शख्सियत

दोहराई गयी सफलताओं के प्रथम लॉन्च पैड शांताराम जी

यदि आप सिनेमा के लिए प्रबल आग्रह नहीं रखते हैं तो ये बात आपको हास्यास्पद लगेगी। मैं उस दिन की बोरियत का हमेशा अहसानमंद रहूंगा। भोपाल रेलवे स्टेशन (Bhopal Railway Station) पर मैं  किसी परिचित को लेने गया था। पता चला कि ट्रेन काफी देर से आएगी। स्टेशन पर ऊबने लगा तो बाहर आ गया। पास बनी अल्पना टॉकीज में ‘नवरंग’ फिल्म (Navrang Movie) लगी हुई थी। मेरी उसे देखने में कोई रुचि नहीं थी। क्योंकि टीवी पर इस फिल्म के जो गाने देखे थे, उनसे मुझे यह विश्वास हो चला था कि ये फिल्म नहीं, बल्कि कोई मजाक है। फिर भी स्टेशन पर इंतज़ार की बोरियत से बचने के लिए मैंने मन मारकर वह फिल्म देखने का फैसला किया। जिस समय यह चित्र समाप्त हुआ, तब तक मैं सम्मोहित हो चुका था। कथानक से लेकर फिल्मांकन का जादू मेरे सिर चढ़कर बोल रहा था। स्नेह की पात्र कल्पनाशीलता को सतत रूप से मिली हिकारत के प्रस्तुतिकरण ने मुझे द्रवित कर दिया था। राज्याश्रय से लेकर विदेशी आश्रय के बीच पिसती भारतीय कला के चित्रण के सजीव चित्रण ने मुझे भावविभोर कर दिया था।

उस दिन ने मुझे जिन वी शांताराम (V Shantaram) जी से मिलवाया, वह मेरे जीवन के लिए किसी पुण्य परिचय से कम नहीं था। इसके बाद मैंने ‘दो आंखें बारह हाथ’ (Do Ankhen barah haath) देखी। भारी संघर्ष के बाद मुझे किसी तरह वीडियो पर ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ (Dr. Kotnis ki Amar Kahani) देख पाने का मौक़ा मिला। इन दो चित्रों से परिचय ने मेरे भीतर एक शोधार्थी को पनपाया। मुझे लगा कि भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) के वास्तविक मोती चुनने है तो शांताराम जी की कृतियों के महासागर में डुबकी लगाना नितांत आवश्यक है। जल्दी ही अपने सरीखे कुछ और ‘सिरफिरों’ की मदद से मुझे ‘आदमी’ (Aadmi)’दहेज़’ (Dahez) ‘दुनिया न माने’ (Duniya na Maane) और इन जैसी कई कृतियों को देखने का अवसर हासिल हो सका। तब मैंने पाया कि सिनेमा का बहुत अधिक शौक़ीन होने के बावजूद मैं आज तक इस विधा के अहम सुख से वंचित ही था।

ये कहना तो अतिशयोक्ति होगी कि शांताराम जी जैसा और कोई फिल्मकार इस देश को नहीं मिला। किंतु यह कहा जा सकता है कि उन जैसे फिल्मकार विरले ही मिल पाते हैं। उस व्यक्ति के प्रस्तुतिकरण के साहस की कल्पना कीजिए, जिसने 1940 के दशक वाले घोर दकियानूसी परिवेश के बीच ‘दुनिया न माने’ की रचना कर बेमेल विवाह के विरुद्ध स्त्री समाज को संघर्ष की प्रेरणा दी। क्या यह आसान रहा होगा? ‘पति परमेश्वर’ वाले दौर में पति के ही खिलाफ पत्नी के विद्रोह को दिखा पाना वाकई किसी बड़ी वैचारिक क्रांति की रिस्क लेने का ही प्रतीक था। वरना तो हिंदी सिनेमा ‘दुनिया न माने’ के बाद भी मदर इंडिया (Mother India) में ‘संसार में बस लाज ही नारी का धरम है’ से लेकर नारी प्रगति की धूम वाले दौर में भी ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है। मेरा पति मेरा देवता है’ वाली दकियानूसी सोच की चादर ही इस समाज को ओढ़ाता रहा।





