सियासी तर्जुमा

भगवा कम हुआ तो क्या…भरपूर खून तो मौजूद है 

सियासी तर्जुमा: मुकुल रॉय (Mukul Roy) ने भगवा गमछा उतार दिया। अब वे एक बार फिर ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) की शरण में चले गए हैं। पश्चिम बंगाल (West Bengal) में ये अमीर खुसरो (Amir Khusro) वाला दौर है। वहाँ ‘.. चल खुसरो घर आपने’ की शैली में कई कदम भाजपा (BJP) से वापस तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) (TMC) में लौट गए। लेकिन इस सबको भाजपा की शिकस्त का प्रतीक नहीं माना जाना चाहिए। क्योंकि लौटने वाले कदम वही हैं, जो समझ गए थे कि उनकी वास्तविक औकात क्या है। दल-बदल करते समय उन्हें यह गलतफहमी थी कि वे इस राज्य में शक्ति का केंद्र बन गए हैं। मगर विधानसभा चुनाव में उनकी ताकत का सियासी शीघ्र पतन हो गया। तब उनकी अकल ठिकाने आ गयी। रॉय और  उनकी तरह के बाकी लोग एक बात समझ गए। वह यह कि उन्होंने खुद को जिस रोशनी से दैदीप्यमान माना था, दरअसल वह उधार का मामला था। बल्कि भीख का। वे इसलिए ताकतवर थे, क्योंकि ममता बनर्जी की ताकत की ऑक्सीजन ही उनके फेफड़ों तक भी पहुँच रही थे। वे वहाँ जनता के बीच इसलिए चमके कि उनके ठेठ आहनी (लोहे के) जैसे निर्जीव वजूद को ममता ने सोने का पानी चढ़ाकर नकली चमक प्रदान कर दी थी। इस चमक की रोशनी कमाल है। वह इस देश की आँखों को इस कदर चौंधिया चुकी है कि पश्चिम बंगाल में देशद्रोही घुसपैठियों और सच्चे भारतीयों के बीच अंतर नजर ही नहीं आ पाता है।

मुकुल रॉय और अन्य की स्थिति पर गौर करें। यह भाजपा से नाराजगी कम और ममता से ‘त्राहिमाम’ वाले भाव में आतंकित होने का मामला ज्यादा है। पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद वहाँ भाजपा समर्थकों पर जमकर अत्याचार किये गए। असम (Assam) में शरणार्थियों जैसी हालत में पहुंचे हिन्दू ममता के तीसरे कार्यकाल की रंजिश-आधारित नीति और राजनीति, दोनों का साफ संकेत दे रहे हैं। यह इस बात का साफ़ प्रतीक हैं कि भाजपा की विधानसभा में बढ़ी ताकत भी फिलहाल तो बनर्जी के घातक इरादों के आगे कुछ असर नहीं रखेगी। सन 2026 के विधानसभा चुनाव तक तृणमूल कांग्रेस यहां विरोधियों और भाजपा समर्थकों को समूल ख़त्म करने  में कोई कसर नहीं उठा रखेगी, यह तय है। इसलिए फिलहाल यही मुफीद माना जा रहा है कि अपनी रीढ़ की  हड्डी निकलवाकर भी ममता के सामने साष्टांग दंडवत कर लिया जाए। इससे यकीनन आत्मसम्मान पर सवाल उठेंगे। लेकिन जान तो बच जाएगी ना? भले ही यहां ‘जान बची तो लाखों पाए’ की जगह अब ‘जान बची मगर लातों खाये’ वाली बात होगी।





यानी कि एक मर्तबा ममता का विश्वास तोड़ने वाले अब तृणमूल में वापसी के बाद लतियाये ही जाएंगे, फिर भी मुकुल रॉय और बाकियों के लिए इसके अलावा अब और कोई विकल्प नहीं बचा है। यह उनकी बिचारगी भी है। क्योंकि ममता के दमन चक्र पर भाजपा ने सख्त प्रतिवाद नहीं किया। केंद्र सरकार ने हालात में सशक्त हस्तक्षेप करने में कंजूसी बरती। शायद यह भी खेल का हिस्सा था। भाजपा ममता के अत्याचार को जारी रहने देते हुए सारे देश में उन्हें हिन्दू-विरोधी के रूप में कुख्यात करना चाहती थी। वह इसमें काफी हद तक सफल भी रही है। लेकिन बदले के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे रॉय सहित उन सभी का सुरक्षित पनाह तलाशना लाजमी है, जो जानते थे कि यदि ममता फिर जीतीं तो अगले पांच साल वे अनाचार की भट्टी में झोंक दिए जाएंगे। किसी खाड़ी देश की तर्ज पर पश्चिम बंगाल में जगह-जगह पर ‘चॉप-चॉप स्क्वायर’ (Chop-Chop Square) खुल जाएंगे।

ऐसे हर राज्य सरकार प्रायोजित ठिकाने पर सार्वजनिक रूप से दीदी की दीद (आँख) को खटकने वाले लोगों का सियासी वध या अंग-भंग किया जाएगा।  ये सुनने में अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन तय मानकर चलिए कि उस राज्य में अब जिन चीजों की शुरूआत की जा चुकी है, वो ‘चॉप-चॉप स्क्वायर’ वाले भयावह भविष्य की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि भगवा में लाल मिलाया जाए तो फिर कौन सा नया रंग बनता है। खैर, एकाध साल बाद कोलकाता (Kolkata) जाने का कार्यक्रम बनाऊंगा, ताकि इस नए रंग को देखकर खुद से ही पूछे गए इस सवाल का जवाब पा सकूं। उस राज्य में अब भगवा कम पड़ जाए  तो क्या फरक पड़ेगा? उसकी आड़ में बहाया जा सकने वाला खून तो कम से कम अगले पांच साल तक पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगा ही।

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