अब ये तेरी मर्जी है बिगाड़ दें के संवार दें।’ शेर कुछ अभिलाषा और रूमानियत के सम्मिश्रण वाला है। लेकिन मध्यप्रदेश के सियासी परिदृश्य पर ये फिलहाल पूरी तरह सटीक बैठ रहा है। गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा सूबे में शराब की दुकानें बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं। आबकारी महकमे के आयुक्त राजीवचंद्र दुबे ने आगे बढ़कर कलेक्टरों से इस बारे में प्रस्ताव भी मांग लिए। हालांकि यह आदेश रोक दिया गया है। और इसे एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया भी माना जा सकता है। कांग्रेस विधायक लक्ष्मण सिंह ने दुकानें बढ़ाने के सुझाव को समर्थन दे दिया है। उनके तर्क भी वजनदार हैं। तो ये था एक खास किस्म के सुरों का आरोह। अब अवरोह की बारी, जो बहुत तगड़ा है, जिसका पलड़ा निर्णायक रूप से भारी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐसे प्रस्ताव पर कहा है कि उन्होंने ही मुख्यमंत्री रहते यह तय किया था कि अगले दस साल तक शराब की कोई नई दुकान नहीं खोली जाएगी।

अभी कई तरह के तथ्य सामने आ रहे हैं और उन पर विचार करके ही प्रदेश की जनता के हित में कोई फैसला किया जाएगा। दारू महकमे के मंत्री जगदीश देवड़ा भी इसी राय के हिमायती हैं। बहस-मुबाहिसे की इस नदी में उमा भारती भी कूद पड़ी हैं। पूरी वजनदारी के साथ। उमा भारती की सीधी मांग है कि हरेक भाजपा-शासित राज्य में नशाबंदी लागू का दी जाना चाहिए। उमा ने शराब को ऐसे-ऐसे तरीके से श्राप दिया है कि इस शै को कभी हाथ न लगाने वाले भी अपने अमंगल की कामना से कांप उठे होंगे। उनका कसूर केवल यह होगा कि राज्य में जहरीली शराब रोकने और सरकार के राजस्व में वृद्धि करने की गरज से वे दुकाने बढ़ाने की बात का समर्थन कर गुजरे हैं।

किसी भी मसले के समर्थन और विरोध में सामने आने वाले सुझाव और दलीलें टूटे-फूटे शब्दों की तरह ही होते हैं। उन्हें बिगाड़ने या संवारने का काम तो वही करता है, जो ऐसा करने में समर्थ हो। राज्य में सुरा को लेकर चल रहे संग्राम के बीच यही सामर्थ्य पूरी ताकत के साथ शिवराज सिंह चौहान ने हासिल कर रखी है। तो इस घोषित-अघोषित स्वरूप वाली रायशुमारी पर चौहान ने, ‘बंद करो मतदान’ वाली शैली में अंतिम फैसला सुनाने का उपक्रम अभी नहीं किया है। कहा है कि जो भी फैसला होगा, जनता के हित में ही होगा। शिवराज ने यह किसी सवाल के जवाब में नहीं कहा है। इसलिए किसी पूरक सवाल की गुंजाईश नहीं रह जाती है। यह भी नहीं पूछा जा सकता है कि सीएम का आशय केवल नई दुकानें न खुलने देने का है या फिर वे शराबबंदी के पक्ष में कोई निर्णय लेंगे?

खैर, यह कड़वी सच्चाई है कि शराबबंदी करना नशे की समस्या के खिलाफ कोई कारगर कदम नहीं है। देश में जहां-जहां भी नशाबंदी लागू की गयी है, वहां की शामें आज भी पहले की ही तरह ‘मय बरसती है, फजाओं पे नशा तारी है’ वाले अंदाज में ही रोशन होती हैं। चाहे फिर वो गुजरात हो या बिहार। क्योंकि व्यवस्थाओं में सुराख बनाकर उसकी हवा निकाल देने में हम हिन्दुस्तानियों का कोई जवाब नहीं है। और गुजरात में तो शराब की उपलब्धता में मध्यप्रदेश से तस्करी होकर जाने वाली शराब की बड़ी भूमिका है। शराब पर रोक केवल जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता के हित में ही लगाई जा सकती है। इसे और परिष्कृत करना हो तो शराब पर रोक परिवार द्वारा, परिवार के लिए और परिवार के हित में पीने वाले पर दबाव डालकर ही की जा सकती है। इसलिए मध्यप्रदेश में या कहीं भी नशाबंदी व्यावहारिक सुझाव नहीं दिखता है।

बल्कि इस राज्य में शराब की अंधाधुंध तरीके से बढ़ती कीमतों पर रोक लगाने और वैधानिक शराब तक पहुंच आसान करने की जरूरत है। क्योंकि महंगी शराब के चक्कर में ही लोग जहरीली/नकली शराब पीकर मौत/बीमारी के ग्रास बन रहे हैं। राजस्व आय के लिहाज से लक्ष्मण सिंह की दलील में भी दम है। इसलिए शिवराज सिंह चौहान पर अब बहुत बड़ा जिम्मा आ जाता है कि न तो शराब से राज्य में ‘मद्य प्रदेश’ वाला युग लाने दें और न ही इस पर सख्ती कर सरकार की आय में कमी सहित इसके अवैध कारोबार के दरवाजे खोलने का बंदोबस्त कर दें। इस विषय पर बुद्धि विलास करने वालों की गिनती समंदर के किनारे बैठकर लहरें गिनने वालों के तौर पर ही की जा सकती है। वो समूह, जिसके लिए किसी ने लिखा है. ‘ए मौजे-हवादिस उनको भी, दो-चार थपेड़े हलके दें, कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफां का नजारा करते हैं।’

Web Khabar

वेब खबर

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button