विश्लेषण

हास्य और फूहड़ता में अंतर समझें नाथ

नेताजी ने दुनिया के सबसे महंगे ब्रांड का कच्छा खरीदा। इसे वे लोगों को दिखाना भी चाहते थे। इसलिए एक सभा में उन्होंने अपनी धोती को ऐसे-ऐसे तरीकों से इधर से उधर किया, जिससे वह कच्छा लोगों को दिख जाए। जमकर तालियां बजीं। अपनी सफलता से गदगद नेताजी ने पत्नी को फोन पर यह समाचार सुनाया। पत्नी का जवाब आया, ‘सत्यानाश हो, तुम तो आज कच्छा पहनना ही भूल गए थे। तो अब तय कर लो कि तालियां क्यों बज रही थीं।’

निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में मैं मर्यादित आचरण का प्रबल आग्रही हूं। लेकिन ये लतीफा लिखा, क्योंकि घोर अमर्यादित आचरण देखकर ऐसा किये बगैर रहा नहीं गया। महिला दिवस पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की स्पीच सुन कर सिर धुन लेने का मन हो रहा है। महिलाओं के बीच आप जवानी की याद कर रहे हो। उसके अभी भी कायम रहने जैसी बात कह रहे हो। क्या ये किसी भी तरह से शोभा देता है? नाथ भी मंच से खुद को चुस्त और तंदुरुस्त बताना चाह रहे थे। इसी फेर में वे ऊपर बताये गए नेताजी सरीखा निर्वसन आचरण कर गुजरे। जिस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष एक महिला है। जो दल देश की पहली महिला प्रधानमंत्री का गुणगान करने का कोई मौका नहीं चूकता, उसी दल में एक वरिष्ठ नेता का स्त्री समुदाय के बीच ऐसा आचरण खलता है। और फिर जब मामला, ‘हम नहीं सुधरेंगे’ वाली निर्लज्जता तक पहुंच जाए तो फिर इसकी गंभीरता और बढ़ जाती है।

विधानसभा उपचुनाव के बीच नाथ ने ही एक महिला के लिए ‘आयटम’ शब्द का प्रयोग किया था। इसी दल के एक अन्य सीनियर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सार्वजनिक मंच से के महिला नेत्री के लिए ‘टंच माल’ का शब्द इस्तेमाल कर चुके हैं। दिल्ली में नयना साहनी का काण्ड भले ही बहुत पुराना हो गया हो, किन्तु उस होटल में आज भी मौजूद वह तंदूर भयावह स्मृतियाँ समेटे अब भी बहुत कुछ कड़वी यादें दिला रहा है। और ये ताजा मामला दिखा रहा है कि मानसिकता के स्तर पर अब भी बहुत कुछ सुधार किये जाने की सख्त दरकार है।

नाथ यकीनन मजाकिया हैं। लेकिन हास्य और फूहड़ता के बीच का फर्क तो उन्हें समझना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह महिला दिवस स्त्रियों के बीच ही मनाया। लेकिन क्या एक भी जगह उनके मुंह से कुछ ऐसा निकला, जो आधी आबादी की गरिमा को विपरीत रूप से प्रभावित करने वाला कहा जा सकता हो? तो फिर नाथ भला क्यों बहक गए? उनके इरादों में अश्लीलता का पुट तलाशना निश्चित ही ज्यादती होगी, मगर उनकी भाषा और भाव भंगिमा में लाख कोशिश के बावजूद हास्य का कोई बोध नजर नहीं आया। कल की सभा में ठहाके तो नाथ की बात पर भी लगे, तालियां भी सुनाई दीं, लेकिन जैसा कि शुरू के लतीफे में पूछा गया था, यहां भी सवाल उठाया जा सकता है कि नाथ अब तय कर लें कि तालियां क्यों बज रही थीं?

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