विश्लेषण

…ऐसा है तो खूब बहो और डूब मरो महाराज

अधिकाँश मामलों में मीडिया ट्रायल (Media Trial) नामक व्याकरण की वकालत नहीं की जा सकती। आरुषि हत्याकांड (Arushi Talwar Murder Case) से लेकर निर्भया (Nirbhaya case) आदि प्रकरणों में मीडिया की ‘मैं ही जज’ वाली फितरत उसकी गंभीरता को कम करती है,  किन्तु अब हर मामले में ऐसा  किया जाना पूरी तरह गलत भी नहीं है. देश का चुनाव आयोग (Election Commission of India) खफा है. चाह रहा है कि उससे जुड़े ख़ास  प्रकृति के मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाई जाए. ये बिलबिलाहट स्वाभाविक है. मद्रास हाई कोर्ट (High Court of Madras) ने देश में कोरोना (Corona) के बिगड़ हालात के लिए सीधे-सीधे आयोग को दोषी बताया है. कहा है कि इसके लिए आयोग के अफसरों के खिलाफ हत्या का केस दर्ज किया जाना चाहिए। मीडिया ने इस फैसले को प्रचारित/प्रसारित किया। इसकी समीक्षा की. इनका निचोड़ यह निकला कि आयोग को निर्धारित समय में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने की जल्दी थी. इसलिए उसने कोरोना के भीषण खतरे को नज़रंदाज़ कर दिया।

कोर्ट की इस तल्खी की बाद चुनाव आयोग ने  सांप  के निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसा काम किया। उसने  चुनाव नतीजों के बाद मनाये जाने वाले जीत के जश्नों पर रोक  लगा दी है. ये निर्णय होने तक देश में कोरोना के मामलों में भयावह तरीके से वृद्धि हो चुकी है. और यह सब चुनावी हलचल (भीड़ भरी सभाओं तथा प्रचार) के दौरान ही हुआ. तब भला आयोग को अपनी शक्तियों  और कर्तव्यों का भान क्यों नहीं हुआ? क्यों उसे नहीं लगा कि यह चुनाव कोरोना के लिहाज से घोर असुरक्षित माहौल से परे संपन्न कराये जाने चाहिए? और क्यों नहीं उसने ऐसा किया? मीडिया चीख-चीखकर बता रहा था कि वायरस के प्रसार के हालात कितने बेकाबू  हो चुके हैं. एक्टिव केस (Active Cases of Corona) सहित मृतकों के संख्या को लेकर तमाम ऐसे दावे आ रहे थे, जिनकी रोशनी में केंद्र के इस बारे में जारी आंकड़ों का झूठ साफ़ देखा जा सकता था.  पता नहीं कि इस सबके बीच आयोग  की तुलना जलते रोम (Rome) में बांसुरी बजाते नीरो से  की जाना ठीक रहेगा या नहीं, मगर ये पता है कि मामला दावानल बनकर भड़की महामारी की लपटों की फ़िक्र से परे सुकून से बैठकर नजारा देखने जैसा ही था.यदि इस सबको लेकर अदालत की सख्ती की भड़ास मीडिया पर निकाली जा रही है तो इसे आयोग की खीझ ही कहा जाएगा।

आयोग के पास कानून के धुरंधरों  की कमी नहीं है. यदि मीडिया ट्रायल में उसे कुछ अनुचित लगता है तो वह इसके खिलाफ कानून की शरण में जा सकता है. वहाँ से कोई ऐसा निर्णय ला सकता है , जिससे कि मीडिया अपनी इस गलत प्रवृत्ति से डरने लगे. किन्तु ये सब करने की बजाय समाचारों पर रोक जैसी मांग करके आयोग ने अपनी कमजोरी ही साबित की है. मीडिया का मकसद किसी गलती को उजागर करना है तो उसके पीछे या बात भी होती है  कि  ऐसा करने से किसी को और गलत दिशा में जाने से रोका जा सके. फिर इसमें आयोग जैसे इस ठकरास को आड़े नहीं आना चाहिए। एक किस्सा याद आ गया. एक जमींदार  बाढ़ के पानी में बहा जा रहा था. एक गरीब किसान की बीवी ने यह देखा। वह चिल्लाकर पति से बोली, ‘देखो तो! जमींदार बहता हुआ मरने वाला है.’ औरत का  इशारा इस बात  की तरफ था की जमींदार बाहर आने के लिए जरूरी सही प्रयासों की बजाय गलतियां करता जा रहा था. किन्तु महिला के  यूं चीखने से जमींदार को अपनी बेइज्जती लगी. वह किसान से बोला, ‘अपनी औरत को समझा। उसे पता नहीं है क्या कि मुझ सरीखे बड़े आदमी के लिए किस तरह बात की  जाना चाहिए?’ किसान सहम गया. फिर तुरंत बोला, ‘महाराज! माफ़ कर दीजिये इस गंवार औरत को. आप तो जी भर कर बहिये और  जी भरकर मरिये महाराज।’ क्या आयोग भी मीडिया का उस किसान जैसा स्वरूप ही देखना चाह रहा था, जो उसकी प्रलयंकारी गलतियों में सुधार करने की बजाय उसे जी भरकर बहने और जी भरकर डूब मरने के लिए ही प्रेरित करता रहे!! अगर ऐसा ही है तो बहो और डूब मरो महाराज, आपकी इस अदा की भी जय हो.

 

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