शख्सियत

इस प्रश्न पर मौन और कब तक ?

(नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती 23 जनवरी पर विशेष)

एक प्रश्न बहुत अधिक विचलित करने का क्रम समाप्त ही नहीं करता है। देश की स्वतंत्रता का इतिहास पढ़ लीजिये। सुन लीजिए। ऐसे लगभग 99 प्रतिशत मामलों में एक बात समान दिखती है। वह यह कि इस लिखे और कहे में कई-कई पूर्ण विराम के पहले कुछ तयशुदा नाम किसी अनिवार्यता की तरह थोपे गए प्रतीत होते हैं। इस दोहराव के उबाऊपन तक वाले विस्तार के बाद ही कहीं ऐसा होता है कि पूर्ण विराम के दाहिने छोर पर एकाध कोई और नाम भी स्थान पाने में सफल हो जाए। यह स्वतंत्रता से जुड़े वृत्तांत का प्रायोजित भाग है। इस वृत्तांत को स्वाधीनता संग्राम के कुछ चेहरों के स्वस्ति वाचन या गणेश पूजन की तरह सबसे पहले सामने रखा जाता है। प्रकारांतर से ये थोपा जाता है कि देश की स्वतंत्रता के आरंभ से लेकर अंत तक के घटनाक्रम कुछ नाम वालों के काम के चलते ही सफल हो सके। इसमें यह संकेत भी होता है कि ऐसे नामों और कामों के बीच कुछ और भी लोगों ने इस संग्राम में अतिथि कलाकार जैसी भूमिका निभाई थी। बाकी तो देश को पराधीनता से मुक्ति पूर्ण विराम के बायीं और प्राण-प्रतिष्ठित किये गए कुछ चेहरों की वजह से ही मिल सकी थी। विद्यालयीन पाठ्यक्रम से लेकर सरकारी अनुदान वाली प्रेरणा से लिखे गए इतिहास की इस विडंबना ने कई महापुरुषों के योगदान के साथ सदैव से ही पक्षपात किया है। इनमें से ही एक नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है। बोस बाबू स्वतंत्रता संग्राम में कई कार्यों के अर्थ में प्रथम पुरुष होने के उपरान्त भी इसके उल्लेख में बहुत पीछे रखे गए।  यह नेताजी ही थे, जिन्होंने अंग्रेज शासकों को यह भान कराया था कि अब उनके लिए स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर ‘मैत्रीपूर्ण मुकाबले’ का समय समाप्त होने लगा है। आज के सन्दर्भ में कहें तो नेताजी की आजाद हिन्द फौज ने ब्रिटिश साम्राज्य को स्वाधीनता के लिए भारतीयो के ‘वर्चुअल’ की बजाय ‘एक्चुअल’ विरोधी तेवरों का सामना करने वाली चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में ला दिया था।

निश्चित ही कांग्रेस पर हावी तत्कालीन वैचारिक मठाधीशों ने स्वतंत्रता के लिए नेताजी के अवदान और अभियान को महत्व प्रदान नहीं किया। किंतु ऐसे ही घटनाक्रम के बीच एक या दो नहीं, बल्कि पूरे ग्यारह देशों ने नेताजी द्वारा बनायी गयी स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार को मान्यता प्रदान की थी। कई दशकों की परतंत्रता झेल रहे किसी देश के लिए उस समय इतना बड़ा समर्थन जुटाना आसान नहीं था। जो लोग बोस बाबू के इस अभियान को असफल मानते हैं, उनके लिए यह जानना आवश्यक है कि नेताजी की फ़ौज द्वारा 1944  में अंग्रेजों के अधिकार वाले क्षेत्र पर किये गए हमले ने ही वर्ष 1946 के उस नौसेना विद्रोह की नीव रखी थी, जिसने विदेशी सत्ता की नीव को सही अर्थों में हिलाकर रख दिया था।

नेताजी की गुमनामी का दर्द न जाने कब तक सच्चे राष्ट्रभक्तों को व्यथित करता रहेगा। उनसे जुड़े महान घटनाक्रम जितने अधिक हैं, लगभग उतने ही अधिक वह प्रसंग भी हैं, जो देश के इस सपूत की उपेक्षा और उनसे हुए दुर्व्यवहार की याद दिलाते हैं। कांग्रेस के अध्यक्ष पद से नेताजी का हटना एक सामान्य घटना नहीं कही जा सकती है। कहीं न कहीं यह विदेशी शासकों को विश्वास दिलाने का प्रतीक था कि उनकी राह के कांटों को हटाने का काम इस देश के लोगों द्वारा ही किया जा रहा है।

नेताजी की मृत्यु का सत्य शायद ही कभी सामने आ सके, किन्तु जो सच सामने आये हैं, उनकी विवेचना अनिवार्य हो चुकी है। आखिर ऐसा क्या था, जिसने इस देश से अंग्रेजों के बाहर जाने के बाद भी नेताजी के प्रवेश को सदैव बाधित करके रखा? वह क्या कारण थे कि स्वतंत्र भारत में भी इस महान सेनानी के घर और परिवार को सतत रूप से गुप्तचरों की निगरानी का दंश झेलना पड़ा? संतुष्टि केवल इस बात की है कि नेताजी दल और देश से बाहर किये गए, किन्तु इसी देश के लोगों के दिलों में उन्होंने वह जगह बनायी, जो विरले ही किसी को प्राप्त होती है। वर्ष 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फ़ौज पर चलाया गया मुक़दमा दरअसल नेताजी की छवि को कलंकित करने के देशी और विदेशी षड़यंत्र का ही प्रतीक था। मुकदमे के दौरान नेताजी सहित उनकी आजाद हिन्द फ़ौज को जिस तरह लांछित किया गया, वह शर्मनाक था। किन्तु सत्य देश की जनता से छिपा नहीं रह सका। लांछन की साजिश से जो सच छन-छन कर बाहर आये, उन्होंने  भारतीयों के बीच नेताजी की छवि को इतना आलोकित किया कि उस समय लोगों के बीच अपने बच्चों का नाम सुभाष रखने की होड़-सी मच गयी थी। नेताजी ने अंग्रेजों को  भारतीयों   से डरना सिखाया। उन्होंने भारतीयों के मन से अंग्रेजों का डर बाहर निकाला। लेकिन उनका क्या, जो स्वतंत्र भारत में अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए नेताजी को भारत सहित समूचे भारतवासियों के हृदय से बाहर निकाले रहने के अपने अभियान में जीवन पर्यन्त लगे रहे? इतिहास ने  यह सवाल नहीं पूछा, लेकिन की वर्तमान और भविष्य भी इस प्रश्न पर मौन ही साधे रहेंगे?

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