यदि आप वी शांताराम जी के योगदान से परिचित नहीं हैं, तो कुछ उदाहरण जरूर समझिये। सुनील दत्त (Sunil Dutt) और वैजयंती माला (Vaijayanti Mala) की श्वेत-श्याम फिल्म (Black and White) ‘साधना’ (Sadhna) सुपर हिट रही। दर्शकों का यही रिस्पांस फिल्मों के रंगीन होने के बाद वाले दौर में धर्मेंद्र-हेमा मालिनी (Dharmendra-Hema Malini) अभिनीत ‘शराफत’ (Sharafat) को मिला। एक फिल्म ‘बागी’ (Baaghi) ने सलमान खां (Salman Khan) की शुरूआती लोकप्रियता में वृद्धि की। तीनों और इसी शैली के सुपर हिट हुए कई चित्रों की एक जैसी थीम थी। किसी बदनाम पेशे वाली स्त्री से नायक का प्रेम। यह विषय कुछ ऐसा भावनात्मक असर रखता है कि महेश भट्ट (Mahesh Bhatt) ने भी इसकी ही पूंछ पकड़कर ‘सड़क’ जैसे सतही चित्र के जरिये सफलता की वैतरणी पार कर ली थी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस कांसेप्ट के जनक वी शांताराम ही थे। जिन्होंने वर्ष 1939 में एक तवायफ और पुलिस वाले के प्रेम तथा समर्पण पर आधारित फिल्म ‘आदमी’ में इस विषय को उठाया था। शांताराम जी की इसी प्रस्तुति को अपने-अपने तरीके से भावनाओं का तड़का लगाकर उनके बाद के कई फिल्मकारों ने चांदी काटी। जबकि शांताराम ने इस थीम को उस समय सेल्युलॉइड पर उतार दिया, जब नैतिक दबावों की प्रचंड आंधी के चलते उनकी वैचारिक क्षमताओं को लांछित किए जाने के आसन्न संकट हावी थे।

ग्रेट शो मैन राज कपूर (Great Showman Raj Kapur) की ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (Satyam Shivam Sundaram) के एक सिरे को ध्यान से देखिये तो वह सीधा शांताराम जी की ‘नवरंग’ से जाकर जुड़ता है। पत्नी तथा प्रेयसी के बीच कल्पना और भ्रम में जी रहे नायक की इस अनूठी अवधारणा को ‘नवरंग’ में ही पहली बार प्रस्तुत किया गया था। हां, कपूर की यह खूबी रही कि शांताराम जी की इसी थीम को वह जीनत अमान (Zeenat Aman) के मादक सौंदर्य और न्यूनतम वस्त्रों की अवधारणा के जरिये ‘नवरंग’ की सफलता से कई गुना आगे तक ले जाने में सफल रहे। स्वयंभू ग्रेट शोमैन सुभाष घई (Subhash Ghai) ने शांताराम की ‘दो आंखें, बारह हाथ’ की पटकथा की जूठन चुराकर ही ‘कर्मा’ (Karma) के माध्यम से पेट भरकर शोहरत हासिल की थी। सुपर हिट सार्थक चित्र ‘नाचे मयूरी’ (Nache Mayuri) निश्चित ही सुधा चंद्रन (Sudha Chandran) की निजी जिंदगी पर आधारित रहा, लेकिन क्या चंद्रन को जीवन के इस संघर्ष की प्रेरणा देने में शांताराम जी की ‘जल बिन मछली, नृत्य बिन बिजली’ (Jal bin machhli nrity bin bijle) ने अहम भूमिका अदा नहीं की होगी? दुर्घटना में अपने पैर खोने वाली नृत्यांगना के संघर्ष तथा साहस को जिस तरह शांताराम जी ने वर्ष 1971 में परदे पर साकार कर दिया था, उसी जज्बे और हौसले की कहानी तो हम सुधा चंद्रन के व्यक्तिगत जीवन से लेकर उनकी फिल्म ‘नाचे मयूरी’ में देख चुके हैं। कभी समय मिले तो ‘लड़की सह्याद्री की’ (Ladki Sahyadri ki) देख लीजिएगा। आप पाएंगे कि देश में नारी चरित्र की प्रमुखता वाली तमाम फिल्मों को परवाज शांताराम जी ने इस चित्र के जरिये प्रदान की थी। वी शांताराम जी के सभी चित्रों की विशेषताओं के साथ एक ही लेख में न्याय कर पाना संभव नहीं है। इसलिए यही कहकर बात को विराम दिया जा सकता है कि 18 November उस महान व्यक्ति की जयंती है, जिसने हमारे परिवेश से जुड़े अपने समय के कई त्याज्य विषयों को सिनेमा की रील के जरिये सशक्त लॉन्च पैड (Launching pad) प्रदान किया। विनम्र आदरांजलि।

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